उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
एक क्षण के बाद फिर वही कल्पना। स्वामी ने साफ़ कहा है, उनका दिल साफ़ है। बातें बनाने की उनकी आदत नहीं। तो वह कोई बात कहेंगे ही क्यों, जो मुझे लगे। गड़े मुरदे उखाड़ने की उनकी आदत नहीं। वह मुझसे कितना प्रेम करते थे। अब भी उनका हृदय वही है। मैं व्यर्थ को संकोच में पड़कर उनका और अपना जीवन चौपट कर रही हूँ! लेकिन...लेकिन मैं अब क्या वह हो सकती हूँ, जो पहले थी नहीं; अब मैं वह नहीं हो सकती।
पतिदेव अब मेरा पहिले से अधिक आदर करेंगे। मैं जानती हूँ। मैं घी का घड़ा भी लुढ़का दूंगी, तो कुछ न कहेंगे। वह उतना ही प्रेम भी करेंगे; लेकिन वह बात कहाँ, जो पहले थी। अब तो मेरी दशा उस रोगिणी की-सी होगी, जिसे कोई भोजन रुचिरकर नहीं होता।
तो फिर मैं जिंदा ही क्यों रहूँ? अब जीवन में कोई सुख नहीं, कोई अभिलाषा नहीं, तो वह व्यर्थ है। कुछ दिन और रो लिया, तो इससे क्या? कौन जानता है, क्या-क्या कलंक सहने पड़े; क्या-क्या दुर्दशा हो? मर जाना कहीं अच्छा।
यह निश्चय करके मैं उठी। सामने ही पतिदेव सो रहे थे। बालक भी पड़ा सोता था। ओह! कितना प्रबल बन्धन था। जैसे सूम का धन हो वह उसे खाता नहीं, देता नहीं, इसके सिवा उसे और क्या संतोष है कि उसके पास धन है। इस बात से ही उसके मन में कितना बल आ जाता है। मैं उसी मोह को तोड़ने जा रही थी।
मैं डरते-डरते, जैसे प्राणों को आँखों में लिए, पतिदेव के समीप गयी; पर वहां एक भी क्षण खड़ी न रह सकी। जैसे लोहा खिंचकर चुम्बक से जा चिमटता है, उसी तरह मैं उनके मुख की ओर खिंची जा रही थी। मैंने अपने मन का सारा बल लगाकर उनका मोह तोड़ दिया और उसी आवेश मैं दौड़ी हुई गंगा के तट पर आयी। मोह अब भी मन से चिपटा हुआ था। मैं गंगा में कूद पड़ी।
अमर ने कातर होकर कहा–‘अब नहीं सुना जाता मुन्नी। फिर कभी कहना।’
मुन्नी मुस्कराकर बोली–‘वाह, अब रह ही क्या गया। मैं कितनी देर पानी में रही, कह नहीं सकती, जब होश आया तो इसी घर में पड़ी हुई थी। मैं बहती चली जाती थी। प्रातःकाल चौधरी का बड़ा लड़का सुमेर गंगा नहाने गया और मुझे उठा लिया। तब से मैं यहीं हूँ। अछूतों की इस झोंपड़ी में मुझे जो सुख और शान्ति मिली उसका बखान क्या करूँ। काशी और पयाग मुझे भाभी कहते हैं, पर सुमेर बहन कहता था। मैं अभी अच्छी तरह उठने-बैठने भी न पायी थी कि वह परलोक सिधार गया।’
अमर के मन में एक काँटा बराबर खटकता रहा था। वह कुछ तो निकला; पर अभी कुछ बाक़ी था।
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