उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘सकीना का हाल भी कुछ सुनना चाहते हो? मामा को बीसों ही बार कपड़े भेजे रुपये भेजे; पर कोई चीज़ न ली। मामा से कहती है, दिनभर में एकाध चपाती खा ली, तो खा ली, नहीं चुपचाप पड़ी रहती है। दादी से बोलचाल बन्द है। कल तुम्हारा खत पाते ही उसके पास भेज दिया था। उसका जवाब जो आया, उसकी हू-ब-हू नक़ल यह है। असली खत उस वक़्त देखने को पाओगे, जब यहाँ आओगे–
‘बाबूजी, आपको मुझ बदनसीब के कारण यह सज़ा मिली, इसका मुझे बड़ा रंज है। और क्या कहूँ। जीती हूँ और आपको याद करती हूँ। इतना अरमान है कि मरने के पहले एक बार आपको देख लेती; लेकिन इसमें भी आपकी बदनामी ही है, और मैं तो बदनाम हो ही चुकी। कल आपका ख़त मिला, तबसे कितनी बार सौदा उठ चुका है कि आपके पास चली जाऊँ। क्या आप नाराज होंगे? मुझे तो यह खौफ़ नहीं है। मगर दिल को समझाऊँगी और शायद कभी मरूँगी भी नहीं। कुछ देर तो गुस्से के मारे तुम्हारा ख़त न खोला। पर कब तक? ख़त खोला, पढ़ा, रोयी, फिर पढ़ा,फिर रोयी। रोने में इतना मज़ा है कि जी नहीं भरता। अब इन्तज़ार की तकलीफ़ नहीं झेली जाती। ख़ुदा आपको सलमात रखे।’
‘देखा यह खत कितना दर्दनाक है। मेरी आँखों में बहुत कम आँसू आते हैं; लेकिन यह ख़त देखकर जब्त न कर सका। कितने खुशनशीब हो तुम!’
अमर ने सिर उठाया तो उसकी आँखों में नशा था। वह नशा जिसमें आलस्य नहीं, स्फूर्ति है; लालिमा नहीं, दीप्ति है; उन्माद नहीं, विस्मृति नहीं, जाग्रति है। उसके मनोजगत में ऐसा भूकम्प कभी न आया था। उसकी आत्मा कभी इतनी उदार; इतनी विशाल, इतनी प्रफुल्ल न थी। आँखों के सामने दो मूर्तियाँ खड़ी हो गयीं, एक विलास में डूबी हुई, रत्नों से अलंकृत, गर्व में चूर; दूसरी सरल माधुर्य से भूषित, लज्जा और विनय से सिर झुकाये हुए। उसका प्यासा हृदय उस ख़ुशबूदार मीठे शरबत से हटकर इस शीतल जल की ओर लपका। उसने पत्र के उस अंश को फिर पढ़ा, फिर आवेश में जाकर गंगा-तट पर टहलने लगा। सकीना से कैसे मिले? यह ग्रामीण जीवन उसे पसन्द आयेगा? कितनी सुकुमार है, कितनी कोमल! वह और यह कठोर जीवन? कैसे आकर उसकी दिलजोई करे। उसकी वह सूरत याद आयी, जब उसने कहा था– ‘बाबूजी, मैं भी चलती हूँ।’ ओह! कितना अनुराग था। किसी मजूर को गढ़ा खोदते-खोदते जैसे कोई रत्न मिल जाय और वह अपने अज्ञान में उसे काँच का टुकड़ा ही समझ रहा हो!
‘इतना अरमान है कि मरने के पहले आपको देख लेती’–यह वाक्य जैसे उसके हृदय में चिमट गया था। उसका मन जैसे गंगा की लहरों पर तैरता हुआ सकीना को खोज रहा था। लहरों की ओर तन्मयता से ताकते-ताकते उसे मालूम हुआ मैं बहा जा रहा हूँ। वह चौंककर घर की तरफ़ चला। दोनों आँखें तर, नाक पर लाली और गालों पर आर्द्रता।
५
गाँव में एक आदमी सगाई लाया है। उस उत्सव में नाच, गाना, भोज हो रहा है। उसके द्वार पर नगाड़ियाँ बज रही हैं; गाँव के स्त्री, पुरुष, बालक जमा हैं और नाच शुरू हो गया है। अमरकान्त की पाठशाला आज बन्द है। लोग उसे भी खींच लाये हैं।
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