उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
६
सलोनी काकी ने अपने घर की जगह पाठशाले के लिए दे दी है। लड़के बहुत आने लगे हैं। उस छोटी-सी कोठरी में जगह नहीं है। सलोनी से किसी ने जगह माँगी नहीं, कोई दबाव भी नहीं डाला गया। बस, एक दिन अमर और चौधरी बैठे बातें कर रहे थे कि नयी शाला कहाँ बनायी जाय, गाँव में तो बैलों के बाँधने की जगह नहीं। सलोनी उनकी बातें सुनती रही। फिर एकाएक बोल उठी–‘मेरा घर क्यों नहीं ले लेते? बीस हाथ पीछे खाली जगह पड़ी है। क्या इतनी ज़मीन में तुम्हारा काम न चलेगा?’
दोनों आदमी चकित होकर सलोनी का मुँह ताकने लगे।
अमर ने पूछा–‘और तू रहेगी कहाँ काकी?’
सलोनी ने कहा–‘ऊँह! मुझे घर-द्वार लेकर क्या करना है बेटा? तुम्हारी ही कोठरी में आकर एक कोने में पड़ रहूँगी।’
गूदड़ ने मन में हिसाब लगाकर कहा– ‘जगह तो बहुत निकल आयेगी।’
अमर ने सिर हिलाकर कहा–‘मैं काकी का घर नहीं लेना चाहता। महन्तजी से मिलकर गाँव के बाहर पाठशाला बनवाऊँगा।’
काकी ने दुःखित होकर कहा–‘क्या मेरी जगह में कोई छूत लगी है भैया?’
गूदड़ ने फ़ैसला कर दिया। काकी का घर मदरसे के लिए ले लिया जाय। उसी में एक कोठरी अमर के लिए बना दी जाय। काकी अमर की झोपड़ी में रहेगी। एक किनारे गाय-बैल बाँध लेगी। एक किनारे पड़ रहेगी।
आज सलोनी जितनी खुश है, उतनी शायद और कभी न हुई हो। वही बुढ़िया, जिसके द्वार पर कोई बैल बाँध देता, तो लड़ने को तैयार हो जाती, जो बच्चों को अपने द्वार पर गोलियाँ न खेलने देती, आज अपने पुरखों का घर देकर अपना जीवन सफल समझ रही है। यह कुछ असंगत-सी बात है; पर दान कृपण ही दे सकता है। हाँ, दान का हेतु ऐसा होना चाहिए जो उसकी नज़र में उसके मर-मर संचे हुए धन के योग्य हो।
चटपट काम शुरू हो जाता है। घरों से लड़कियाँ निकल आयीं, रस्सी निकल आयी, मजूर निकल आये, पैसे निकल आये। न किसी से कहना पड़ा, न सुनना। वह उनकी अपनी शाला थी। उन्हीं के लड़के-लड़कियाँ तो पढ़ती थीं। और इन छह-सात महीने में ही उन पर शिक्षा का कुछ असर भी दिखाई देने लगा था। वह अब साफ़ करते हैं, झूठ कम बोलते हैं, झूठे बहाने कम करते हैं, गालियाँ कम बकते हैं, और घर से कोई चीज़ चुराकर नहीं ले जाते। न उतनी ज़िद ही करते हैं। घर का जो कुछ काम होता है, शौक से करते हैं। ऐसी शाला की कौन मदद न करेगा?
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