उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मैंने देखा स्वामी ने बच्चे को उठा लिया, जिसे एक क्षण पहले गोद से उतार दिया था और उलटे पाँव लौट पड़े। उनकी आँखों से आँसू जारी थे, ओठ काँप रहे थे।
देवीजी ने भलमनसी से काम लेकर स्वामी को बैठाना चाहा, पूछने लगीं–क्या बात है, क्यों रूठी हुई हैं; पर स्वामी ने कोई जवाब न दिया। बाबू साहब फाटक तक उन्हें पहुँचाने गये। कह नहीं सकती।
दोनों जनों में क्या बातें हुईं; पर अनुमान अब भी काँप रहा था कि कहीं स्वामी सचमुच आत्मघात न कर लें। देवियों और देवताओं की मनौतियाँ कर रही थी कि मेरे प्यारों की रक्षा करना।
ज्योंही बाबूजी लौटे, मैंने धीरे से किवाड़ खोलकर पूछा– ‘किधर गये? कुछ और कहते थे?’
बाबूजी ने तिरस्कार–भरी आँखों से देखकर कहा– ‘कहते क्या, मुँह से आवाज़ भी तो निकले। हिचकी बँधी हुई थी। अब भी कुशल है, जाकर रोक लो। वह गंगाजी की ओर ही गये हैं। तुम इतनी दयावान होकर भी इतनी कठोर हो, यह आज ही मालूम हुआ। ग़रीब बच्चों की तरह फूट-फूटकर रो रहा था।’
मैं संकट की उस दशा में पहुँच चुकी थी, जब आदमी परायों को अपना समझने लगता है। डाँटकर बोली– ‘तब भी तुम दौड़े यहाँ चले आये। उनके साथ कुछ देर रह जाते, तो छोटे न हो जाते, और न यहाँ देवीजी को कोई उठा ले जाता। इस समय वह आपे में नहीं हैं, फिर भी तुम उन्हें छोड़कर भागे चले आये।
देवीजी बोलीं–‘यहाँ न दौड़े आते, तो क्या जाने मैं कहीं निकल भागती। लो, आकर घर मैं बैठो। मैं जाती हूँ। पकड़कर घसीट न लाऊँ, तो अपने बाप की नहीं! ’
धर्मशाले में बीसों ही यात्री टिके हुए थे। सब अपने-अपने द्वार पर खड़े यह तमाशा देख रहे थे। देवीजी ज्योंहि निकलीं, चार-पाँच आदमी उनके साथ हो लिए। आध घण्टे में सभी लौट आये। मालूम हुआ कि वह स्टेशन की तरफ़ चले गये।
पर मैं जब तक उन्हें गाड़ी पर सवार होते न देख लूँ चैन कहाँ? गाड़ी प्रातः काल जायेगी। रात भर वह स्टेशन पर रहेंगे। ज्योंहि अँधेरा हो गया, मैं स्टेशन जा पहुँची। वह एक वृक्ष के नीचे कम्बल बिछाए बैठे हुए थे। मेरा बच्चा लोटे को गाड़ी बनाकर डोर से खींच रहा था। बार-बार गिरता था और फिर उठकर खींचने लगता था। मैं एक वृक्ष की आड़ में बैठकर यह तमाशा देखने लगी। तरह-तरह की बातें मन में आने लगीं। बिरादरी का ही तो डर है। मैं अपने पति के साथ किसी दूसरी जगह रहने लगूँ, तो बिरादरी क्या कर लेगी; लेकिन क्या अब मैं वह हो सकती हूँ, जो पहले थी।
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