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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


ब्रह्मचारीजी परशुराम की भाँति विकराल रूप दिखाकर बोले–‘तुम तो बाबूजी अन्धेर करते हो। सासतर में कहाँ लिखा है कि अन्त्यजों को मन्दिर में आने दिया जाय?’

शान्तिकुमार ने आवेश से कहा–‘कही नहीं। शास्त्र में यह लिखा है कि घी में चरबी मिलाकर बेचों, टेनी मारो, रिश्वतें खाओ, आँखों में धूल झोंको और जो तुमसे बलवान हैं, उनके चरण धो-धोकर पियो, चाहे वह शास्त्र को पैरों से ठुकराते हों। तुम्हारे शास्त्र में यह लिखा है, तो यह करो। हमारे शास्त्र में तो यह लिखा है कि भगवान की दृष्टि में न कोई छोटा है, न बड़ा, न कोई शुद्ध और न कोई अशुद्ध। उसकी गोद सबके लिए खुली हुई है।’

समरकान्त के कई आदमियों को अन्त्यजों का पक्ष लेने के लिए तैयार देखकर उन्हें शान्त करने की चेष्टा करते हुए कहा–‘डॉक्टर साहब, तुम व्यर्थ इतना क्रोध कर रहे हो। शास्त्र में क्या लिखा है, क्या नहीं लिखा है, यह तो पंडित ही जानते हैं। हम तो जैसी प्रथा देखते हैं, वह करते हैं। इन पाजियों को सोचना चाहिए था या नहीं? इन्हें तो यहाँ का हाल मालूम है, कही बाहर से तो नहीं आये हैं?’

शान्तिकुमार का ख़ून खौल रहा था–‘आप लोगों ने जूते क्यों मारे?’

ब्रह्मचारी ने उजड्डपन से कहा–‘और क्या पान-फूल लेकर पूजते?’

शान्तिकुमार उत्तेजित होकर बोले–‘अन्धे भक्तों की आँखों मे धूल झोंककर यह हलवे बहुत दिन खाने को न मिलेंगे महाराज, समझ गये? अब वह समय आ रहा है, जब भगवान् भी पानी में स्नान करेंगे दूध से नहीं।’

सब लोग हाँ-हाँ करते ही रहे, पर शान्तिकुमार, आत्मानन्द और सेवा-पाठशाला के छात्र उठकर चल दिये। भजन-मण्डली का मुखिया सेवाश्रम का ब्रजनाथ था। वह भी उनके साथ ही चला गया।

उस दिन फिर कथा न हुई। कुछ लोगों ने ब्रह्मचारी ही पर आक्षेप करना शुरू किया। बैठे तो थे बेचारे एक कोने में, उन्हें उठाने की ज़रूरत ही क्या थी? और उठाया भी तो नम्रता से उठाते। मार-पीट से क्या फायदा?

दूसरे दिन नियत समय पर कथा शुरू हुई, पर श्रोताओं की संख्या बहुत कम हो गयी थी। मधुसूदनजी ने बहुत चाहा कि रंग जमा दें, पर लोग जम्हाइयाँ ले रहे थे और पिछली स़फों में तो लोग धड़ल्ले से सो रहे थे। मालूम होता था, मन्दिर का आँगन कुछ छोटा हो गया है, दरवाज़े कुछ नीचे हो गये हैं, भजन-मण्डली के न होने से और भी सन्नाटा है। उधर नौजवान-सभा के सामने खुले मैदान में शान्तिकुमार की कथा हो रही थी। ब्रजनाथ, सलीम, आत्मानन्द आदि आने वालों का स्वागत करते थे। थोड़ी देर में दरियाँ छोटी पड़ गयी और थोड़ी दूर और गुज़रने पर मैदान भी छोटा पड़ गया। अधिकांश लोग नंगे बदन थे, कुछ लोग चीथड़े पहने हुए। उनकी देह से तम्बाकू और मैलेपन की दुर्गन्ध आ रही थी। स्त्रियाँ आभूषहीन, मैली-कुचैली धोतियाँ या लहँगे पहने हुए थीं। रेशम और सुगन्ध और चमकीले आभूषणों का कहीं नाम न था, पर हृदयों में दया थी, धर्म था, सेवा-भाव था, त्याग था। नये आने वालों को देखते ही लोग जगह घेरने को पाँव न फैला लेते थे, यों न ताकते थे, जैसे कोई शत्रु आ गया हो; बल्कि और सिमट जाते थे और ख़ुशी से जगह दे देते थे।

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