मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 5 चन्द्रकान्ता सन्तति - 5देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...
आठवाँ बयान
वास्तव में भूतनाथ का हाल बड़ा ही विचित्र है। अभी तक उसका असल भेद खुलने में नहीं आता। वह जहाँ जाता है, वहाँ ही एक विचित्र घटना देखने में आती है, जिससे मिलता है, उसी में एक नयी बात पैदा होती है, और जब जोकुछ करता है, उसी में एक अनूठापन मालूम होता है। इस समय वह बलभद्रसिंह के साथ चुनारगढ़ वाले तिलिस्म में मौजूद है, और वह पहुँचने के साथ ही वह सुन चुका है कि राजा बीरेन्द्रसिंह भी इस जगह आने वाले हैं। बीरेन्द्रसिंह को तो आये हुए आज कई दिन हो चुके होते, मगर उन्होंने जान-बूझकर रास्ते में बहुत देर लगा दी। नकली किशोरी, कामिनी और कमला के क्रिया-कर्म का बखेड़ा (जिसका करना लोगों को धोखे में डालने के लिए आवश्यक था) चुनारगढ़ में ले जाना उन्होंने पसन्द न किया, बल्कि रास्ते ही में निपटा डालना उचित जाना, इसलिए पन्द्रह-बीस दिन की देर उन्हें रास्ते ही में हो गयी और इसी से वहाँ पहुँच जाने पर भूतनाथ ने सुना कि राजा बीरेन्द्रसिंह कल आनेवाले हैं।
उस खँडहर में पहुँचने पर रात के समय भूतनाथ ने जो कुछ तमाशा देखा था, उसका विचित्र हाल तो ऊपर के किसी बयान में लिख ही चुके हैं, आज इसी के आगे के हाल लिखकर हम पाठकों के चित्त में भूतनाथ की तरफ से पुनः एक तरह खुटका पैदा किया चाहते हैं।
बलभद्रसिंह ने जब अपने सिरहानेवाला लिफाफा उठाकर शमादान के सामने खोला तो उसके अन्दर से एक अँगूठी निकली, जिसे देखते ही वह चिल्ला उठा और तब बिना कुछ कहे अपनी चारपाई पर आकर बैठ गया। भूतनाथ ने उससे पूछा, "क्यों यह अँगूठी कैसी है और इसे देखकर तुम घबड़ा क्यों गये?"
बलभद्र : इस अँगूठी ने मुझे कई ऐसी बातें याद दिला दी, जिन्हें स्वप्न की तरह कभी-कभी याद करके मैं चौंक पड़ता था, मगर आज नहीं फिर कभी मैं इसका खुलासा हाल तुमसे कहूँगा।
भूतनाथ : भला देखो तो सही उस लफाफे के अन्दर कोई चीठी भी है या केवल यह अँगूठी ही थी।
बलभद्र : (लिफाफा भूतनाथ के हाथ में देकर) लो, तुम्हीं देखो।
भूतनाथ : (शमादान के पास लिफाफा ले जाकर और उसे अच्छी तरह देखकर) हाँ हाँ, इसमें चीठी भी तो है।
बलभद्र : (भूतनाथ के पास जाकर) देखें।
भूतनाथ ने वह चीठी बलभद्रसिंह के हाथ में दी और बलभद्रसिंह ने बड़े शौक, से उसे पढ़ा, यह लिखा हुआ था—
"यह अँगूठी देकर तुम्हें विश्वास दिलाते हैं कि तुम हमारे हो और हम तुम्हारे हैं। भूतनाथ को अपना सच्चा सहायक समझो और जोकुछ वह कहे, उसे, करो। भूतनाथ यह नहीं जानता कि हम कौन हैं, मगर हम कल उससे मिलकर अपना परिचय देंगे और जोकुछ कहना होगा कहेंगे।"
इस चीठी को पढ़कर दोनों के जी में एक तरह का खुटका पैदा हो गया, और बिना कुछ विशेष बातचीत किये दोनों अपनी-अपनी चारपाई पर जाकर लेट रहे मगर बची हुई रात दोनों ने अपनी आँखों में ही काटी, किसी को नींद न आयी।
दूसरे दिन सवेरे ही पन्नालाल उन दोनों के पास पहुँचे और रात-भर का कुशल-मंगल पूछा। दोनों ही ने दुनियादारी के तौर पर कुशल-मंगल कहकर बातचीत की, मगर रात के विचित्र हाल को अपने दिल के अन्दर ही छिपा रक्खा।
दिन-भर इन दोनों का बड़े चैन और आराम से बीता। जीतसिंह से भी मुलाकात और कई तरह की बातें हुईं, मगर जीतसिंह और उनकी आज्ञानुसार किसी ऐयार ने भी न दोनों से मुकदमे की बात या किसी तरह का सवाल न किया, क्योंकि यह बात पहिले से ही तय पा चुकी थी कि बिना राजा बीरेन्द्रसिंह के आये इस बारे में किसी तरह की बातचीत भूतनाथ से न की जायगी।
आज किसी समय राजा बीरेन्द्रसिंह के आने की खबर थी, मगर वे न आये। सन्ध्या के समय हरकारे ने आकर जीतसिंह को खबर दी कि राजा साहब कल सन्ध्या के समय यहाँ आवेंगे, भूतनाथ और बलभद्रसिंह के आने की खबर उन्हें हो गयी है।
सन्ध्या होने के साथ ही भूतनाथ और बलभद्रसिंह के दिल में धुकधुकी पैदा हो गयी कि देखा चाहिए कि आज की रात कैसी गुजरती है, तिलस्मी चबूतरे के अन्दर से कौन निकलता है, और क्या कहता है।
रात आधी से ज्यादे जा चुकी है, कल की तरह आज भी इस लम्बे चौड़े मकान के अन्दर सन्नाटा छाया हुआ है। भूतनाथ और बलभद्रसिंह अपनी-अपनी चारपाई पर लेटे हुए हैं, मगर नींद किसी की आँखों में नहीं है और दोनों का ध्यान उसी तिलिस्मी चबूतरे की तरफ है। कल की तरह आज भी उस चबूतरे वाले दालान में कन्दील जल रही है, जिसके सबब से वह पत्थरवाला चबूतरा साफ दिखायी दे रहा है।
भूतनाथ ने देखा कि कल की तरह आज भी इस पत्थरवाले चबूतरे का दरवाजा खुला और उसके अन्दर से एक आदमी स्याह लबादा ओढ़े हुए निकला। धीरे-धीरे धूमता-फिरता वह उस कमरे के दरवाजे पर पहुँचा, जिसमें भूतनाथ और बलभद्रसिंह आराम कर रहे थे। कमरे का दरवाजा खुलने के साथ ही वे दोनों उठ बैठे और उस आदमी को कमरे के अन्दर पैर रखते हुए देखा।
उस आदमी ने हाथ के इशारे से बलभद्रसिंह को बैठाने के लिए कहा और भूतनाथ को अपने पास बुलाया। भूतनाथ चारपाई के नीचे उतर पड़ा, और अपना तिलिस्मी खंजर जो खूँटी के साथ लटक रहा था, लेकर उस आदमी के पास गया। वह आदमी भूतनाथ को अपने साथ कमरे के बाहर वाले दालान में ले गया और वहाँ से सीढ़ी की राह नीचे उतरने के लिए कहा। भूतनाथ भी चुपचाप उनके साथ नीचे चला गया।
यहाँ भी एक कन्दील जल रही थी और चारों तरफ सन्नाटा था। उस आदमी ने अपना चेहरा खोल दिया और भूतनाथ को अपनी तरफ अच्छी तरह देखने के लिए कहा। भूतनाथ सूरत देखते ही चौंक पड़ा और बोला—"हाँ, यह किसकी सूरत देख रहा हूँ! क्या धोखा तो नहीं है!"
आदमी : नहीं नहीं, कोई धोखा नहीं है, ‘मेमकुलचे' कहने से शायद तुम्हारा शक जाता रहेगा।
भूतनाथ : हाँ, अब मेरा शक जाता रहा, मगर आप यहाँ कहाँ? क्या मुझे किसी तरह का विचित्र हुक्म दिया जायगा? या मुझे राजा साहब से माफी माँगने की मोहलत ही न मिलेगी?
आदमी : हाँ, तुम्हें एक विचित्र हुक्म दिया जायगा, मगर यह बताओ कि राजा साहब के बारे में तुमने क्या सुना है! वे कब तक यहाँ आयेगें!
भूतनाथ : राजा बीरेन्द्रसिंह कल यहाँ अवश्य आ जायेंगे, आज हरकारे ने आकर यह पक्की खबर जीतसिंह को दी है!
आदमी : (कुछ सोचकर) यह तो बड़ी मुश्किल हुई, हमारे लिए नहीं, बल्कि तुम्हारे लिए।
भूतनाथ : (काँपकर) सो क्या! मैंने अब कौन सा नया अपराध किया है?
आदमी : नया अपराध किया तो नहीं, मगर करना पड़ेगा।
भूतनाथ : नहीं नहीं, मैं अब कोई अपराध न करूँगा, जोकुछ कर चुका हूँ उसी का कलंक मिटाना मुश्किल हो रहा है।
आदमी : मगर क्या किया जाय, लाचारी है, अपराध तो करना ही होगा और सो भी इसी समय।
भूतनाथ : (कुछ सोचकर) भला यह तो बताइए कि वह अपराध है क्या और मुझे क्या करना होगा।
आदमी : यह तो जानते ही हो कि बलभद्रसिंह हमारा है।
भूतनाथ : जी हाँ, मगर इस समय तो मेरी जान बचानेवाला है।
आदमी : बेशक।
भूतनाथ : तब आप क्या चाहते हैं?
आदमी : यही कि इस समय बलभद्रसिंह को बेहोश करके हमारे हवाले कर दो। हम तो उसे कल ही उठा ले गये होते, मगर कल हमें निश्चय हो गया था कि तुम जाग रहे हो और लड़ने के लिए अवश्य तैयार हो जाओगे, इसलिए सोचा कि पहिले तुम्हें अपना परिचय दे लें तब यह काम करें, जिसमें तुम्हारा दिल भी खुटके में न रहे।
भूतनाथ : मगर यह तो बड़ी मुश्किल होगी। अच्छा कल राजा बीरेन्द्रसिंह से उनकी मुलाकात करा लेने दीजिए।
आदमी : यह नहीं हो सकता है, उन्हें हम आज ही ले जायेंगे नहीं तो हमारा बहुत हर्ज होगा और उस हर्ज में तुम्हारा भी नुकसान है।
भूतनाथ : हाय, नुकसान और दुःख भोगने के लिए तो मैं पैदा ही हुआ हूँ! न जाने मेरी किस्मत में निश्चिन्त होना भी बदा है या नहीं। राजा बीरेन्द्रसिंह सुन चुके हैं कि भूतनाथ बलभद्रसिंह को छुड़ा लाया है, अब अगर इस समय आप उन्हें ले जायेंगे और कल राजा बीरेन्द्रसिंह उन्हें मुझसे माँगेंगे तो क्या जवाब दूँगा?
आदमी : कह देना कि मैं रात को सोया हुआ था न मालूम बलभद्रसिंह कहाँ चले गये, मुझे कुछ खबर नहीं, आप अपने पहरेवालों से पूछिए।
भूतनाथ : हाँ, यदि आप न मानेंगे तो ऐसा ही करना पड़ेगा।
आदमी : तो बस अब बिलम्ब न करो, झटपट जाओ और उन्हें बेहोश करके हमारे पास ले आओ।
भूतनाथ : जिस समय मैंने बलभद्रसिंह को छुड़ाया था, उस समय उन्हें विश्वास नहीं होता था। कि मैं उनके साथ नेकी कर रहा हूँ, बड़ी मुश्किल से तो उन्हें विश्वास दिलाया। इस समय आप जानते हैं कि वे भी जाग रहे हैं, आप खुद ही उन्हें बैठे रहने के लिये कह आये हैं, अब मैं जबर्दस्ती बेहोश करूँगा तो उनके दिल में क्या आवेगा! क्या वह यह नहीं समझेंगे कि भूतनाथ ने नेकनीयती के साथ मेरी जान नहीं बचायी थी!
आदमी : अगर ऐसा समझेंगे तो समझे, तुम सोच क्या रहे हो! क्या मेरा हुक्म न मानोगे?
भूतनाथ : मेरी क्या मजाल जो आपका हुक्म न मानूँ।
इतने ही में उसी तरह का स्याह लबादा ओढ़े और भी एक आदमी वहाँ आ पहुँचा। भूतनाथ समझ गया कि वह आदमी इसी का साथी है और कल भी यहाँ आया था। इस नये आये हुए आदमी ने पहिले आदमी से खास बोली (भाषा) में कुछ बातचीत की, जिसे भूतनाथ कुछ भी न समझ सका, इसके बाद उसने परदा हटाके अपनी सूरत भूतनाथ को दिखा दी।
अब भूतनाथ के ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा और वह एकदम घबड़ाके बोला, "नहीं नहीं, मैं जागता नहीं हूँ, बल्कि जोकुछ देख रहा हूँ, सब स्वप्न है।"
दूसरा आदमी : भूतनाथ तुम पागल हो गये हो।
भूतनाथ : बेशक यही बात है, या तो मैं स्वप्न देख रहा हूँ या पागल हो गया हूँ।
पहिला आदमी : न तो तुम स्वप्न देख रहे हो और न पागल ही हो गये हो, जोकुछ देख सुन रहे हो सब ठीक है। अच्छा अब तुम हम लोगों के साथ आओ, किसी दूसरी जगह अँधेरे में खड़े होकर बातचीत करेंगे, यहाँ केवल इसलिए खड़े हो गये थे कि तुम्हें अपनी सूरत दिखा दें।
इतना कहकर वे दोनों आदमी भूतनाथ का हाथ पकड़े हुए दूसरे दालान में चले गये, जहाँ बिल्कुल अन्धकार था और यहाँ बातचीत करने लगे। इस जगह उन तीनों में जोकुछ बातें हुई, वह ऐयारी भाषा में हुईं इसलिए लिख न सके, मगर आगे चलकर इस बातों का जोकुछ नतीजा निकलेगा पाठकों को मालूम हो जायगा। हाँ, इतना कह देना जरूरी है कि डेढ़-घण्टे तक उन तीनों में खूब बातें होती रहीं, इस बीच में दो दफे भूतनाथ के बड़े जोर से हँसने की आवाज आयी, ताज्जुब नहीं कि वह आवाज बलभद्रसिंह के कानों तक भी पहुँची हो। इसके बाद भूतनाथ वहाँ से रवाना होकर बलभद्रसिंह के पास आया, देखा कि अभी तक वह बैठे हुए हैं और भूतनाथ का इन्तजार कर रहे हैं।
भूतनाथ को देखते ही बलभद्रसिंह बोले, "आओ आओ भूतनाथ, मेरे पास बैठ जाओ और बताओ कि क्या हुआ! वह आदमी कौन था जो तुम्हें ले गया था?"
"मैं सब विचित्र हाल आपसे कहता हूँ।" यह कहता हुआ भूतनाथ बलभद्रसिंह के पास बैठ गया, मगर इस तरह पर सटकर बैठा कि उसकी कमर में लगा तिलिस्मी खंजर बलभद्रसिंह के बदन के साथ छू गया और वह उसी समय काँपकर बेहोश हो गये।
बलभद्रसिंह के बेहोश हो जाने बाद भूतनाथ ने उनकी गठरी बाँधी और नीचे उतारकर दोनों विचित्र आदमियों के पास ले गया। उन दोनों ने उसे तिलिस्मी चबूतरे के पास पहुँचा देने के लिए कहा और भूतनाथ उसे तिलिस्मी चबूतरे के पास ले गया, तब वे दोनों आदमी बलभद्रसिंह को लेकर चबूतरे के अन्दर चले गये, चबूतरे का पल्ला बन्द हो गया और भूतनाथ कुछ सोचता-विचारता अपनी चारपाई पर आकर लेट रहा।
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