लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


धीरे-धीरे मुझ पर रहस्य खुलने लगा। मन में ऐसी ज्वाला उठी कि अभी इसका मुँह नोच लूँ। मैं तुमसे कोई परदा नहीं रखती लाला, मैंने बाबूजी की ओर कभी आँख उठाकर देखा भी न था; पर यह चुड़ैल मुझे कलंक लगा रही थी। बाबूजी का लिहाज़ न होता, तो मैं उस चुड़ैल का मिज़ाज ठीक कर देती, जहाँ सुई न चुभे, वहाँ फाल चुभाये देती।

आख़िर बाबूजी को भी क्रोध आया!

‘तुम बिलकुल झूठ बोलती हो। सरासर झूठ।’

‘मैं सरासर झूठ बोलती हूँ?’

‘हाँ, सरासर झूठ बोलती हो।’

‘खा जाओ अपने बेटे की क़सम।’

मुझे चुपचाप वहाँ से टल जाना चाहिए था; लेकिन अपने इस मन को क्या करूँ, जिससे अन्याय नहीं देखा जाता। मेरा चेहरा मारे क्रोध के तमतमा उठा। मैंने उसके सामने जाकर कहा–‘बहूजी, बस अब ज़बान बन्द करो, नहीं तो अच्छा न होगा। मैं तरह देती जाती हूँ और तुम सिर चढ़ती जाती हो। मैं तुम्हें शरीफ़ समझकर तुम्हारे साथ ठहर गयी थी। अगर जानती कि तुम्हारा स्वभाव इतना नीच है, तो तुम्हारी परछाई से भागती। मैं हरजाई नहीं हूँ, न अनाथ हूँ, भगवान् की दया से मेरे भी पति हैं, पुत्र हैं। किस्मत का खेल है कि यहाँ अकेली पड़ी हूँ। मैं तुम्हारे पति को अपने पति के पैर धोने के जोग भी नहीं समझती। मैं उसे बुलाये देती हूँ, तुम भी देख लो, बस आज और कल रह जाओ।’

अभी मेरे मँह से पूरी बात भी न निकलने पायी थी कि मेरे स्वामी मेरे लाल को गोद में लिए आकर आँगन में खड़े हो गये और मुझे देखते ही लपककर मेरी तरफ़ चले। मैं उन्हें देखते ही ऐसी घबड़ा गयी, मानो कोई सिंह आ गया हो, तुरन्त अपनी कोठरी में जाकर भीतर से द्वार बन्द कर लिए। छाती धड़-धड़ कर रही थी; पर केवाड़ की दरार में आँख लगाये देख रही थी। स्वामी का चेहरा सँवलाया हुआ था, बालों पर धूल जमी हुई थी, पीठ पर कम्बल और लुटिया-डोर रखे हाथ में लम्बा लट्ठ लिए भौ़चक्के–से खड़े थे।

बाबूजी ने बाहर आकर स्वामी से पूछा–‘अच्छा, आप ही इनके पति हैं। आप खूब आये अभी तो वह आप ही की चर्चा कर रही थी। आइए, कपड़े उतारिए। मगर बहन, भीतर क्यों भाग गयीं? यहाँ परदेश में कौन परदा?’

मेरे स्वामी को तो तुमने देखा ही है। उनके सामने बाबूजी बिलकुल ऐसे लगते थे, जैसे साँड़ के सामने नाटा बैल।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book