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उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


स्वामी ने बाबूजी को कोई ज़वाब न दिया, मेरे द्वार पर आकर बोले–‘मुन्नी, यह क्या अन्धेर करती हो? मैं तीन दिन से तुम्हें खोज रहा हूँ। आज मिली भी, तो भीतर जा बैठी! ईश्वर के लिए किवाड़ खोल दो और मेरी दुःख कथा सुन लो, फिर तुम्हारी जो इच्छा हो करना।’

मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे। जी चाहता था, किवाड़ खोलकर बच्चे को गोद में ले लूँ।

पर न जाने मन के किसी कोने में कोई बैठा हुआ कह रहा था–‘ख़बरदार, जो बच्चे को गोद में लिया! जैसे कोई प्यास से तड़पता हुआ आदमी पानी का बरतन देखकर टूटे; पर कोई उससे कह दे, पानी जूठा है। एक मन कहता था, स्वामी का अनादर मत कर, ईश्वर ने जो पत्नी और माता का नाता जोड़ दिया है, वह क्या किसी के तोड़े टूट सकता है; दूसरा मन कहता था, तू अब अपने पति को पति और पुत्र को पुत्र नहीं कह सकती। क्षणिक मोह के आवेश में पड़कर तू क्या उन दोनों को कलंकित कर देगी!’

मैं किवाड़ छोड़कर खड़ी हो गयी!

बच्चे ने किवाड़ को अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से पीछे ढकेलने के लिए ज़ोर लगाकर कहा–‘तेवाल थोलो!’

यह तोतले बोल कितने मीठे थे। जैसे सन्नाटे में किसी शंका से भयभीत होकर हम गाने लगते हैं, अपने ही शब्दों से दुकेले होने की कल्पना कर लेते हैं। मैं भी इस समय अपने उमड़ते हुए प्यार को रोकने के लिए बोल उठी–‘तुम क्यों मेरे पीछे पड़े हो? क्यों नहीं समझ लेते कि मैं मर गयी तुम ठाकुर होकर भी इतने दिल के कच्चे हो। एक तुच्छ नारी के लिए अपना कुल-मरजाद डुबोए देते हो। जाकर अपना ब्याह कर लो और बच्चे को पालो। इस जीवन में मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है। हाँ, भगवान से यही मनाती हूँ कि दूसरे जन्म में तुम फिर मुझे मिलो। क्यों मेरी टेक तोड़ रहे है, मेरे मन को क्यों मोह में डाल रहे हो? पतिता के साथ तुम सुख से न रहोगे। मुझ पर दया करो, आज ही चले जाओ, नहीं मैं सच कहती हूँ, ज़हर खा लूँगी।’

स्वामी ने करुण आग्रह से कहा–‘मैं तुम्हारे लिए अपनी कुल-मर्यादा, भाई-बन्द सब कुछ छोड़ दूँगा। मुझे किसी की परवाह नहीं। घर में आग लग जाय, मुझे चिन्ता नहीं। मैं या तो तुम्हें लेकर जाऊँगा, या यहीं गंगा में डूब मरूँगा। अगर मेरे मन में तुमसे रत्तीभर मैल हो, तो भगवान् मुझे सौ बार नरक दें। अगर तुम्हें नहीं चलना है, तो तुम्हारा बालक तुम्हें सौंपकर मैं जाता हूँ। इसे मारो या जिलाओ, मैं फिर तुम्हारे पास न आऊँगा। अगर कभी सुधि आये, तो चुल्लू भर पानी दे देना।’

लाला सोचो, मैं कितने संकट में पड़ी हुई थीं। स्वामी बात के धनी हैं, यह मैं जानती थी। प्राण को वह कितना तुच्छ समझते हैं, यह मुझ से छिपा न था। फिर भी मैं अपना हृदय कठोर किये रही। ज़रा भी नर्म पड़ी और सर्वनाश हुआ। मैंने पत्थर का कलेजा बनाकर कहा–‘अगर तुम बालक को मेरे पास छोड़कर गये, तो उसकी हत्या तुम्हारे ऊपर होगी, क्योंकि मैं उसकी दुर्गति देखने के लिए जीना नहीं चाहती। उसके पालने का भार तुम्हारे ऊपर है, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मेरे लिए जीवन में अगर कोई सुख था तो यही कि मेरा पुत्र और स्वामी कुशल से हैं। तुम मुझसे यह सुख छीन लेना चाहते हो, छीन लो; मगर याद रखो वह मेरे जीवन का आधार है।’

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