उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
समरकान्त का व्यावहारिक जीवन उनके धार्मिक जीवन से बिलकुल अलग था। व्यवहार और व्यापार में वह धोखाधड़ी, छल–प्रपंच, सब कुछ क्षम्य समझते थे। व्यापार-नीति में सन या कपास में कचरा भर देना, घी में आलू या घुइँया मिला देना, औचित्य से बाहर न था, बिना स्नान किये वह मुँह में पानी न डालते थे। चालीस वर्षों में ऐसा ही कोई दिन हुआ हो कि उन्होंने संध्या समय की आरती न ली हो और तुलसी–जल माथे पर न चढ़ाया हो। एकादशी को बराबर निर्जल व्रत रखते थे। सारांश यह कि उसका धर्म आडम्बर मात्र था, जिसका उनके जीवन में कोई प्रयोजन न था।
सलीम के घर से लौटकर काम जो लालाजी ने किया, वह सुखदा को फटकारना था। इसके बाद नैना की बारी आयी। दोनों को रुलाकर वह अपने कमरे में गये और ख़ुद रोने लगे।
रातों रात यह ख़बर सारे शहर में फैल गयी। तरह-तरह की मिस्कौट होने लगी। समरकान्त दिनभर घर से नहीं निकले। यहाँ तक कि आज गंगा-स्नान करने भी न गये। कई असामी रुपये लेकर आये। मुनीम तिजोरी की कुँजी माँगने लगा। लालाजी ने ऐसा डाँटा कि वह चुपके से बाहर निकल गया। असामी रुपये लेकर लौट गये।
ख़िदमतगार ने चाँदी का गड़गड़ा लाकर सामने रख दिया। तम्बाकू जला गया। लालाजी ने निगाली भी मुँह में न ली।
दस बजे सुखदा ने आकर कहा–‘आप क्या भोजन कीजिएगा?’
लालाजी ने उसे कठोर आँखों से देखकर कहा–‘मुझे भूख नहीं है।’
सुखदा चली गयी। दिनभर किसी ने कुछ न खाया।
नौ बजे रात को नैना ने आकर कहा–‘दादा, आरती में न जाइएगा?’
लालाजी चौंके–‘हाँ-हाँ, जाऊँगा क्यों नहीं। तुम लोगों ने कुछ खाया कि नहीं?’
नैना बोली–‘किसी की इच्छा ही न थी। कौन खाता?’
‘तो क्या उसके पीछे सारा घर प्राण देगा?’
सुखदा इसी समय तैयार होकर आ गयीं–‘जब आप ही प्राण दे रहें है, तो दूसरों पर बिगड़ने का आपको क्या अधिकार है?’
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