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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

पाँचवाँ बयान


पाठक, आपने सुना कि नानक ने क्या प्रण किया? अस्तु, अब यहाँ पर हम यह कह देना उचित समझते हैं कि नानक अपनी माँ को लिये हुए, जब घर पहुँचा तो वहाँ उसने एक दिन के लिए भी आराम न किया।

ऐयारी का बटुआ तैयार करने के बाद, हर तरह का इन्तजाम करके और चार-पाँच शागिर्दों और नौकरों को साथ लेके वह उसी दिन घर के बाहर निकला और चुनार की तरफ रवाना हुआ। जिस दिन कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की बारात निकलनेवाली थी, उस दिन वह चुनार की सरहद में मौजूद था। बारात की कैफियत उसने अपनी आँखों से देखी थी और इस बात की फिक्र में भी लगा हुआ था कि किसी तरह दो-चार कैदियों को कैद से छुड़ाकर अपना साथी बना लेना चाहिए और मौका मिलने पर राजा गोपालसिंह को भी इस दुनिया से उठा देना चाहिए।

अब हम कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल बयान करते हैं।

दोपहर दिन का समय है और सब कोई भोजन इत्यादि से निश्चिन्त हो चुके हैं। एक सजे हुए कमरे में राजा गोपालसिंह और भरतसिंह, कुँअर आनन्दसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह बैठे हुए है हँसी-खुशी की बातें कर रहे हैं।

गोपाल : (भरतसिंह से) क्या मुझे स्वप्न में भी इस बात की उम्मीद हो सकती थी कि आपसे किसी दिन मुलाकात होगी? कदापि नहीं, क्योंकि लोगों के कहने पर मुझे विश्वास हो गया था कि आप जंगल में डाकुओं के हाथ से मारे गये...

भरत : और इसका बहुत बड़ा सबब यह था कि तब तक दारोगा की बेईमानी का आपको पता न लगा था, उसे आप ईमानदार समझते थे और उसी ने मुझे कैद किया था।

गोपाल : बेशक, यही बात है, मगर खैर, ईश्वर जिसका सहायक रहता है, वह किसी के बिगाड़े नहीं बिगड़ सकता। देखिए मायारानी ने मेरे साथ क्या कुछ न किया, मगर ईश्वर ने मुझे बचा लिया और साथ ही इसके बिछुड़े हुओं को मिला दिया!

भरत : ठीक है, मगर मेरे प्यारे दोस्त, मैं कह नहीं सकता कि कमबख्त दारोगा ने मुझे कैसी-कैसी तकलीफें दी हैं और मजा तो यह है कि इतना करने पर भी वह बराबर अपने को निर्दोष ही बताता रहा। अस्तु, जब मैं अपना हाल बयान करूँगा, तब आपको मालूम होगा कि दुनिया में कैसे-कैसे निमकहराम और संगीन लोग रहते हैं और बदों के साथ नेकी करने का नतीजा बहुत बुरा होता है।

गोपाल : ठीक है, ठीक है, इन्हीं बातों को सोचकर भैरोसिंह बार-बार मुझसे कहते हैं कि ‘आपने नानक को सूखा छोड़ दिया सो अच्छा नहीं किया, वह बद है और बदों के साथ नेकी करना वैसा ही है, जैसा नेकों के साथ बदी करना’।

भरत : भैरोसिंह का कहना वाजिब है, मैं उनका समर्थन करता हूँ।

भैरो : कृपानिधान, सच तो यों है कि नानक की तरफ से मुझे किसी तरह की बेफिक्री होती ही नहीं। मैं अपने दिल को कितना समझाता हूँ, मगर वह जरा भी नहीं मानता। ताज्जुब नहीं कि...

भैरोसिंह इतना ही कह ही रहा था कि सामने से भूतनाथ आता हुआ दिखायी पड़ा।

गोपाल : अजी वाहजी भूतनाथ, चार-चार दफे बुलाने पर भी आपके दर्शन नहीं होते!!

भूतनाथ : (मुस्कुराता हुआ) अभी क्या हुआ है, दो-चार दिन बाद तो मेरे दर्शन और भी दुर्लभ हो जाँयगे!

गोपाल : (ताज्जुब से) सो क्या?

भूतनाथ : यही कि मेरा सपूत नानक इस शहर में आ पहुँचा है और मेरी अन्त्येष्टि क्रिया करके बहुत जल्द अपने सिर का बोझ हलका करने की फिक्र में लगा है। (बैठकर) कृपाकर आप भी जरा होशियार रहियेगा!

गोपाल : तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि वह बदनीयती के साथ यहाँ आ गया है!

भूतनाथ : मुझे अच्छी तरह मालूम हो गया है। इसी से तो मुझे यहाँ आने में देर हो गयी, क्योंकि मैं यह हाल कहने और तीन-चार दिन की छुट्टी लेने के लिए महाराज के पास चला गया था, वहाँ से लौटा हुआ आपके पास आ रहा हूँ।

गोपाल : तो क्या महाराज से छुट्टी ले आये?

भूतनाथ : जी हाँ, अब आप से यह पूछना है कि आप अपने लिए क्या बन्दोबस्त करेंगे?

गोपाल : तुम तो इस तरह की बातें करते हो, जैसे उसकी तरफ से कोई बहुत बड़ा तरद्दुद हो गया हो! वह बेचारा कल का लौंडा हम लोगों के साथ क्या कर सकता है?

भूतनाथ : सो तो ठीक है, मगर दुश्मन को छोटा और कमजोर न समझना चाहिए।

गोपाल : तुम्हें ऐसा ही डर है तो कहो बैठे-ही-बैठे चौबीस घण्टे के अन्दर उसे गिरफ्तार कराके तुम्हारे हवाले कर दूँ?

भूतनाथ : यह मुझे विश्वास है और आप ऐसा कर सकते हैं, मगर मुझे यह मंजूर नहीं है, क्योंकि मैं जरा दूसरे ढंग से उसका मुकाबिला किया चाहता हूँ। आप जरा बाप-बेटे की लड़ाई देखिए तो! हाँ, अगर वह आपकी तरफ झुके तो जैसा मौका देखिए, कीजियेगा।

गोपाल : खैर, ऐसा ही सही, मगर तुमने क्या सोचा है, जरा अपना मनसूबा तो सुनाओ!

इसके बाद लोगों में देर तक बातें होती रहीं और दो घण्टे के बाद भूतनाथ उठकर अपने डेरे की तरफ चला गया।

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