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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


लक्ष्मी देवी युवराज की सौतेली माँ थीं और अपने लड़के रणविक्रम को गद्दी पर बिठाने के फेर में थी। इसलिए राज्य प्रबन्ध उनके हाथ में आने से यह आशा की जाती थी कि युवराज का हत्यारापन दूर हो जाएगा। अतः दिसम्बर सन् १८४२ में राज्य के प्रमुख अधिकारी और प्रजा के मुखिया, जिनकी संख्या ७॰॰ के लगभग थी, एकत्र हुए और सेना के साथ बैंड बजाते हुए महाराज की सेवा में उपस्थित होकर उनसे एक फरमान-पत्र पर हस्ताक्षर करने का अनुरोध किया, जिसके अनुसार राज-काज महारानी लक्ष्मीदेवी को सौंप दिया जाता। महाराज ने पहले तो टाल-मटोल से काम लेना चाहा और एक महीने तक वादों पर टरकाते रहे; पर अन्त में उन्हें इस फरमान को स्वीकार कर लेने के सिवा कोई दूसरा उपाय न दिखाई दिया।

रानी लक्ष्मीदेवी पाँडे लोगों से बुरा मानती थीं और थापा घराने की तरफ़दार थीं, इसलिए अधिकार पाते ही उन्होंने जेनरल मोतबरसिंह को नेपाल बुलाया, जिन्हें अंग्रेज सरकार ने शिमले में नजरबन्द कर रखा था। वह जब नेपाल पहुँचे, तो बड़ी धूम से उनका स्वागत किया गया। अगवानी के लिए सेना भेजी गई, जिसके साथ जंगबहादुर भी थे। मोतबरसिंह मंत्री बनाए गये और पाँडे मंत्री को जान के डर से हिंदुस्तान भागना पड़ा। इस परिवर्तन में रानी लक्ष्मीदेवी का उद्देश्य यह था कि मोतबरसिंह को अपने लड़के रणविक्रम का समर्थक बना ले और युवराज सुरेन्द्रविक्रम को धता बताए। पर मोतबरसिंह इतना दुर्बलचित्त और सिद्धांत-रहित व्यक्ति न था कि मंत्रित्व या एहसान के बदले में न्याय की हत्या करने को तैयार हो जाय। बड़े बेटे के रहते छोटे राजकुमार का युवराज-पद पाना कुल-परम्परा के प्रतिकूल था और यद्यपि वह महारानी को साफ़ जवाब न दे सके; पर इसका यत्न करने लगे कि सुरेंद्रविक्रम के स्वभाव में ऐसा सुधार हो जाये, जिससे महाराज को शासन-सूत्र उनके हाथ में देने में आगा पीछा करने की कोई गुंजाइश न रहे। पर खुद महाराज का ख़याल उनकी ओर से अच्छा नहीं था। धीरे-धीरे महारानी को भी मालूम हो गया कि मोतबरसिंह से कोई आशा रखना बेकार है। अतः वह भी भीतर-भीतर उनके खून की प्यासी बन बैठी।

बेचारे मोतबरसिंह अब कठिन समस्या में फँसे हुए थे। राजा भी दुश्मन, रानी भी दुश्मन। पर वह अपनी धुन के पक्के थे। एक ओर युवराज के शिक्षण और सुधार और दूसरी ओर महाराज को सब अधिकार दे देने को तैयार करने में लगन के साथ लगे रहे; पर दोनों ही कठिन कार्य थे। क्रूरता जिस मनुष्य का स्वभाव बन गया हो, उसका सुधार दुस्साध्य है और महाराज जैसे अस्थिरचित्त, अदूरदर्शी और अधिकार-लोलुप व्यक्ति का हृदय-परिवर्तन भी अनहोनी बात है; पर अंत में उनके दोनों यत्न सफल हुए और १३ दिसम्बर, सन् १८४४ को महाराज ने अपने सब अधिकार युवराज को सौंप दिए। और मोतबरसिंह ने यह घोषणा पढ़कर प्रजा को सुनायी।

धीरे-धीरे मोतबरसिंह का अधिकार और प्रभाव इतना बढ़ा कि राज्य के और सरदार घबड़ाने लगे। स्वेच्छाचारिता का अधिकार के साथ चोली-दामन का सम्बन्ध है। वह यहाँ भी प्रकट हुई। मोतबरसिंह अपने सामने किसी की भी नहीं सुनते थे। जंगबहादुर उनके सगे भानजे थे, इसलिए कभी-कभी दरबार में भी उनके विरोध की हिम्मत कर बैठते थे। नतीजा यह हुआ कि मामा-भानजे में तनातनी हो गई। एक बार किसी मामले में जंगबहादुर के चचेरे भाई देवीबहादुर ने मोतबरसिंह का कसकर विरोध किया और क्रोध के आवेश में महारानी के आचरण पर भी आक्षेप कर बैठे यह असाधारण अपराध था, इसलिए देवीबहादुर को फाँसी की सजा मिली। जंगबहादुर ने अपने भाई के प्राण-दान मिलने की सिफारिश के लिए मोतबरसिंह से बड़ी अनुनय-विनय की, पर उन्होंने महारानी की आज्ञा में दखल देना मुनासिब न समझा। देवीबहादुर की गरदन उतार दी गई।

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