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दरिंदे

हमीदुल्ला

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8424
आईएसबीएन :0

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समाज और व्यवस्था के प्रति आक्रोश


(दोनों मंच पर आते हैं)

दीन: कौन ? मोती। तुम !
मोती: मुझे देखकर आपको.........
दीन: आज कैसे रास्ता भूल गये ? बैठो।
मोती: बैठ जाऊँ ?
दीन: हाँ भई, बैठ जाओ। आज गैरों की तरह इजाजत क्यों माँग रहे हो ? इनसे मिलो, यह है मेरी बेटी, शीला।
मोती: इन्होंने अभी नीचे बताया था।
दीन: तुमने इसे पहचाना ?
मोती: बचपन में देखा था। हल्की-सी याद है ?
दीन: शीला, यह मोती है। जब तुम छोटी थी, तो हमारे घर इसकी माँ नौकर थी।
शीला: यह बता रहे थे।
दीन: आज कितने साल के बाद हम मिल रहे हैं ?
मोती: शायद तीन-चार साल के बाद। इस बीच दो चक्कर और हो गये।
दीन: तुम दो बार आये थे यहाँ।
 मोती: नहीं। मैं जेल की बात कर रहा हूँ। तीन-चार साल पहले कचहरी के बाहर मिले थे हम। मेरी जमानत दी थी, आपने। सज़ा पूरी करके, दो बार और हो आया जेल में।
शीला: जेल ?
दीन: शीला, तुम यहाँ खड़ी-खड़ी क्या सुन सुन रही हो ? चाय पियोगे, मोती ?
मोती: पी लूँगा।
दीन: शीला, इनके लिए चाय बनाके लाओ। अच्छा, यह बताओ, मोती, आज कैसे आना हुआ ?

(शीला चली जाती है।)

मोती: आपको मुबारकबाद देने चला आया, शीला की मँगनी की। सुना है, कानपुर के एक बड़े सरकारी अफ़सर से शीला का संबंध हुआ है, बड़ी खुशी हुई जानकर।
दीन: तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि शीला की मँगनी कानपुर तय हुई है।
मोती: ऐसी बातें कहाँ छुपी रहती है, वकील साहब। शीला के मँगेतर का नाम देवकुमार है शायद या......
दीन: देवकुमार नहीं, देवेन्द्रकुमार।
मोती: देवेन्द्रकुमार होगा। मैंने उसका नाम जल्दी में पढ़ा था।
दीन: पढ़ा था ? कहाँ ?
मोती: चिट्ठी में।
दीन: चिट्ठी में ? किसकी चिट्ठी में ?
मोती: यह बाद में बताऊँगा मैं। मुझे आपसे एक जरूरी बात करनी है।
दीन: कोई कानूनी राय लेनी है ?
मोती: हाँ।
दीन: क्या फिर कोई जुर्म किया है तुमने !
दीन: ख़ून !

मोती: हाँ। उसने मेरी इज़्ज़त पर हाथ मारा था।
दीन: इज़्ज़त ! तुम्हारी इज़्ज़त। कोई दूसरा मज़ाक करो।
वैसे इतना मैं बता दूँ कि मज़ाक करना या सुनना मुझे अच्छा नहीं लगता आजकल।
मोती: एक आवारा की कोई इज़्ज़त नहीं होती !
दीन: तुम्हारे जैसे पेशावर अपराधी की नज़र में भी इज़्ज़त की कोई वकत है !
मोती: है। और पाप की भी।
दीन: बड़ी अजीब-सी बात है।
मोती: आपको ज़रूर अजीब लग रही होगी यह बात। मैं तो इतना जानता हूँ वकील साहब, कि हर शरीफ़ आदमी के दिल में कहीं कोई जानवर छुपा बैठा रहता है, जो मौक़ा मिलते ही बाहर निकल आता है। ठीक इसी तरह बदमाश, आवारा के दिल में कहीं कोई इनसानियत की किरण ज़रूर होती है, जो सही वक़्त पर फूट निकलती है, खासतौर पर ऐसे मौकों पर जब शरीफ़ आदमियों की शराफ़त जवाब दे चुकी होती है।

दीन: काफ़ी समझदारी की बातें कर लेते हो। लेकिन मुझे अफ़सोस है, ऐसी बाते करने के लिए यह यही समय नहीं है। हाँ, तो तुमने ख़ून किया है। मुझे एक-एक करके सारी बातें बताओ कि ख़ून किस तरह हुआ। मैं तुम्हारे बचाव की पूरी कोशिश करूँगा। पर यह ख़ून-वून की बातें धीरे की जानी चाहिए।
मोती: तो आपको भी डर लगता है, ख़ून से ? हर शरीफ़ आदमी तो दो बातों से डरता है, एक तो ख़ून से और दूसरे पुलिस से।

दीन: शायद आज तुम होश में नहीं हो मोती ?
मोती: मेरे होश-हवास बिलकुल सही हैं। आज तो मैंने पी भी नहीं है।
दीन: फिर ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों कर रहे हो ?
मोती: आप इन्हें बहकी-बहकी बातें मानते हैं। मैं तो जीवन का निचोड़ बता रहा हूँ।
दीन: इसके लिए यह सही वक़्त नहीं है, मैंने कहा। तुम मुझे यह बताओ कि क्या तुम मक़तूल को जानते थे।  
मोती: वह मेरी टोली का आदमी था ?
दीन: धन्धा क्या करता था ?

मोती: बड़े घरों की कुआँरी लड़कियों को फँसाना, उनसे अपने नाम प्रेम-पत्र लिखाना, फिर उन्हें ब्लैकमेल करके उनसे पैसा ऐंठना- यही उसका धन्धा रहा है। वह जँचता भी खूब था- एकदम फिल्मी हीरो।
दीन: तुमने वहाँ कोई सबूत तो नहीं छोड़ा ?
मोती: उसकी पतलून की जेब में कुछ चिट्ठियाँ थीं।
दीन: कहीं पुलिस के हाथ लग गयीं तो........
मोती: असली ख़ूनी पकड़ा जायेगा। इसलिए मैंने उसकी जेब से सारी चिट्ठियाँ निकाल लीं।
दीन: कहाँ हैं वे चिट्ठियाँ ?
मोती: सब जला दी मैंने।
दीन: बड़ा अच्छा किया। सारी प्रोब्लम सॉल्व हो गयी।

(शीला का प्रवेश)

शीला: चाय लीजिए। आप लीजिए, डैडी ?
मोती: यहाँ रख दो। शीला, बैठो।
शीला: थैंक्यू। (पॉज़) वह अभी तक नहीं आया, डैडी।
दीन: मालूम नहीं क्या हुआ उसे।
मोती: कौन आनेवाला था ?
दीन: शीला का मित्र।
मोती: कॉलेज का साथी होगा।
दीन: नहीं।

शीला: हाँ। (पॉज़) आपके कुरते पर चाय गिर गयी, डैडी ! ठहरिए मैं साफ़ कर दूँ।
दीन: तुमसे साफ़ नहीं होगी। वैसे भी यह कुरता मैला हो गया है।
मोती: पक्के रंग पर कोई निशान दिखाई नहीं देता।
(व्यंग्य भाव)

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