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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


जंगबहादुर यों तो राजकुल के थे, पर उनकी रिश्तेदारियाँ अधिकतर थापा घराने में थीं। जब वह उस समय की प्रचलित पढ़ाई पूरी कर चुके, तो उन्हें एक ऊँचा पद प्राप्त हुआ। उस समय थापा कुल अधिकारारूढ़ था और भीमसेन थापा अमात्य थे। महाराज ने मंत्री की बढ़ती हुई शक्ति से डरकर उन्हें एक झूठे अभियोग में क़ैद कर दिया। भीमसेन ने जेलखाने में ही आत्महत्या कर ली। उनके मरते ही उनके कुटुम्बियों और सम्बन्धियों पर आफत आ गई। उनका भतीजा जेनरल मोतबरसिंह भागकर हिंदुस्तान चला आया। जंगबहादुर और उनके पिता भी पदच्युत कर दिए गए। यह बात सन् १८३७ ई० की है। उस समय जंगबहादुर २१ साल के थे। पद का चार्ज ले लिये जाने के बाद वह भागकर बनारस आये और यहाँ दो साल तक इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहे। अन्त में कहीं आश्रय न दिखाई दिया, तो १८३९ ई० में फिर नेपाल गये। तब तक वहाँ थापा लोगों के विरुद्ध भड़की हुई क्रोधाग्नि ठंडी हो चुकी थी और जंगबहादुर को किसी ने रोक-टोक न की। यहाँ उन्हें अपना शौर्य-साहस दिखाने के कुछ ऐसे मौक़े मिले कि महाराज ने प्रसन्न होकर उन्हें बहाल कर दिया। अबकी वह युवराज सुरेन्द्रविक्रम के मुसाहब बना दिए गए। पर जंगबहादुर के लिए यह नौकरी बहुत ही भयावह सिद्ध हुई।

युवराज सुरेन्द्रविक्रम एक झक्की, कमजोर दिमाग़ का विक्षिप्त नवयुवक था और उसे क्रूरता के दृश्य देखने की सनक थी। अपने मुसाहबों से ऐसे-ऐसे कामों की फ़रमाइश करता कि उनकी जान पर ही आ बीतती। जंगबहादुर को भी कई बार जानलेवा परीक्षाओं में पड़ना पड़ा, पर हर बार वह कुछ तो अपने सैनिकोचित अभ्यास और कुछ सौभाग्य की सहायता से बच गए। एक बार उन्हें ऊँचे पुल पर से नीचे तूफानी पहाड़ी पर कूदना पड़ा। इसी प्रकार एक बार उन्हें एक ऐसे गहरे कुएँ में कूदने का हुक्म हुआ, जिसमें उन भैंसों की हड्डियाँ जमा की जाती थीं, जो विशेष पर्वोत्सवों में बलि किए जाते थे। इन दोनों कठिन परीक्षाओं में अपनी मौत से खेलने-वाली हिम्मत की बदौलत वे उत्तीर्ण हो गए। कुशल हुई कि उन्हें इस नौकरी पर केवल एक साल रहना पड़ा। १८४१ ई० में उनके पिता की मृत्यु हुई और वह महाराज राजेन्द्र विक्रम के अंगरक्षक (बाडीगार्ड) नियुक्त हुए।

युवराज सुरेन्द्रविक्रम का क्रूरता का उन्माद दिन-दिन बढ़ता गया। दूसरों को एड़ियाँ रगड़कर मरते देखने में उसे मज़ा आता था। यहाँ तक कि कई बार उसने अपनी ही रानियों को पालकी समेत नदी में डुबवा दिया। महाराज स्वयं दुर्बलचित्त, अदूरदर्शी, नासमझ आदमी थे। राज्य का प्रबन्ध बड़ी रानी किया करती थीं और उनका दबाव कुछ-कुछ युवराज को भी मानना पड़ता था; पर अक्टूबर सन् १८४१ में इस बुद्धिमती रानी का स्वर्गवास हो गया और उसकी आँख मुँदते ही नेपाल में अराजकता का युग आरम्भ हो गया। सुरेन्द्रविक्रम को अब किसी का डर-भय न रहा, दिल खोलकर अत्याचार-उत्पीड़न आरम्भ कर दिया। महाराज में इतनी सामर्थ्य न थी कि इसका प्रतिबन्ध कर सकें। अधिकारी और प्रजा सबकी नाक में दम हो गया। अंत में इसकी कोशिश होने लगी कि महाराज को अपने अधिकार छोड़ देने को बाध्य किया जाय और शासन की बागडोर छोटी रानी लक्ष्मी देवी के हाथ में दे दी जाय।

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