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उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘सुमेर को तुमसे प्रेम तो होगा ही?’

मुन्नी के तेवर बदल गये–‘हाँ था, और थोड़ा नहीं, बहुत था, तो फिर उसमें मेरा क्या बस? जब मैं स्वस्थ हो गयी, तो एक दिन उसने मुझसे अपना प्रेम प्रकट किया। मैंने क्रोध को हँसी में लपेटकर कहा–क्या तुम इस रूप में मुझसे नेकी का बदला चाहते हो? अगर यही नीयत है, तो मुझे फिर ले जाकर गंगा में डुबा दो। अगर इस नीयत से तुमने मेरी प्राण-रक्षा की, तो तुमने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया। तुम जानते हो, मैं कौन हूँ? राजपूतानी हूँ। फिर कभी भूलकर भी मुझसे ऐसी बात न कहना, नहीं गंगा यहाँ से दूर नहीं हैं। सुमेर ऐसा लज्जित हुआ कि फिर बात तक नही की; पर मेरे शब्दों ने उसका दिल तोड़ दिया। एक दिन मेरी पसलियों में दर्द होने लगा। उसने समझा भूत का फेर है। ओझा को बुलाने गया। नदी चढ़ी हुई थी। डूब गया। मुझे उसकी मौत का जितना दुःख हुआ, उतना ही अपने सगे भाई के मरने का हुआ था। नीचों में भी ऐसे देवता होते हैं, इसका मुझे यहीं आकर पता लगा। वह कुछ दिन और जी जाता, तो इस घर के भाग जाग जाते। सारे गाँव का गुलाम था। कोई गाली दे, डाँटे, कभी जबाब न देता।’

अमर ने पूछा–‘तब से तुम्हें पति और बच्चे की ख़बर न मिली होगी?’

मुन्नी की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। रोते-रोते हिचकी बँध गयी। फिर सिसक-सिसकर कर बोली–‘स्वामी प्रातःकाल फिर धर्मशाले में गये। जब उन्हें मालूम हुआ कि मैं रात को वहाँ नहीं गयी, तो मुझे खोजने लगे। जिधर कोई मेरा पता बता देता, उधर ही चले जाते। एक महीने तक वह सारे इलाके में मारे-मारे फिरे। इसी निराशा और चिन्ता में वह कुछ सनक गये फिर हरिद्वार आये; अब की बालक उनके साथ न था। कोई पूछता–तुम्हारा लड़का क्या हुआ, तो हँसने लगते। जब मैं अच्छी हो गयी और चलने-फिरने लगी, तो एक दिन जी में आया, हरिद्वार जाकर देखू, मेरी चीजें कहाँ गयीं। तीन महीने से ज़्यादा हो गये थे। मिलने की आशा तो न थी; पर इसी बहाने स्वामी का कुछ पता लगाना चाहती थी। विचार था–एक चिट्ठी लिखकर छोड़ दूँ। उस धर्मशाले के सामने पहुँची, तो देखा, बहुत-से आदमी द्वार पर जमा हैं। मैं भी चली गयी। एक आदमी की लाश थी। लोग कह रहे थे, वही पागल है, वही जो अपनी बीबी को खोजता फिरता था। मैं पहचान गयी। वही मेरे स्वामी थे। यह सब बातें मुहल्ले से मालूम हुई। छाती पीटकर रह गयी। जिस सर्वनाश से डरती थी, वह हो ही गया। जानती कि यह होने वाला है, तो पति के साथ ही न चली जाती? ईश्वर ने मुझे दोहरी सज़ा दी; लेकिन आदमी बड़ा बेहया है। अब मरते भी न बना। किसके लिए मरती? खाती-पीती भी हूँ, हँसती-बोलती भी हूँ, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बस, यही मेरी राम-कहानी है।

तीसरा भाग

लाला समरकान्त की ज़िन्दगी के सारे मंसूबे धूल में मिल गये। उन्होंने कल्पना की थी कि जीवन-संध्या में अपना सर्वस्व बेटे को सौंपकर और बेटी का विवाह करके किसी एकान्त में बैठकर भगवत-भजन में विश्राम लेंगे, लेकिन मन की मन में ही रह गयी। यह तो मानी हुई बात थी कि वह अन्तिम साँस तक विश्राम लेने वाले प्राणी न थे। लड़के को बढ़ते देखकर उनका हौसला और बढ़ता, लेकिन कहने को हो गया। बीच में अमर कुछ ढर्रे पर आता हुआ जान पड़ता था, लेकिन जब उसकी बुद्धि ही भ्रष्ट हो गयी, तो अब उससे क्या आशा की जा सकती थी। अमर में और चाहें जितनी बुराइयाँ हो, उसके चरित्र के विषय में कोई सन्देह न था, पर कुसंगति में पड़कर उसने धर्म भी खोया, चरित्र भी खोया, और कुल-मर्यादा भी खोयी। लालाजी कुत्सित सम्बन्ध को बहुत बुरा न समझते थे। रईसों मे यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। वह रईस ही क्या, जो इस तरह का खेल न खेले लेकिन धर्म छोड़ने को तैयार हो जाना, ख़ुले खज़ाने समाज की मर्यादाओं को तोड़ डालना। यह तो पागलपन है, बल्कि गधापन।

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