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दरिंदे

हमीदुल्ला

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8424
आईएसबीएन :0

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समाज और व्यवस्था के प्रति आक्रोश


पति: (चिढ़कर) अजीब बात है। (ज़ोर से) अरे भई, कौन है ? ( बाहर से आवाज़ आती है- ‘मैं हूँ, देवेन्द्र। जीजाजी, दरवाजा खोलो।’ इसके साथ ही शान्ति हो जाती है।
पत्नी: (खुश होकर) अरे देवेन्द्र आया है।
बड़ा लड़का, लड़की और छोटा लड़का: कौन ? मामाजी हैं। मामाजी आ गये, मामाजी आ गये। (सब दरवाज़ा खोलने दौड़ पड़ते हैं।)
पत्नी: (देवेन्द्र के साथ अन्दर मंच पर आती हुई।) देवेन्द्र, तो चिट्ठी तक नहीं दी कि तुम आ आ रहे हो।
देवेन्द्र: नमस्ते जीजाजी।
पति: नमस्ते, नमस्ते। आओ भई, देवेन्द्र।
देवेन्द्र: जीजाजी, आज मुझे अचानक एक इण्टरव्यू के सिलसिले में यहाँ आना पड़ा। इसलिए आप लोगों को अपने आने की सूचना ही नहीं दे सका। कुशल तो है, जीजाजी, ये.....
पत्नी: सब कुशल है, भैया, देवेन्द्र।
देवेन्द्र: (सब को इकट्ठा देखकर आश्चर्य से) पर आप एक जगह इस तरह इकट्ठे क्यों खड़े हैं ? आज ये बच्चे स्कूल क्यों नहीं गये ? आज.....क्या कोई ख़ास बात है ?
पति: अरे भई, कुछ न पूछो, देवेन्द्र। आज तुम्हारी जिज्जी ने घर में हड़ताल कर दी है।
देवेन्द्र: हड़ताल ?
पति: हाँ भई, ‘घर बन्द’ है और ये लोग मेरा घेराव करने जा रहे हैं।
देवेन्द्र: वजह ?
पति: वजह तो कुछ नहीं। बस ‘घर बन्द’ होना था, इसलिए हो गया। मौत, बन्द, हड़ताल का आजकल कारण नहीं बताना होता।
देवेन्द्र: तो भाई मैं चला यहाँ से। मैं तो बहुत ग़लत वक़्त पर आ गया यहाँ। मैं तो किसी होटल में जाकर ठहर जाऊँगा। (उठकर चलने लगता है।)
पत्नी: भैया देवेन्द्र, तुम कहाँ चलो ? चलो, ऊपर चलकर नहा-धोकर कपड़े बदलो। मैं तुम्हारे लिए अभी चाय-नाश्ता बनाकर लगाती हूँ।
पति: पर श्रीमतीजी, आज तो ‘घर बन्द’ है।
पत्नी: तुमसे चुप नहीं रहा जाता (बच्चों से) मनोज, बिन्नी, बब्लू, तुम लोग झटपट स्कूल जाने के लिए तैयार हो जाओ। मैं अभी तुम्हारा नाश्ता तैयार करती हूँ।

(बच्चे कपड़े बदलने चले जाते हैं।)

पति: बहुत अच्छे समय पर आये, देवेन्द्र बाबू ! तुम्हारे यहाँ आने से एक बहुत बड़ा संकट टल गया।
पत्नी: क्या कहा ? संकट टल गया ? मैं कहे देती हूँ। आपको न तो चाय मिलेगी और न नाश्ता।
(पत्नी सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर जाने लगती है। पति अपनी कुरसी पर बैठा-बैठा नीचे झुकने लगता है, मानो उसे कोई दौरा पड़ा हो।)
देवेन्द्र: जीजाजी, आपको यह क्या हो रहा है ? जिज्जी, जीजाजी को देखना।
पति: (गिरी हुई धीमी आवाज़ में) इन लोगों ने मेरा दिल तोड़ दिया है। मुझे दिल का दौरा......
देवेन्द्र: यानी हॉर्ट अटैक ! जिज्जी देखना, जीजाजी को क्या हो गया ? दौड़ना जिज्जी।

(पत्नी भागी हुई आती है।)

पत्नी: देवेन्द्र, तुम जल्दी से डाक्टर को बुलवाओ। (रुआँसी होकर) न जाने इन्हें क्या हो गया ? मैंने तो ‘घर बन्द’ करने की बस धमकी ही दी थी। सचमुच मेरा इरादा ‘घर बन्द’ करने का नहीं था।
देवेन्द्र: सच कहती हो, जिज्जी ? यानी कि तुमने जीजाजी के सामने जो कुछ किया वह महज एक नाटक था।
पत्नी: देवेन्द्र, तेरी सौगन्ध खाकर कहती हूँ। मैंने वह सब नाटक ही किया था। घर की स्थिति क्या मेरे से छिपी थोड़े ही है।
देवेन्द्र: लेकिन जिज्जी, जीजाजी तुम्हारे इस नाटक को सच मान गये।
पत्नी: पर वह तो नाटक ही था।
पति: (सीधा उठकर) तो मुझ पर भी कौन-सा सचमुच दिल का दौरा पड़ा था, श्रीमती जी ! वह नाटक था, तो यह भी नाटक है।
पत्नी: आप बड़े वो हैं। मैं तो एकदम घबरा गयी थी।
पति: और तुम कौन-सी कम हो।

(सबकी हँसी के बीच परदा)


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