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उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘अब दादाजी का हाल सुनिए। वह आजकल एक ठाकुर द्वारा बनवा रहे हैं। ज़मीन तो पहले ही ले चुके थे। पत्थर जमा हो रहा है। ठाकुरद्वारे की बुनियाद रखने के लिए राजा साहब को निमन्त्रण दिया जायेगा। न जाने क्यों दादा अब किसी पर क्रोध नहीं करते। यहाँ तक कि ज़ोर से बोलते भी नहीं। दाल में नमक तेज़ हो जाने पर जो थाली पटक देते थे, अब वह चाहे कितनी ही नमक पड़ जाय, बोलते भी नहीं। सुनती हूँ, आसामियों पर भी उतनी सख़्ती नहीं करते। जिस दिन बुनियाद पड़ेगी, बहुत से आसामियों का बक़ाया मुआफ़ भी करेंगे। पठानिन को अब पाँच की जगह पच्चीस रुपये मिलने लगे हैं। लिखने को तो बहुत-सी बातें हैं, पर लिखूँगी नहीं। आप अगर यहाँ आयें, तो छिपकर आइयेगा; क्योंकि लोग झल्लाये हुए हैं। हमारे घर में कोई नहीं आता-जाता।’

दूसरा ख़त सलीम का है–‘मैंने तो समझा था, तुम गंगाजी में डूब मरे और तुम्हारे नाम को, प्याज़ की मदद से, दो-तीन क़तरे आँसू बहा दिये थे और तुम्हारी रूह की नजात के लिए एक बरहमन को एक कौड़ी ख़ैरात भी कर दी थी; मगर यह मालूम करके रंज हुआ कि आप ज़िन्दा हैं और मेरा मातम बेकार हुआ। आँसुओं का तो गम नहीं, आँखों को कुछ फायदा ही हुआ, मगर उस कौड़ी का ज़रूर ग़म है। भले आदमी, कोई पाँच-पाँच महीने तक यों ख़ामोशी अख्तियार करता है। ख़ैरियत यही है कि तुम यहाँ मौजूद नहीं हो। बड़े क़ौमी ख़ादिम की दुम बने हो। जो आदमी अपने प्यारे दोस्त से इतनी बेवफ़ाई करे, वह क़ौम की ख़िदमत क्या ख़ाक करेगा?’

‘ख़ुदा की क़सम, रोज तुम्हारी याद आती थी। कॉलेज जाता हूँ, जी नहीं लगता। तुम्हारे साथ कॉलेज की रौनक चली गयी। उधर अब्बाजान सिविल सर्विस की रट लगा-लगाकर और भी जान लिए लेते हैं। आख़िर कभी आओगे भी या काले पानी की सज़ा भोगते रहोगे?’

‘कॉलेज के हाल साब़िक दस्तूर हैं–‘वही ताश हैं; वही लेक्चरों से भागना है, वही मैच हैं। हाँ, कॉन्वोकेशन का ऐड्रेस अच्छा रहा। वाइस-चांसलर ने सादा ज़िन्दगी पर ज़ोर दिया। तुम होते, तो उस एड्रेस का मज़ा उठाते। मुझे फीका मालूम होता था। सादा ज़िन्दगी का सबक़ तो सब देते हैं; पर कोई नमूना बनकर दिखाता नहीं। यह तो अनगिनती लेक्चरार और प्रोफ़ेसर हैं क्या सब-के-सब सादा ज़िन्दगी के नमूने हैं? वह तो लिविंग का स्टैंडर्ड ऊँचा कर रहे हैं, तो फिर लड़के भी क्यों न ऊँचा करें, क्यों न बहती गंगा में हाथ धोवें? वाइस-चांसलर साहब, मालूम नहीं, सादगी का सब़क अपने स्टाफ को क्यों नहीं देते? प्रोफ़ेसर भाटिया के पास तीस जोड़े जूते हैं और बाज-बाज पचास रुपये के हैं। ख़ैर उनकी बात छोड़ो। प्रोफ़ेसर चक्रवर्ती तो बड़े किफायतशार मशहूर हैं। जोरू न जाँता, अल्ला मियाँ से नाता। फिर भी जानते हो कितने नौकर हैं उनके पास? कुल बारह! तो भाई, हम लोग तो नौजवान हैं, हमारे दिलों में नया शौक है, ख़ुशामद करेंगे, मगर शान से रहेंगे ज़रूर। वह जहन्नम में जा रहे हैं, तो हम भी जहन्नम जायेंगे; मगर उनके पीछे-पीछे।’

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