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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘अच्छा, मेरे कहने से चलो।’

‘जैसे बच्चे मछलियों को खेलाते हैं, उसी तरह तुम मुझे खेला रहे हो लाला। जब चाहा रुला दिया, जब चाहा हँसा दिया।’

‘मेरी भूल थी मुन्नी। क्षमा करो।’

‘लाला, अब तो मुन्नी तभी नाचेगी, जब तुम उसका हाथ पकड़कर कहोगे–चलो हम-तुम नाचें। वह अब और किसी के साथ न नाचेगी।’

‘तो अब नाचना सीखूँ?’

मुन्नी ने अपनी विजय का अनुभव किया–‘मेरे साथ नाचना चाहोगे, तो आप सीखोगे।’

‘तुम सिखा दोगी?’

‘तुम मुझे रोना सिखा रहे हो, मैं तुम्हें नाचना सिखा दूँगी।’

‘अच्छा चलो।’

कॉलेज के सम्मेलनों में अमर कई बार ड्रामा खेल चुका था। स्टेज पर नाचा भी था, गाया भी था; पर उस नाच और इस नाच में बड़ा अन्तर था। वह विलासियों की काम-क्रीड़ा थी, यह श्रमिकों की स्वच्छन्द केलि। उसका दिल सहम जाता था।

उसने कहा—‘मुन्नी, तुमसे एक वरदान माँगता हूँ।’

मुन्नी ने ठिठककर कहा–‘तो तुम नाचोगे नहीं?’

‘यही तो तुमसे वरदान माँग रहा हूँ।’

अमर ठहरो-ठहरो कहता रहा, पर मुन्नी लौट पड़ी।

अमर भी अपनी कोठरी में चला आया और कपड़े पहनकर पंचायत में चला गया। उसका सम्मान बढ़ रहा है। आसपास के गाँवों में भी जब कोई पंचायत होती है, तो उसे अवश्य बुलाया जाता है।

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