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दरिंदे

हमीदुल्ला

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8424
आईएसबीएन :0

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समाज और व्यवस्था के प्रति आक्रोश

दूसरा पक्ष


अ.भा. प्रतियोगिता में 1972-73 में प्रथम पुरस्कृत एकांकी


पात्र-परिचय



1.    शीला: उम्र 18 वर्ष के लगभग, नये विचारों की अनुभवहीन युवती।
2.    बिशन: उम्र 25 वर्ष (इसकी केवल आकृति दिखाई देती है)।
3.    दीनदयाल: उम्र लगभग 50 वर्ष, पेशे से वकील, चेहरे पर काइंयापन।
4.    मोती: उम्र 21 वर्ष, आवारा, गुण्डा।

[परदा उठने पर: मंच पर एकदम अँधेरा। प्रकाश-किरण एक पुरुष और एक स्त्री के चेहरों को आलोकित करती है। स्त्री का सिर झुका हुआ है। पुरुष-मुख उसके करीब आकाश की ओर शून्य में मुसकराता विजय का परिचायक।]

बिशन: साफ़-साफ़ कहूँ शीला !
शीला: हाँ, कहो बिशन। ये पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हो ?
बिशन: मुझे तुम्हारे पत्र लौटाने में कोई ऐतराज नहीं है। पर तुम्हें उनकी कीमत चुकानी होगी।
शीला: क़ीमत ?
बिशन: हाँ, कोई बहुत ज़्यादा नहीं। सिर्फ़ दस हज़ार।
शीला: दस हज़ार ? यह तुम कह रहे हो, बिशन, तुम ? जो दिन-रात मेरे नाम की रट लगाये रहते थे !

(बिशन के हलके ठहाके जो धीरे-धीरे तेज होते जाते हैं।)

आज मालूम हुआ। तुम अपने स्वार्थ के लिए मुझसे शादी करने का नाटक खेल रहे थे। मैं नहीं जानती थी कि तुम इतने गिरे हुए इनसान हो। लेकिन मैं इतनी नादान नहीं हूँ, जो अपना भला-बुरा न सोच सकूँ। मेरी माँ नहीं है। पर डैडी को मैं सब कुछ साफ़-साफ़ बता दूँगी। यह भी कि तुम एक धोखेबाज़ इनसान हो !
तुम हँस रहे हो। खूब हँसो। लेकिन सोचो, एक छोटी-सी भूल की इतनी बड़ी कीमत माँग रहे हो। कुछ पत्र लौटाने की कीमत दस हज़ार। मेरे भविष्य के साथ खिलवाड़ करके आखिर तुम्हें क्या मिलेगा ? बोलो बिशन, बोलो !

(बिशन के ठहाकों के साथ प्रकाश लुप्त हो जाता है। मंच पर फिर अँधेरा और अचानक मंच के दायें कोने में दीनदयाल का चेहरा आलोकित होता है।)

दीनदयाल: जी हाँ, मैं ही वकील दीनदयाल हूँ- शीला का डैडी ! क्या हो गया है, दुनिया को......सब अकेले-अकेले अपने ही लिए जीना चाहते हैं। दूसरे की किसी को फिक्र ही नहीं रह गयी है। हर तरफ़ अँधेरा है।......

(उपयुक्त संगीत, प्रकाश लुप्त हो जाता है। अँधेरे में बिशन की तेज़ चीख सुनाई देती है और प्रकाश मंच के बायीं ओर मोती के चेहरे पर जम जाता है, जो पसीने से भरा हुआ है।)

मोती: (मानो किसी अदालत में बयान दे रहा हो) मेरा नाम मोती है। उमर 21 साल। माँ का नाम जमना। बाप का नाम नामालूम। पेशा, गुण्डागर्दी, जो शुरू में शौक़ था, फिर धीरे-धीरे आदत बना और अब तो धन्धा हो गया है। आज हर आदमी मुझे गुण्डा कहता है। आप शायद सोच रहे होंगे मैंने बाप का नाम नामालूम क्यों कहा ? मैं तो बस इतना ही जानता हूँ कि जब मैंने होश सँभाला, तो जाना, मैं पाप की औलाद हूँ और इस कचहरी के बड़े वकील दीनदयाल को अपना पिता कह सकता हूँ। जब मैं सात साल का था, मेरी माँ मर गयी। सुना था, माँ दीनदयाल जी के घर का काम करती थी। एक दिन उसकी पत्नी ने उसे घर से निकाल दिया। माँ अलग रहने लगी। बचपन की बात आज तक याद है- दीनदयालजी अकसर हमारे घर आते थे। माँ को हर तरह से तसल्ली देते रहते थे। तभी माँ ने बताया था, मैं उन्हें अपना पिता कह सकता हूँ। माँ के मरने के बाद वह जब भी मुझसे मिले तो यहाँ इसी कचहरी में। उन्होंने कई बार मेरी ज़मानत ली है। पर एक बात साफ़ है। दीनदयालजी को कभी अच्छा नहीं लगा कि मैं उन्हें अपना पिता कहूँ। कौन किसकी करतूत के लिए ज़िम्मेदार है, यह मैं क्या जानूँ ?मैं तो अपनी तरफ़ से यही कह सकता हूँ, मुझे अपने धन्धे में बड़ा सुख मिलता है।

(संगीत। मोती का चेहरा धीरे-धीरे अन्धकार में विलीन हो आता है और फिर मंच पर एकदम अंधेरा।)

(धीरे-धीरे मंच आलोकित होता है। ड्राइंग रूम में दीनदयाल बेचैनी से इधर-उधर टहल रहे हैं। सामने सोफे पर शीला बैठी है। सन्नाटा। घड़ी की टिक-टिक की आवाज़। वाल-क्लॉक में दस बजते हैं।)

शीला: बिशन अभी तक नहीं आया, डैडी ! दस बज रहे हैं रात के। उसने तो सात बजे तक ज़रूर आने के लिए कहा था।
दीनदयाल: तुमसे भी सात बजे शाम के लिए कहा था ?
शीला: हाँ, डैडी ! उसे अब आ जाना चाहिए।
दीन: क्या कहा था, उसने ?
शीला: यही कि मैं तुम्हारे डैडी से बात करने के लिए सात बजे शाम को ज़रूर आऊँगा.....ब्लैकमेलर ! लोफ़र ! धोखेबाज़ !
दीन: यह परसों की बात है न ?
शीला: आपसे भी वो परसों ही तो मिला था। एक दिन और दो रात पहले।
दीन: रात ?
शीला: क्यों, रात के नाम पर क्या सोचने लगे, डैडी ?
दीन: मैं सोच रहा था, सोच रहा था मैं........
शीला: क्या ?
दीन: कुछ नहीं। हाँ। यही कि उसने पहले धोखा दिया तुम्हें। फिर हमसे ही उसका मुआवज़ा माँग रहा है। कुछ पत्र लौटाने की कीमत दस हजार।
शीला: मैं नहीं जानती थी डैडी, बिशन एक ब्लैकमेलर है।
दीन: ऐसे ब्लैकमेलर से मुझे खूब निपटना आता है। बड़ा होशियार समझता है अपने को। तुमने पहले मुझसे कभी जिक्र नहीं किया वरना ऐसी नौबत............

(कॉलबेल बजती है।)

शीला: वह आ गया,  डैडी ! मैं नीचे दरवाज़ा खोलती हूँ।
दीन: ठहरो। मैं खुद ही तुम्हारे साथ चलता हूँ।
शीला: आइए।
दीन: नहीं। तुम ही जाओ। मैं यहीं बैठता हूँ। (शीला चली जाती है। दीनदयाल बैठते नहीं। परेशानी से इधर-उधर घूमते रहते हैं। शीला के दरवाज़ा खोलने की आवाज़ आती है और उसके बाद शीला और आगन्तुक का वार्तालाप सुनाई देता है।)
शीला: कौन ? कौन हो तुम ? क्या बात है ? यहाँ किसलिए आये हो ? डैडी से मिलना है ?
मोती: आपने तो थानेदार की तरह एक साथ ढेर सारे सवाल कर दिये !
शीला: जी, वो.......
मोती: और आनेवाला था कोई ?
शीला: जी, वो........
मोती: मुझे देखकर डर गयी या.......?
शीला: नहीं, नहीं तो, आप अन्दर आइए। आइए न। आपको डैडी से काम है ? वह अन्दर हैं। आपका नाम ?
मोती: मोती मेरा नाम है, इस घर की नौकरानी जमना का बेटा।
शीला: कौन जमना ?.....अच्छा हाँ, याद आया। लेकिन वह तो कब की मर गयी ? मैंने उसे छुटपन में देखा था। मैं वकील साहब की लड़की शीला हूँ। उनकी इकलौती बेटी।
मोती: इकलौती बेटी ! हूँ ! मुझे भी कुछ-कुछ याद आता है कि हम दोनों यहीं एक साथ बचपन में खेले हैं। इसी बँगले में। इस बँगले के लॉन में। इस बँगले में कुछ अपनापन दिखता है मुझे।
शीला: लेकिन आप बाद में कभी यहाँ नहीं आये ?
मोती: आया तो नहीं, बस बाहर से इस बँगले को देखता रहा हूँ।
शीला: आइए, आपको डैडी से मिलवाऊँ।
मोती: चलिए।

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