उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
फागुन की शीतल प्रभात सुनहरे वस्त्र पहने पहाड़ पर खेल रहा था। अमर कई लड़कों के साथ गंगा-स्नान करके लौटा; पर आज अभी तक कोई आदमी काम करने नहीं आया। यह बात क्या है? और दिन तो उसके स्नान करके लौटने के पहले ही कारीगर आ जाते थे। आज इतनी देर हो गयी और किसी का पता नहीं।
सहसा मुन्नी सिर पर कलसा रखे आकर खड़ी हो गयी। वही शीतल, सुनहरा प्रभात उसके गेहुएँ मुखड़े पर मचल रहा था।
अमर ने मुस्कराकर कहा–‘यह देखो, सूरज देवता तुम्हें घूर रहे हैं।’
मुन्नी ने कलसा उतारकर हाथ में ले लिया और बोली–‘और तुम बैठे देख रहे हो?’
फिर एक क्षण के बाद उसने कहा–‘तुम तो जैसे आजकल गाँव में रहते ही नहीं हो मदरसा क्या बनने लगा, तुम्हारे दर्शन दुर्लभ हो गये। मैं डरती हूँ, कहीं तुम सनक न जाओ।’
‘मैं तो दिनभर यहीं रहता हूँ, तुम अलबत्ता जाने कहाँ रहती हो? आज यह सब आदमी कहाँ चले गये? एक भी नहीं आया।’
‘गाँव में है ही कौन?’
‘कहाँ चले गये सब?’
‘वाह! तुम्हें ख़बर ही नहीं? पहर रात सिरोमनपुर ठाकुर की गाय मर गयी, सब लोग वहीं गये हैं। आज घर-घर सिकार बनेगा।’
अमर ने घृणासूचक भाव से कहा–‘मरी गाय?’
‘हमारे यहाँ भी तो खाते हैं, यह लोग।’
‘क्या जाने? मैंने कभी नहीं देखा। तुम तो...’
मुन्नी ने घृणा से मुँह बनाकर कहा–‘मैं तो उधर ताकती भी नहीं।’
‘समझाती नहीं इन लोगों को?’
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