उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
शान्तिकुमार ने गूँजती हुई आवाज में कहा–‘कौन चलता है मेरे साथ अपने ठाकुरजी के दर्शन करने?’
बुढ़िया ने सशंक होकर कहा–‘क्या अन्दर कोई जाने देगा?’
शान्तिकुमार ने मुट्ठी बाँधकर कहा–‘मैं देखूँगा कौन नहीं जाने देता। हमारा ईश्वर किसी की संपति नहीं है, जो सन्दूक में बन्द करके रखा जाय। आज इस मुआमले को तय करना है, सदा के लिए।’
कई सौ स्त्री-पुरुष शान्तिकुमार के साथ मन्दिर की ओर चले। नैना का हृदय धड़कने लगा, पर उसने अपने मन को धिक्कारा और जत्थे के पीछे-पीछे चली। वह यह सोच-सोचकर पुलकित हो रही थी कि भैया इस समय यहाँ होते तो कितने प्रसन्न होते। इसके साथ भाँति-भाँति की शंकाएँ भी बुलबुलों की तरह उठ रही थीं।
ज्यों-ज्यों जत्था आगे बढ़ता था। और लोग आ-आकर मिलते जाते थे, पर ज्यों-ज्यों मन्दिर समीप आता था, लोगों की हिम्मत कम होती जाती थी। जिस अधिकार से ये सदैव वंचित रहे, उसके लिए उनके मन में कोई तीव्र इच्छा न थी। केवल दुःख था मार का। वह विश्वास, जो न्याय-ज्ञान से पैदा होता है, वहाँ न था। फिर भी मनुष्यों की संख्या बढ़ती जाती थी। प्राण देने वाले तो बिरले ही थे। समूह की धौंस जमाकर विजय पाने की आशा ही उन्हें बढ़ा रही थी।
जत्था मन्दिर के सामने पहुँचा तो दस बज गये थे। ब्रह्मचारीजी कई पुजारियों और पंडों के साथ लाठियाँ लिए द्वार पर खड़े थे। लाला समरकान्त भी पैंतरे बदल रहे थे।
नैना को ब्रह्मचारी पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि जाकर फटकारे, तुम बड़े धर्मात्मा बने हो! आधी रात तक इसी मन्दिर में जुआ खेलते हो, पैसे-पैसे पर ईमान बेचते हो, झूठी गवाहियाँ देते हो। द्वार-द्वार पर भीख माँगते हो, फिर भी तुम धर्म के ठेकेदार हो। तुम्हारे तो स्पर्श से ही देवताओ को कलंक लगता है।
वह मन के इस आग्रह को रोक न सकी। पीछे से भीड़ को चीरती हुई मन्दिर के द्वार को चली आ रही थी कि शान्तिकुमार की निगाह उस पर पड़ गयी। चौंककर बोले–‘तुम यहाँ कहाँ नैना? मैंने तो समझा था। तुम अन्दर कथा सुन रही होगी।’
नैना ने बनावटी रोष से कहा–‘आपने तो रास्ता रोक रखा है। कैसे जाऊँ?’
शान्तिकुमार ने भीड़ को सामने से हटाते हुए कहा– ‘मुझे मालूम न था। कि तुम रुकी खड़ी हो।’
नैना ने ज़रा ठिठककर कहा–‘आप हमारे ठाकुरजी को भ्रष्ट करना चाहते हैं?’
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