उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मैंने समीप आकर बालक को स्नेह-भरी आँखों से देखा और डरते-डरते उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाया। सहसा बालक चिल्लाकर माँ की तरफ़ भागा, मानो उसने कोई भयानक रूपदेख लिया हो। अब सोचती हूँ, तो समझ में आता है बालकों का यही स्वभाव है; पर उस समय मुझे ऐसा मालूम हुआ कि सचमुच मेरा रूप पिशाचिनी का-सा होगा। मैं लज्जित हो गयी।
माता ने बालक से कहा–‘अब जाता क्यों नहीं रहे, बुला तो रही हैं। कहाँ जाओगी बहन? मैंने हरिद्वार बता दिया। वह स्त्री-पुरुष भी हरिद्वार ही जा रहे थे। गाड़ी छूट जाने के कारण ठहर गये थे। घर दूर था। लौटकर न जा सकते थे। मैं बड़ी खुश हुई कि हरिद्वार तक साथ तो रहेगा; लेकिन फिर वह बालक मेरी ओर न आया।’
थोड़ी देर में स्त्री-पुरुष तो सो गये; पर मैं बैठी ही रही। माँ से चिमटा हुआ बालक भी सो रहा था। मेरे मन बड़ी प्रबल इच्छा हुई कि बालक को उठाकर प्यार करूँ; पर दिल काँप रहा था कि कहीं बालक रोने लगे या माता जग जाये, तो दिल में क्या समझे। मैं बालक का फूल-सा मुखड़ा देख रही थी। वह शायद कोई स्वप्न देखकर मुस्करा रहा था। मेरा दिल काबू से बाहर हो गया। मैंने सोते हुए बालक को छाती से लगा लिया। पर दूसरे ही क्षण मैं सचेत हो गयी और बालक को लिटा दिया। उस क्षणिक प्यार में कितना आनन्द था! जान पड़ता था, मेरा ही बालक यह रूप धरकर मेरे पास आ गया है।
देवीजी का हृदय बड़ा कठोर था। बात-बात पर उस नन्हें-से बालक को झिड़क देतीं, कभी-कभी मार बैठती थीं। मुझे उस वक़्त ऐसा क्रोध आता था कि उसे खूब डाटूं। अपने बालक पर माता इतना क्रोध कर सकती है, यह मैंने आज ही देखा।
जब दूसरे दिन हम लोग हरिद्वार की गाड़ी में बैठे, तो बालक मेरा हो चुका था। मैं तुमसे क्या कहूँ बाबूजी, मेरे स्तनों में दूध भी उतर आया और माता को मैंने इस भार से भी मुक्त कर दिया।
हरिद्वार में हम लोग एक धर्मशाले में ठहरे। मैं बालक के मोह-फाँस में बँधी हुई उस दम्पत्ति के पीछे-पीछे फिरा करती। मैं अब उसकी लौंडी थी। बच्चे का मल-मूत्र धोना मेरा काम था, उसे दूध पिलाती, खिलाती। माता का जैसे गला छूट गया; लेकिन मैं इस सेवा में मग्न थी। देवीजी जितनी आलसिन और घमंडिन थी, लालाजी उतने ही शीलवान और दयालु थे। वह मेरी तरफ़ आँख उठाकर भी न देखते। अगर मैं कमरे में अकेली होती, तो कभी अन्दर न जाते। कुछ-कुछ तुम्हारे ही जैसा स्वभाव था। मुझे उन पर दया आती थी। उस कर्कशा के साथ उनका जीवन इस तरह कट रहा था। मानो बिल्ली के पंजे में चूहा हो। वह उन्हें बात-बात पर झिड़कती। बेचारे खिसियाकर रह जाते।
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