उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
पन्द्रह दिन बीत गये थे। देवीजी ने घर लौटने के लिए कहा। बाबूजी अभी वहाँ कुछ दिन और रहना चाहते थे। इसी बात पर तकरार हो गयी। मैं बरामदे में बालक को लिये खड़ी थी। देवी जी ने गरम होकर कहा–‘तुम्हें रहना हो तो रहो, मैं तो आज जाऊँगी। तुम्हारी आँखों रास्ता नहीं देखा है।’
पति ने डरते-डरते कहा–‘यहाँ दस-पाँच दिन रहने में हरज ही क्या है? मुझे तो तुम्हारे स्वास्थ्य में अभी कोई तब्दीली नहीं दिखती।’
‘आप मेरे स्वास्थ्य की चिंता छोड़िए। मैं इतनी जल्दी नहीं मरी जा रही हूँ। सच कहते हो, तुम मेरे स्वास्थ्य के लिए यहाँ ठहरना चाहते हो?’
‘और किसलिए आया था?’
‘आये चाहे जिस काम के लिए हो; पर तुम मेरे स्वास्थ्य के लिए नहीं ठहर रहे हो। यह पट्टियाँ उन स्त्रियों को पढ़ाओ, जो तुम्हारे हथकण्डे न जानती हों। मैं तुम्हारी नस-नस पहचानती हूँ। तुम ठहरना चाहते हो तो विहार के लिए, क्रीड़ा के लिए...
बाबूजी ने हाथ जोड़कर कहा–‘अच्छा, अब रहने दो बिन्नी, कलंकित न करो। मैं आज ही चला जाऊँगा।’
देवीजी, इतनी सस्ती विजय पाकर प्रसन्न हुईं। अभी उनके मन का गुबार तो निकलने ही न पाया था। बोलीं–‘हाँ, चले क्यों नहीं चलोगे, यही तो तुम चाहते थे। यहाँ पैसे ख़र्च होते हैं न! ले जाकर उस काल-कोठरी में डाल दो। कोई मरे या जिए, तुम्हारी बला से। एक मर जायेगी, तो दूसरी फिर आ जायेगी, बल्कि और नयी-नवेली। तुम्हारी चाँदी ही चाँदी है। सोचा था, यहाँ कुछ दिन रहूँगी; पर तुम्हारे मारे कहीं रहने पाऊँ। भगवान् भी नहीं उठा लेते कि गला छूट जाय।’
अमर ने पूछा–‘उन बाबूजी ने सचमुच कोई शरारत की थी या मिथ्या आरोप था?’
मुन्नी ने मुँह फेरकर मुस्कराते हुए कहा–लाला, तुम्हारी समझ बड़ी मोटी है। वह डायन मुझ पर आरोप कर रही थी। बेचारे बाबूजी दबे जाते थे कि कहीं चुड़ैल बात खोलकर न कह दे, हाथ जोड़ते थे, मिन्नतें करते थे, पर वह किसी तरह रास न होती थी।
आँखें मटकाकर बोली–‘भगवान ने मुझे भी आँखें दी हैं, अन्धी नहीं हूँ। मैं तो कमरे में पड़ी-पड़ी कराहूँ और तुम बाहर गुलछर्रे उड़ाओ! दिल बहलाने की कोई शगल चाहिए।’
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