उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमर ने उदासीन भाव से कहा–‘मुझे एक पंचायत में जाना है। लोग बैठे मेरी राह देख रहे होंगे। तुमने क्यों नाचना बन्द कर दिया?’
मुन्नी ने भोलेपन से कहा–‘तुम चले आये, तो नाचकर क्या करती?’
अमर ने उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा–‘सच्चे मन से कह रही हो मुन्नी?’
मुन्नी उससे आँखें मिलाकर बोली– ‘मैं तो तुमसे कभी झूठ नहीं बोली।’
‘मेरी एक बात मानो। अब फिर कभी मत नाचना।’
मुन्नी उदास होकर बोली–‘तो तुम इतनी ज़रा-सी बात पर रूठ गये ज़रा किसी से पूछो, मैं आज कितने दिनों बाद नाची हूँ। दो साल से मैं नगाड़े के पास नहीं गयी। लोग कह-कहकर हार गये। आज तुम्हीं मुझे ले गये, और अब उल्टे तुम्हीं नाराज़ होते हो।’
मुन्नी घर में चली गयी। थोड़ी देर बाद काशी ने आकर कहा–‘भाभी, तुम यहाँ क्या कर रही हो? वहाँ सब लोग तुम्हें बुला रहे हैं।’
मुन्नी ने सिरदर्द का बहाना किया।
काशी आकर अमर से बोला–‘तुम क्यों चले आये भैया? क्या गँवारों का नाच-गाना अच्छा न लगा।’
अमर ने कहा–‘नहीं जी, यह बात नहीं। एक पंचायत में जाना है। देर हो रही है।’
काशी बोला–‘भाभी नहीं जा रही है। इसका नाच देखने के बाद अब दूसरों का रंग नहीं जम रहा है। तुम चलकर कह दो, तो साइत चली जाय। कौन रोज-रोज यह दिन आता है। बिरादरी वाली बात है। लोग कहेंगे, हमारे यहाँ काम आ पड़ा, तो मुँह छिपाने लगे।’
अमर ने धर्म संकट में पड़कर कहा–‘तुमने समझाया नहीं?’
फिर अन्दर जाकर कहा–‘मुझसे नाराज़ हो गयी मुन्नी?’
मुन्नी आँगन में आकर बोली–‘तुम मुझसे नाराज़ हो गये कि मैं तुमसे नाराज हो गयी?’
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