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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

चौथा बयान


अब हम थोड़ा-सा हाल नानक और उसकी माँ का बयान करते हैं, जो हर तरह से कसूरवार होने पर भी महाराज की आज्ञानुसार कैद किये जाने से बच गये और उन्हें केवल देश निकालने का दण्ड दिया गया।

यद्यपि महाराज ने उन दोनों पर दया की और उन्हें छोड़ दिया, मगर यह बात सर्वसाधारण को पसन्द न आयी। लोग यही कहते रहे कि ‘यह काम महाराज ने अच्छा नहीं किया और इसका नतीजा बहुत बुरा निकलेगा’। आखिर ऐसा ही हुआ, अर्थात् नानक ने इस अहसान को भूलकर फसाद करने और लोगों की जान लेने की कमर बाँधी।

जब नानक की माँ और नानक को देश निकालने का हुक्म हो गया और इन्द्रदेव के आदमी इन दोनों को सरहद के पार करके लौट आये, तब ये दोनों बहुत ही दुःखी और उदास हो एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। उस समय सवेरा हो चुका था और सूर्य की लालिमा पूरब तरफ आसमान पर फैल रही थी।

रामदेई : कहो, अब क्या इरादा है? हम लोग तो बड़ी मुसीबत में फँस गये!

नानक : बेशक, मुसीबत में फँस गये और बिल्कुल कंगाल कर दिये गये। तुम्हारे जेवरों के साथ-ही-साथ मेरे हर्बे छीन लिये गये और हम इस लायक भी न रहे कि किसी ठिकाने पर पहुँचकर रोजी के लिए कुछ उद्योग कर सकते।

रामदेई : ठीक है, मगर मैं समझती हूँ कि अगर हम लोग किसी तरह नन्हों के यहाँ पहुँच जाँयगे तो खाने का ठिकाना हो जायेगा और उससे किसी तरह की मदद भी ले सकेंगे।

नानक : नन्हों के यहाँ जाने से क्या फायदा होगा? वह तो खुद गिरफ्तार होकर कैदखाने की हवा खा रही होगी! हाँ, उसका भतीजा बेशक बचा हुआ है, जिसे उन लोगों ने छोड़ दिया और जो नन्हों की जायजाद का मालिक बन बैठा होगा, मगर उससे किसी तरह की उम्मीद मुझको नहीं हो सकती है।

रामदेई : ठीक है, मगर नन्हों की लौंडियों में से दो-एक ऐसी हैं, जिनसे मुझे मदद मिल सकती है।

नानक : मुझे इस बात की भी उम्मीद नहीं है, इसके अतिरिक्त वहाँ तक पहुँचने के लिए भी तो समय चाहिए, यहाँ तो एक शाम की भूख बुझाने के लिए पल्ले में कुछ नहीं है।

रामदेई : ठीक है, मगर क्या तुम अपने घर भी मुझे नहीं ले जा सकते? वहाँ तो तुम्हारे पास रुपये-पैसे की कमी नहीं होगी!

नानक : हाँ, यह हो सकता है, वहाँ पहुँचने पर फिर मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकती, मगर इस समय तो वहाँ तक पहुँचना भी कठिन हो रहा है। (लम्बी साँस लेकर) अफसोस मेरा ऐयारी का बटुआ भी छीन लिया गया और हम लोग इस लायक भी न रह गये कि किसी तरह सूरत बदलकर अपने को लोगों की आँखों से छिपा लेते।

रामदेई : खैर, जो होना था सो हो गया, अब इस समय अफसोस करने से काम न चलेगा। सब जेवर छिन जाने पर भी मेरे पास थोड़ा-सा सोना बचा हुआ है, अगर इससे कुछ काम चले तो…

नानक : (चौंककर) क्या कुछ है!!

रामदेई : हाँ!

इतना कहकर रामदेई ने धोती के अन्दर छिपी हुई सोने की एक करधनी निकाली और नानक के आगे रख दी।

नानक : (करधनी को हाथ में लेकर) बहुत है, हम दोनों को घर तक पहुँचा देने के लिए काफी है और वहाँ पहुँचने पर किसी तरह की तकलीफ न रहेगी क्योंकि वहाँ मेरे पास खाने-पीने की कमी नहीं है।

रामदेईः तो क्या वहाँ चलकर इन बातों को भूल...

नानक : (बात काटकर) नहीं नहीं, यह न समझना कि वहाँ पहुँचकर हम इन बातों को भूल जाँयगे और बेकार बैठे टुकड़े तोड़ेंगे, बल्कि वहाँ पहुँचकर इस बात का बन्दोबस्त करेंगे कि अपने दुश्मनों से बदला लिया जाय।

रामदेई : हाँ, मेरा भी यही इरादा है, क्योंकि मुझे तुम्हारे बाप की बेमुरौवती का बड़ा रंज है, जिसने हम लोगों को दूध की मक्खी की तरह एकदम निकाल कर फेंक दिया और पिछली मुहब्बत का कुछ खयाल न किया। शान्ता और हरनामसिंह को पाकर ऐंठ गया और इस बात का कुछ भी खयाल न किया कि आखिर नानक भी तो उसका ही लड़का है और वह ऐयारी भी जानता है।

नानक : (जोश के साथ) बेशक, यह उसकी बेईमानी और हरमजदगी है! अगर वह चाहता तो हम लोगों को बचा सकता था।

रामदेई : बचा लेना क्या, यह जोकुछ किया, सब उसी ने तो किया। महाराज ने तो हुक्म दे ही दिया था कि ‘भूतनाथ की इच्छानुसार इन दोनों के साथ बर्ताव किया जाय’।

नानक : बेशक ऐसा ही है! उसी कमबख्त ने हम लोगों के साथ ऐसा सलूक किया। मगर क्या चिन्ता है, इसका बदला लिये बिना मैं कभी न छोड़ूँगा।

रामदेई : (आँसू बहाकर) मगर तेरी बातों पर मुझे विश्वास नहीं होता, क्योंकि तेरा जोश थोड़ी ही देर का होता है।

नानक : (क्रोध के साथ रामदेई के पैरों पर हाथ रखके) मैं तुम्हारे चरणों की कसम खाकर कहता हूँ कि इसका बदला लिये बिना कभी न रहूँगा।

रामदेई : भला मैं भी तो सुनूँ कि तुम क्या बदला लोगे? मेरे खयाल से तो वह जान से मार देने लायक है।

नानक : ऐसा ही होगा, ऐसा ही होगा! जो तुम कहती हो वही करूँगा, बल्कि उसके लड़के हरनामसिंह को भी यमलोक पहुँचाऊँगा!!

रामदेई : शाबाश! मगर मेरा चित्त तब तक प्रसन्न न होगा, जब तक शान्ता का सिर अपने तलवों से न रगड़ने पाऊँगी!

नानक : मैं उसका सिर भी काटकर तुम्हारे सामने लाऊँगा और तब तुमसे आशीर्वाद लूँगा।

रामदेई : शाबाश, ईश्वर तेरा भला करे! मैं समझती हूँ कि इन बातों के लिए तू एक दफे फिर कसम खा, जिससे मेरी पूरी दिलजमई हो जाय।

नानक : (सूर्य की तरफ हाथ उठकर) मैं त्रिलोकीनाथ के सामने हाथ उठकर कसम खाता हूँ कि अपनी माँ की इच्छा पूरी करूँगा और जब तक ऐसा न कर लूँगा, अन्न न खाऊँगा।

रामदेई: (नानक की पीठ पर हाथ फेरकर) बस बस, अब मैं प्रसन्न हो गयी और मेरा आधा दुःख जाता रहा।

नानक : अच्छा तो फिर यहाँ से उठो। (हाथ का इशारा करके) किसी तरह उस गाँव में पहुँचना चाहिए, फिर बन्दोबस्त होता रहेगा।

दोनों उठे और एक गाँव की तरफ रवाना हुए जो वहाँ से दिखाई दे रहा था।

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