उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘तो क्या मेरी जान तुम्हारी जान से प्यारी है?’
‘मेरी जैसी एक लाख जानें तुम्हारी जान पर न्यौछावर हैं।’
मुन्नी ने उसकी ओर अनुरक्त नेत्रों से देखा–‘तुम्हें भगवान ने मेहरिया क्यों नहीं बनाया लाला। इतना कोमल हृदय तो किसी मर्द का नहीं देखा। मैं तो कभी-कभी लाला सोचती हूँ, तुम यहाँ न आते, तो अच्छा होता।’
अमर मुस्कराकर बोला–‘मैंने तुम्हारे साथ बुराई की है मुन्नी?
मुन्नी काँपते हुए स्वर में बोली–‘बुराई नहीं की। जिस अनाथ बालक का कोई पूछने वाला न हो, उसे गोद और खिलौनों और मिठाइयों का चस्का डाल देना क्या बुराई नहीं है? यह सुख पाकर क्या वह बिना लाड़-प्यार के रह सकता है?’
अमर ने करुण स्वर में कहा–‘अनाथ तो मैं था मुन्नी। तुमने मुझे गोद और प्यार का चस्का डाल दिया। मैंने तो रो-रोकर तुम्हें दिक़ ही किया है।’
मुन्नी ने कलसा ज़मीन पर रख दिया और बोली–‘मैं तुमसे बातों में न जीतूँगी लाला; लेकिन तुम न थे, तब मैं बड़े आनन्द से थी। घर का धन्धा करती थी, रूखा-सूखा खाती थी और सो रहती थी। तुमने मेरा वह सुख छीन लिया। अपने मन में कहते होगे, बड़ी निर्लज नार है। कहो, जब मर्द औरत हो जाय, तो औरत को मर्द बनना ही पड़ेगा। जानती हूँ तुम मुझसे भागे-भागे फिरते हो, मुझसे गला छुड़ाते हो। यह भी जानती हूँ, तुम्हें पा नहीं सकती। मेरे ऐसे भाग्य कहाँ? पर छोड़ूँगी नहीं। मैं तुमसे और कुछ नहीं माँगती। बस, इतना ही चाहती हूँ कि तुम मुझे अपनी समझो, मुझे मालूम हो कि मैं भी स्त्री हूँ, मेरे सिर पर भी कोई है, मेरी ज़िन्दगी भी किसी के काम आ सकती है।’
अमर ने अब तक मुन्नी को उसी तरह देखा था, जैसे हरेक युवक किसी सुन्दरी युवती को देखता है–‘प्रेम से नहीं, केवल रसिक भाव से; पर इस आत्मसमर्पण ने उसे विचलित कर दिया। दुधार गाय के भरे हुए थनों को देखकर हम प्रसन्न होते हैं–इनमें कितना दूध होगा! केवल उसकी मात्रा का भाव हमारे मन में आ जाता है। हम गाय को पकड़कर दुहने के लिए तैयार नहीं हो जाते; लेकिन कटोरे में दूध का सामने आ जाना दूसरी बात है। अमर ने दूध के कटोरे की ओर हाथ बढ़ा दिया–‘आओ, हम-तुम कहीं चलें मुन्नी। वहां मैं कहूँगा यह मेरी...’
मुन्नी ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया और बोली– ‘बस, और कुछ न कहना। मर्द सब एक से होते हैं। मैं क्या कहती थी, तुम क्या समझ गये। मैं तुमसे सगाई नहीं करुँगी, तुम्हारी रखेली भी नहीं बनूँगी। तुम मुझे अपनी चेरा समझते रहो, यही मेरे लिए बहुत है।’
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