उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मुन्नी ने कलसा उठा लिया और कुएँ की ओर चल दी। अमर रमणी-हृदय का यह अद्भुत रहस्य देखकर स्तम्भित हो गया था।
सहसा मुन्नी ने पुकारा–‘लाला, ताजा पानी लायी हूँ। एक लोटा लाऊँ?’
पीने की इच्छा होने पर भी अमर ने कहा–‘अभी तो प्यास नहीं है मुन्नी।’
४
तीन महीने तक अमर ने किसी को ख़त न लिखा। कहीं बैठने की मुहलत ही न मिली। सकीना का हाल जानने के लिए हृदय तड़प-तड़पकर रह जाता था। नैना की भी याद आ जाती थी। बेचारी रो-रोकर मरी जाती होगी। बच्चे का हँसता हुआ फूल-सा मुखड़ा याद आता रहता था; पर कहीं अपना पता-ठिकाना हो तब तो खत लिखे। एक जगह तो रहना नहीं होता था। यहाँ आने के कई दिन बाद उसने तीन ख़त लिखे–सकीना, सलीम और नैना के नाम। सकीना का पत्र सलीम के लिफ़ाफे में ही बन्द कर दिया था। आज जवाब आ गये हैं। डाकिया अभी दे गया है। अमर गंगा-तट पर एकान्त में जाकर इन पत्रों को पढ़ रहा है। वह नहीं चाहता, बीच में कोई बाधा हो, लड़के आ-आकर पूछें किसका ख़त है?
नैना लिखती है–भला, आपको इतने दिनों में मेरी याद तो आयी। मैं आपको इतना कठोर न समझती थी। आपके बिना इस घर में कैसे रहती हूँ, इसकी आप कल्पना नहीं कर सकते, क्योंकि आप, आप हैं, और मैं, मैं। साढ़े चार महीने! और आपका एक पत्र नहीं, कुछ ख़बर भी नहीं! आँखों से कितना आंसू निकल गया, कह नहीं सकती। रोने के सिवा आपने और काम ही क्या छोड़ा! आपके बिना मेरा जीवन इतना सूना हो जायेगा, मुझे यह न मालूम था।’
‘आपके इतने दिनों की चुप्पी का कारण मैं समझती हूँ, पर वह आपका भ्रम है भैया। आप मेरे भाई हैं। मेरे वीरन हैं। राजा हों, तो मेरे भाई हैं, रंक हों, तो मेरे भाई हैं। संसार आप पर हँसे, सारे देश में आपकी निन्दा हो, पर आप मेरे भाई हैं। आज आप मुसलमान या ईसाई हो जायँ, तो क्या आप मेरे भाई न रहेंगे? जो नाता भगवान् ने जोड़ दिया है, क्या उसे आप तोड़ सकते हैं? इतना बलवान मैं आपको नहीं समझती। इससे भी प्यारा और कोई नाता संसार में है, नहीं समझती। माँ में केवल वात्सल्य है। बहन में क्या है, नहीं कह सकती, पर वह वात्सल्य से कोमल अवश्य है। माँ अपराध का दण्ड भी नहीं देती है। बहन क्षमा का रूप है। भाई न्याय करे, अन्याय करे, डाँटे या प्यार करे, मान करे, अपमान करे, बहन के पास क्षमा के सिवा और कुछ नहीं है। वह केवल उसके स्नेह की भूखी है।’
‘जब से आप गये हैं, किताबों की ओर ताकने की इच्छा नहीं होती। रोना आता है। किसी काम में जी नहीं लगता। चरखा भी पड़ा मेरे नाम को रो रहा है। बस, अगर कोई आनन्द की वस्तु है, तो वह मुन्नू है। वह मेरे गले का हार हो गया है। क्षण भर को भी नहीं छोड़ता। इस वक़्त सो गया है, तब यह पत्र लिख सकी हूँ, नहीं उसने चित्रलिपि में वह पत्र लिखा होता, जिसको बड़े-बड़े विद्वान भी न समझ सकते। भाभी को उससे अब उतना स्नेह नहीं रहा। आपकी चर्चा वह कभी भूलकर भी नहीं करतीं। धर्म-चर्चा और भक्ति से उन्हें विशेष प्रेम हो गया है। मुझसे भी बहुत कम बोलती हैं। रेणुका देवी उन्हें लेकर लखनऊ जाना चाहती थीं, वह वहाँ नहीं गयीं। एक दिन उनकी गऊ का विवाह था। शहर के हज़ारों देवताओं का भोज हुआ। हम लोग भी गये थे। यहाँ के गऊशाले के लिए उन्होंने दस हज़ार रुपये दान किये हैं।’
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