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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

सातवाँ बयान


अब हम थोड़ा-सा हाल राजा गोपालसिंह का लिखते हैं। जब वह बरामदे पर से झाँकनेवाला आदमी मायारानी के चलाये हुए तिलिस्मी तमंचे की तासीर से बेहोश होकर नीचे आ गिरा और भीमसेन उसके चेहरे का नकाब हटाने और सूरत देखने पर चौंककर बोल उठा कि ‘वाह वाह' यह तो राजा गोपालसिंह हैं,  तब मायारानी बहुत ही प्रसन्न हुई और भीमसेन से बोली, "बस अब बिलम्ब करना उचित नहीं है, एक ही बार में सिर घड़ से अलग कर देना चाहिए।"

भीमसेन : नहीं, इसे एकदम से मार डालना न होगा, बल्कि कैद करके तिलिस्म का कुछ हाल मालूम करना लाभदायक होगा।

मायारानी : मैंने इसे कैद में रखकर हद्द से ज्यादे तकलीफें दीं, तब तो इसने तिलिस्म का कुछ हाल कहा ही नहीं अब क्या कहेगा, बस इसे मार डालना ही मुनासिब है।

इसके जवाब में इसी बरामदे पर जिस पर से वह आदमी लुढ़ककर नीचे आया था, किसी ने कहा, "तिलिस्म का हाल जानने का शौक अभी तक लगा ही हुआ है? इस बात की खबर नहीं है कि अब तुम लोगों के मरने में केवल सात घण्टे की ही देर रह गयी है।"

सभों ने चौंककर उधर की तरफ देखा और पुनः एक आदमी को उसी बरामदे में टहलता हुआ पाया, मगर अबकी दफे इस आदमी का चेहरा नकाब से खाली था और एक जलती हुई मोमबत्ती बायें हाथ में मौजूद थी, जिससे उसका रोबीला चेहरा साफ-साफ दिखायी दे रहा था कि यह दूसरा आदमी भी राजा गोपालसिंह मालूम होता था। इस कैफियत ने मायारानी का कलेजा हिला दिया और वह डर से काँपती हुई, उसको इस तरह देखने लगी, जैसे कोई ब्याध जंगल में अकस्मात् आ पड़े हुए शेर की तरफ देखता हो।

सभों को अपनी तरफ ताज्जुब के साथ देखते-देख उस आदमी ने पुनः कहा, "न तो वह राजा गोपालसिंह है, और न उनकी जुबानी तिलिस्म का कोई भेद ही तुम लोगों को मालूम हो सकता है। अरे कमबख्त मायारानी तू तो वर्षों मेरे साथ रह चुकी है, क्या तू भी मुझे नहीं पहचानती! राजा गोपालसिंह मैं हूँ या वह है? तू उसके नाटे कद को नहीं देखती? अगर वह गोपालसिंह होता तो क्या उस तिलिस्मी तमंचे की एक गोली खाकर गिर पड़ता! भला मुझ पर एक नहीं पचास गोली चला, देख क्या असर होता है।"

नये गोपालसिंह की इस बात ने मायारानी की रही-सही ताकत भी हवा कर दी और अब उसे अपने सामने मौत की सूरत दिखायी देने लगी। यद्यपि उसने इस गोपालसिंह पर भी तिलिस्मी तमंचा चलाने का इरादा किया था, मगर अब उसके हाथों में इतनी ताकत न रही कि तमंचे में गोली डालकर चला सके। उसी की तरह उसके साथी भी घबड़ाकर इस नये राजा गोपालसिंह की तरफ देखने और मन में सोचने लगे, "व्यर्थ इस मायारानी के फेर में पड़कर यहाँ आये"।

इस नये गोपालसिंह ने पुनः पुकारकर मायारानी से कहा, "हाँ हाँ, सोचती क्या है, तिलिस्मी तमंचा चला और तमाशा देख, या कहे तो मैं स्वयं तेरे पास चला आऊँ! और भीमसेन वगैरह, तुम लोग क्यों इसके फेर में पड़कर अपनी-अपनी जान दे रहे हो! क्या तुम समझ रहे कि यह तिलिस्म की रानी हो जायेगी और तुम्हें अपना हिस्सेदार बना लेगी! कदापि नहीं, अब इसकी जान किसी तरह नहीं बच सकती और मैं अभी नीचे आकर तुम सभों का काम तमाम करता हूँ। हाँ, अगर तुम लोग अपनी जान बचाना चाहते हैं, तो मैं तुम्हें कहता हूँ कि मायारानी का खयाल न करके, उसी इसी जगह छोड़ दो और तुम लोग उस सुफेद संगमरमर के चबूतरे पर भागकर पहिले ही यहाँ से हटकर उस चबूतरे पर चले जाना नहीं तो पछताओगे!"

इतना कहकर नये गोपालसिंह ने मोबमत्ती नीचे फेंक दी, और पीछे की तरफ हटकर उन लोगों की नजरों से गायब हो गये।

अब भीमसेन और माधवी वगैरह को निश्चय हो गया कि मायारानी के किये कुछ न होगा और इसका साथ करके हम लोगों ने व्यर्थ ही अपने को आफत में ला फँसाया। इस तिलिस्मी बाग तथा राजा गोपालसिंह की माया का पता नहीं, अस्तु, अब मायारानी का साथ देना और गोपालसिंह की बात न मानना निःसन्देह अपना गला अपने हाथ से काटना है। इतना सोचते-सोचते ही वे लोग गोपालसिंह के कहे मुताबिक उस संगमरमर के चबूतरे पर चले गये, जो उनसे थोड़ी ही दूर पर उनके पीछे की तरफ पड़ता था।

होना तो ऐसा ही चाहिए था कि गोपालसिंह की बातों से डरकर मायारानी भी उन लोगों के साथ-ही-साथ उसी संगमरमर वाले चबूतरे पर चली जाती, मगर न मालूम क्या सोचकर उसने ऐसा न किया और वहाँ से जाकर उन फौजी सिपाहियों की भीड़ में जा छिपी, जो इस बाग में खड़े हुए, उनकी बातें सुन नहीं सकते थे, मगर ताज्जुब के साथ सबकुछ देख जरूर रहे थे।

वह संगमरमर का चबूतरा जिस पर भीमसेन वगैरह चले गये थे, उनके जाने के थोड़ी ही देर बाद इस तेजी के साथ जमीन के अन्दर धँस गया कि उन लोगों को कूदकर भागने की भी मोहलत न मिली। कुछ देर बाद उन सभों को न मालूम कहाँ उलटकर यह चबूतरा फिर ऊपर चला आया और ज्यों-का-त्यों अपने स्थान पर जम गया।

इस समय केवल सुबह की सुफेदी ही ने चारों तरफ अपना दखल नहीं जमा लिया था, बल्कि आसमान पर पूरब तरफ सूर्य की लालिमा भी कुछ दूर तक फैल चुकी थी, इसलिए उस चबूतरे पर जाने वाले भीमसेन और माधवी वगैरह का जो हाल हुआ वह माधवी के फौजी सिपाहियों ने भी बखूबी देख लिया था अपने मालिक और अपने साथियों की यह दशा देख फौजी सिपाही घबड़ा गये और चाहने लगे कि यदि कहीं रास्ता मिल जाय तो हम लोग यहाँ से भागकर अपनी जान बचावें। उन्हें अपने झुण्ड में मायारानी का आ जाना बहुत बुरा मालूम हुआ और उन्होंने बड़ी बेमुरौवती से कहा, "तुम्हारी ही बदौलत हम लोगों की यह दशा के हुई और हमारे मालिकों पर भी आफत आयी। अस्तु, अब तुम हमारी मण्डली में से चली जाओ, नहीं तो हम लोग  जूते से तुम्हारे सर की खबर लेंगे, तुम्हारे चले जाने बाद हम लोगों पर जोकुछ बीतेगी सह लेंगे।"

अफसोस अपनी करतूतों के कारण आज मायारानी इस दशा को पहुँच गयी कि अपने अदने सिपाहियों की झिड़की सहे और जूतियाँ खाय। सिपाहियों की बात जब मायारानी ने न मानी तो कई सिपाहियों ने जूतियों से उसकी खबर ली और उसी समय ऊपर से किसी के पुकारने की आवाज आयी।

जिस जगह ये सिपाही लोग थे, उससे थोड़ी ही दूर पर एक बुर्ज था। इस समय उसी बुर्ज पर चढ़े हुए राजा गोपालसिंह को उन सिपाहियों ने देखा और मालूम किया कि यह आवाज उन्हीं ने दी थी।

गोपालसिंह की कैफियत देखकर सिपाहियों का कलेजा पहले से ही दहल चुका था। अस्तु, अब इस बात का हौसला न कर सकते थे कि उनका मुकाबला करें। उन्हें देखने के साथ ही उस फौज का अफसर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला, "आज्ञा!"

गोपालसिंह ने कहा, "हम खूब जानते हैं कि तुम लोग बेकसूर और जोकुछ कसूर है, वह तुम्हारे मालिकों का है, सो तुमने देख ही लिया कि वे अपनी सजा को पहुँच गये, अब वे जीते नहीं हैं, जो तुमसे आकर मिलेंगे, अस्तु, अब तुम लोगों को हुक्म दिया जाता है कि तुम लोग अपनी-अपनी जान बचाकर यहाँ से निकल जाओ। यदि तुम्हारी इच्छा हो तो तुम्हारे जाने के लिए दरवाजा खोल दिया जाय और तुम लोग बाग के बाहर होकर जहाँ इच्छा हो चले जाओ। यदि तुम लोग चाहोगे और नेकचलनी का बादा करोगे तो हमारी फौज में तुम लोगों को जगह भी मिल जायेगी।"

फौजी अफसर : (हाथ जोड़े हुए) आप स्वयं राजा हैं और जानते है कि सिपाही लोग तनख्वाह के वास्ते लड़ते हैं। जो राज्य या जमीन के वास्ते लड़े और सिपाहियों को तनख्वाह दे, कसूर उसी का समझा जाता है। हमारे मालिक नादान थे, आपके प्रताप का खयाल न करके मायारानी की बातों में आकर नष्ट हो गये, अब हम लोग आपके आधीन हैं और चाहते हैं कि हम लोग इस कैद से छुटकारा ही नहीं, बल्कि आपके सरकार में नौकरी भी मिले, इस समय हम लोग अपने को आपही का ताबेदार समझते हैं।

गोपाल : अच्छा तो जैसा तुम चाहते हो वैसा ही होगा। इस समय से तुम्हें अपना नौकर समझके हुक्म दिया जाता है कि मायारानी जो तुम लोगों के बीच में चली आयी है, जूतियाँ लगाकर अलग कर दी जाय और लोग (हाथ का इशारा करके) उस तरफ की दीवार के पास चले जाओ। वहाँ तुम्हें एक छोटा-सा दरवाजा खुला हुआ दिखायी देगा, बस उसी राह से तुम लोग बाहर चले जाना और किसी ठिकाने, मैदान में डेरा जमाना। हमारा राजदीवान स्वयं तुम्हारे पास पहुँचकर सब इन्तजाम कर देगा। मगर खबरदार, इस बात का खूब खयाल रखना कि मायारानी तुम लोगों के साथ बाहर न जाने पावे और तुम लोगों में से एक आदमी भी उसका साथ न दे।

फौजी अफसर : जो हुक्म!

मायारानी बेइज्जत हो ही चुकी थी, मगर फिर भी दूर खड़ी यह सब कार्रवाई देख और बातें सुन रही थी। उसे इन सिपाहियों की नमकहरामी पर बड़ा क्रोध आया और वह वहाँ से भागकर पश्चिम की तरफवाले दालान में चली गयी, तथा एक कोठरी के अन्दर घुसकर गायब हो गयी। शायद इस कोठरी में कोई तहखाना या रास्ता था, जिसका हाल उसे मालूम था। उसी राह से होकर वह मकान की दूसरी मंजिल पर चली गयी और उसी जगह से छिपकर तिलिस्मी तमंचे की गोली उन फौजी सिपाहियों पर चलाने लगी, जो राजा गोपालसिंह की आज्ञानुसार दरवाजे की तरफ जा रहे थे इन गोलियों की ताशीर का हाल हम पहिले कई जगह लिख आये हैं और बता आये हैं कि इन गोलियों में से निकला हुआ धुआँ आला दर्जे की बेहोशी का असर बात-की-बात में पैदा करता था। अस्तु, बेचारे सिपाहियों को दरवाजे तक पहुँचने की भी मोहलत न मिली और तीन-ही-चार गोलियों में से निकले धूएँ ने उन सभों को बेहोश करके जमीन पर लिटा दिया।

अपनी इस कार्रवाई को देखकर मायारानी बहुत प्रसन्न हुई, मगर उसकी प्रसन्नता ज्यादा देर तक कायम न रही, क्योंकि उसी समय उसने राजा गोपालसिंह को उन सिपाहियों की तरफ जाते देखा। वह ताज्जुब में आकर उसी जगह खड़ी देखने लगी कि अब क्या होता है। उसने देखा कि राजा गोपालसिंह ने उन सिपाहियों के मध्य पहुँचकर एक गोला जमीन पर पटका, जो गिरते ही भारी आवाज के साथ फूट गया और उसमें से इतना ज्यादा धुआँ निकला कि उसने क्रमशः फैलकर हर तरफ से उन सिपाहियों को घेर लिया और फिर हलका होकर आसमान की तरफ उठ गया। उस धुएँ की ताशीर से सब सिपाहियों की बेहोशी जाती रही और वे लोग उठकर ताज्जुब के साथ एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। सिपाहियों के अफसर ने राजा गोपालसिंह को मौजूद पाया और निगाह पड़ते ही हाथ जोड़कर बोला, "आपने तो हम लोगों को बाहर चले जाने की आज्ञा दे दी थी, फिर हम लोग बेहोश क्यों कर दिये गये।"

इसके जवाब में गोपलसिंह ने कहा, "तुम लोगों को हमने नहीं, बल्कि कमबख्त मायारानी ने बेहोश किया था, हमने यहाँ पहुँचकर तुम लोगों की बेहोशी दूर कर दी, अब तुम लोग एक सायत भी विलम्ब न करो और शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ।"

उस अफसर ने झुककर सलाम किया और अपने साथियों को कुछ इशारा करके वहाँ से चल पड़ा। यह हाल देख मायारानी ने पुनः तिलिस्मी चमंचे की गोलियाँ उन लोगों पर चलायीं, मगर इसका असर कुछ भी न हुआ और वे सब सिपाही राजा गोपालसिंह की बदौलत थोड़ी ही देर में इस तिलिस्मी बाग के बाहर हो गये। फिर मायारानी को यह भी मालूम न हुआ कि राजा गोपालसिंह कहाँ गये और क्या हुए।

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