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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है



राणा जंगबहादुर

नेपाल के राणा जंगबहादुर उन मौक़ा-महल समझने वाले, दूरदर्शी और बुद्धिशाली व्यक्तियों में थे, जो देशों और जातियों को पारस्परिक कलह और संघर्ष के गर्त से निकाल कर उन्हें उन्नति के पथ पर लगा देते हैं। वह १९वीं सदी के आरंभ में उत्पन्न हुए। यह वह समय था, जब हिन्दुस्तान में ब्रिटिश सत्ता बड़ी तेजी से फैलती जा रही थी। देहली का चिराग गुल हो चुका था, मराठे ब्रिटिश शक्ति का लोहा मान चुके थे और केवल पंजाब का वह भाग; जो महाराज रणजीतसिंह के अधिकार में था, उसके प्रभाव से बचा था। नेपाल भी अंग्रेजी तलवार का मजा चख चुका था और सुगौली की संधि के अनुसार अपने राज्य का एक भाग अंग्रेज सरकार को नज़र कर चुका था। वही भाग, जो अब कुमायूँ की कमिश्नरी कहलाता है।

ऐसे नाजुक वक्त में, जब देशी राज्य कुछ तो गृहयुद्धों और कुछ अपनी कमजोरियों के शिकार होते जाते थे, नेपाल की भी वही गति होती; क्योंकि उस समय वहाँ की भीतरी अवस्था कुछ ऐसी ही थी, जैसी देहली की सैयद बंधुओं के समय में या पंजाब की रणजीतसिंह के निधन के बाद हुई थी। पर राणा जंगबहादुर ने इस नाजुक घड़ी में नेपाल के शासन-प्रबंध की बागडोर अपने हाथ में ले ली और गृहकलह तथा प्रबंध-दोषों को मिटाकर सुव्यवस्थित शासन स्थापित किया। इसमें संदेह नहीं कि इस काम में वह सदा न्याय और सत्य पर नहीं रह सके। अकसर उन्हें चालबाजियों, साजिशों, यहाँ तक कि गुप्त हत्याओं तक का सहारा लेना पड़ता था; पर संभवतः उस परिस्थिति में वही नीति उपयुक्त थी। नेपाल की अवस्था उस समय ऐसी हो गई थी, जब मानवता, सहनशीलता अथवा क्षमा दुर्बलता मानी जाती है। और जब भय और त्रास ही एकमात्र ऐसा साधन रह जाता है, जो उत्पातियों और सिरफिरों को काबू में रख सके। पंजाब के अंतिम काल में जंगबहादुर जैसा उपायकुशल और हिम्मतवाला कोई आदमी वहाँ होता, तो शायद उसका अंत इतनी आसानी से न हो सकता। जंगबहादुर को नेपाल का बिस्मार्क कह सकते हैं।

नेपाल राज्य की नींव १६वीं शताब्दी में पड़ी। अकबर के हाथों चित्तौड़ के तबाह होने के बाद राणा-वंश के कुछ लोग शांति की तलाश में यहाँ पहुँचे और यहाँ के कमजोर राजा को अपनी जगह उनके लिए खाली कर देनी पड़ी। तब से वही घराना राज्यारूढ़ है; पर धीरे-धीरे स्थिति ने कुछ ऐसा रूप प्राप्त कर लिया कि राज्य के हर्ता-कर्ता प्रधान मंत्री या ‘अमात्य’ हो गए। मंत्री जो चाहते थे, करते; राजा केवल बिखरी हुई शक्तियों को एकत्र रखने का साधन मात्र था। मंत्रियों के भी दो वर्ग थे–एक ‘पाँडे’ का, दूसरा ‘थापा’ का, और दोनों में सदा संघर्ष होता रहता था। जब पाँडे लोग अधिकारारूढ़ होते, तो थापा घराने को मिटाने में कोई बात उठा न रखी जाती, और इसी प्रकार जब थापा लोग अधिकारी होते, तो पाँडे वंशवालों की जान के लाले पड़ जाते।

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