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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


ब्रह्मचारी ने उसे एक जूता जमाते हुए कहा–‘तू यहाँ आया क्यों? यहाँ से वहाँ तक एक दरी बिछी हुई है। सब का सब भरभंड हुआ कि नहीं? परसाद है, चरणामृत है, गंगाजल है। सब मिट्टी हुआ कि नहीं? अब जाड़े-पाले में लोगो को नहाना-धोना पड़ेगा कि नहीं? हम कहते हैं तू बूढ़ा हो गया मिठुआ, मरने के दिन आ गये, पर तुझे अकल भी नहीं आयी। चला है वहाँ से बड़ा भगत की पूँछ बनकर!’

समरकान्त ने बिगड़कर पूछा–‘और भी पहले कभी आया था कि आज ही आया है?’

मिठुआ बोला–‘रोज आते हैं महाराज, यही दरवज्जे पर बैठकर भगवान् की कथा सुनते हैं।’

ब्रह्मचारी ने माथा पीट लिया। ये दुष्ट रोज़ यहाँ आते थे! रोज सबको छूते थे। इनका छुआ हुआ प्रसाद लोग रोज खाते थे! इससे बढ़कर अनर्थ क्या हो सकता है? धर्म पर इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है ‘धर्मात्माओं के क्रोध का वारापार न रहा। कई आदमी जूते ले-लेकर उन ग़रीबों पर पिल पड़े। भगवान् के मन्दिर में, भगवान् के भक्तों के हाथों, भगवान् के भक्तों पर पादुका-प्रहार होने लगा।

डॉक्टर शान्तिकुमार और उनके अध्यापक खड़े ज़रा देर तक यह तमाशा देखते रहे। जब जूते चलने लगे तो स्वामी आत्मानन्द अपना मोटा सोंटा लेकर ब्रह्मचारी की तरफ़ लपके।

डॉक्टर साहब ने देखा, घोर अनर्थ हुआ चाहता है। झपटकर आत्मानन्द के हाथों से सोंटा छीन लिया।

आत्मानन्द ने ख़ून-भरी आँखों से देखकर कहा–‘आप यह दृश्य देख सकते हैं, मैं नहीं देख सकता।’

शान्तिकुमार ने उन्हें शान्त किया और ऊँची आवाज से बोले–‘वाह रे ईश्वर भक्तों! वाह! क्या कहना है तुम्हारी भक्ति का! जो जितने जूते मारेगा, भगवान उस पर उतने प्रसन्न होंगे, उसे चारों पदार्थ मिल जायेंगे। सीधे स्वर्ग से विमान आ जायेगा। मगर अब चाहे जितना मारो, धर्म तो नष्ट हो गया।’

ब्रह्मचारी, लाला समरकान्त, सेठ धनीराम और अन्य धर्म के ठेकेदारों ने चकित होकर शान्तिकुमार की ओर देखा। जूते चलने बन्द हो गये।

शान्तिकुमार इस समय कुरता और धोती पहने, माथे पर चन्दन लगाये, गले में चादर डाले व्यास के छोटे भाई-से लग रहे थे। यहाँ उनका वह फैशन न था, जिस पर विधर्मी होने का आक्षेप किया जा सकता था।

डॉक्टर साहब ने फिर ललकारकर कहा–‘आप लोगों ने हाथ क्यों बन्द कर लिए? लगाइए कस-कसकर! और जूतों से क्या होता है, बन्दूके मँगाइए और धर्मद्रोहियों का अन्त कर डालिए। सरकार कुछ नहीं कह सकती। और तुम धर्मद्रोहियों, तुम सब-के-सब बैठ जाओ और जितने जूते खा सको। खाओ। तुम्हें इतनी ख़बर नहीं कि यहाँ सेठ-महाजनों के भगवान रहते हैं! तुम्हारी इतनी मजाल कि इन भगवान के मन्दिर में कदम रखो! तुम्हारे भगवान कहीं किसी झोंपड़े या पेड़ तले होंगे। यह भगवान रत्नों के आभूषण पहनते हैं, मोहनभोग-मलाई खाते हैं। चीथड़े पहनने वालों और चबेना खाने वालों की सूरत वह नहीं देखना चाहते।’

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