उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
पयाग ने कहा–‘चलो भैया, तुम भी कुछ करतब दिखाओ। सुना है, तुम्हारे देस में लोग खूब नाचते हैं।’
अमर ने जैसे क्षमा-सी माँगी–‘भाई, मुझे तो नाचना नहीं आता।’
उसकी इच्छा हो रही है कि नाचना आता, तो इस समय सबको चकित कर देता। युवकों और युवतियों के जोड़े बँधे हुए हैं। हरेक जोड़ा दस-पन्द्रह मिनट तक थिरककर चला जाता है नाचने में कितना उन्माद, कितना आनन्द है, अमर ने न समझा था।
एक युवती घूँघट बढ़ाये हुए रंगभूमि में आती है। इधर से पयाग निकलता है। दोनों नाचने लगते हैं। युवती के अंगों में इतनी लचक है, उसके अंगविलास में भावों की ऐसी व्यंजना है कि लोग मुग्ध हुए जाते हैं।
इस जोड़े के बाद दूसरा जोड़ आता है। युवक गठीला जवान है, चौड़ी छाती, उस पर सोने की मुहर, कठनी काछे हुए। युवती को देखकर अमर चौंक उठा। उसने घेरदार लहँगा पहना है, गुलाबी ओढ़नी ओढ़ी है, और पाँव में पैंजनियाँ बाँध ली हैं। गुलाबी घूँघट में दोनों कपोल दो फूलों की भाँति खिले हुए हैं। दोनों कभी हाथ में हाथ मिलाकर, कभी कमर में हाथ रखकर, कभी कूल्हों को ताल से मटकाकर नाचने में उन्मत्त हो रहे हैं। सभी मुग्ध नेत्रों से इन कलाविदों की कला देख रहे हैं क्या फुरती है, क्या लचक है! और उनकी एक -एक लटक में, एक-एक गति में कितनी मार्मिकता, कितनी मादकता! दोनों हाथ में हाथ मिलाये, थिरकते हुए रंगभूमि के उस सिरे तक चले जाते हैं और क्या मजाल कि एक गति भी बेताल हो।
पयाग ने कहा– ‘देखते हो भैया, भाभी कैसा नाच रही है। अपना जोड़ नहीं रखती।’
अमर ने विरक्त मन से कहा–‘हाँ, देख तो रहा हूँ।’
‘मन हो, तो उठो, मैं उस लौंडे को बुला लूँ।’
‘नहीं, मुझे नहीं नाचना है।’
मुन्नी नाच रही थी कि अमर उठकर घर चला आया। यह बेशर्मी अब उससे नहीं सही जाती।
एक ही क्षण के बाद मुन्नी ने आकर कहा–‘तुम चले क्यों आये लाला? क्या मेरा नाचना अच्छा न लगा?’
अमर ने मुँह फेरकर कहा–‘क्या मैं आदमी नहीं हूँ कि अच्छी चीज़ को बुरा समझूँ?’
मुन्नी और समीप आकर बोली–‘तो फिर चले क्यों आये?’
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