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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

छठवाँ बयान


इन्द्रानी और आनन्दी के चले जाने के बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह और भैरोसिंह में यों बातचीत होने लगी—

इन्द्रजीत : (भैरो से) असल बात जो कुछ इन्द्रानी से पूछा चाहता था, उसका मौका तो अभी तक मिला ही नहीं।

भैरो : यही कि तुम कौन और कहाँ की रहने वाली हो इत्यादि...

इन्द्रजीत : हाँ, और किशोरी, कामिनी इत्यादि कहाँ हैं, तथा उनसे मुलाकात क्योंकर हो सकती है?

आनन्द : (भैरो से) इस बात का कुछ पता तो शायद तुम भी दे सकोगे, क्योंकि हम लोगों के पहिले तुम इन्द्रानी को जान चुके हो और कई ऐसी जगहों में भी घूम चुके हो, जहाँ हम लोग अभी तक नहीं गये हैं।

इन्द्रजीत : हाँ, पहिले तुम अपना हाल तो कहो!

भैरो : सुनिए—अपना बटुआ पाने की उम्मीद में जब मैं उस दरवाजे के अन्दर गया तो जाते ही मैंने उन दोनों को ललकारके कहा ‘मैं भैरोसिंह स्वयं आ पहुँचा।' इतने ही में दरवाजा जिस राह से मैं उस कमरे में गया था, बन्द हो गया। यद्यपि उस समय मुझे एक प्रकार का भय मालूम हुआ, परन्तु बटुए के लाचच ने मुझे उस तरफ देर तक ध्यान न देने दिया और मैं सीधा उस नकाबपोश के पास चला गया, जिसकी कमर में मेरा बटुआ लटक रहा था।

मैं समझे हुए था कि ‘पीला मकरन्द' अर्थात् पीली पोशाकवाला नकाबपोश स्याह नकाबपोश का दुश्मन तो है ही, अतएव स्याह नकाबपोश का मुकाबला करने में पीले मकरन्द से मुझे कुछ मदद अवश्य मिलेगी, मगर मेरा खयाल गलत था। मेरा नाम सुनते ही वे दोनों नकाबपोश मेरे दुश्मन हो गये और यह कहकर मुझसे लड़ने लगे कि ‘यह ऐयारी का बटुआ अब तुम्हें नहीं मिल सकता, यह रहेगा तो हम दोनों में से किसी एक के पास ही रहेगा'।

परन्तु मैं इस बात से भी हताश न हुआ। मुझे उस बटुए की लालच ऐसी कम न थी कि उन दोनों के धमकाने से डर जाता और अपने बटुए के पाने से नाउम्मीद होकर अपने बचाव की सूरत देखता, इसके अतिरिक्त आपका तिलिस्मी खंजर मुझे हताश नहीं होने देता था। अस्तु मैं उन दोनों के वारों का जवाब उन्हें देने और दिल खोलकर लड़ने लगा, अस्तु थोड़ी ही देर में विश्वास कर दिया कि राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का मुकाबला करना हँसी-खेल नहीं है।*(* बहुत ठीक, सत्य वचन!)

थोड़ी देर तक तो दोनों नकाबपोश मेरा वार बहुत अच्छी तरह बचाते चले गये, मगर इसके बाद जब उन दोनों ने देखा कि अब उनमें वार बचाने की कुदरत नहीं रही और तिलिस्मी खंजर जिस जगह बैठ जायगा, दो टुकड़े किये बिना न रहेगा, तब पीले मकरन्द ने ऊँची आवाज में कहा, "भैरोसिंह ठहरो-ठहरो, जरा मेरी बात सुन लो, तब लड़ना। ओ स्याह नकाबवाले, क्यों अपनी जान का दुश्मन बन रहा है? जरा ठहर जा और मुझे भैरोसिंह से दो-दो बातें कर लेने दे।"

पीले मकरन्द की बात सुनकर स्याह नकाबपोश ने और साथ ही मैंने भी लड़ाई से हाथ खैंच लिया, मगर तिलिस्मी खंजर की रोशनी को कम होने न दिया, इसके बाद पीले मकरन्द ने मुझसे पूछा, "तुम हम लोगों से क्यों लड़ रहे हो?"

मैं : (स्याह नकाबपोश की तरफ बताकर) इसके पास मेरी ऐयारी का बटुआ है, जिसे मैं लिया चहता हूँ।

पीला मकरन्द : तो मुझसे क्यों लड़ रहे हो?

मैं : मैं तुमसे नहीं लड़ता, बल्कि तुम मुझसे खुद ही लड़ रहे हो!

पीला मकरन्द : (स्याह नकाबपोश से) क्यों, अब क्या इरादा है, इनका बटुआ खुशी से इन्हें दे दोगे या लड़कर अपनी जान दोगे?

स्याह नकाबपोश : जब बटुए का मालिक स्वयं आ पहुँचा है तो बटुआ देने में मुझे क्योंकर इन्कार हो सकता है? हाँ, यदि ये न आते तो मैं बटुआ कदापि न देता।

पीला मकरन्द : जब ये न आते तो मैं भी देख लेता कि तुम वह बटुआ मुझे कैसे नहीं देते, खैर, अब इनका बटुआ इन्हें दे दो और पीछा छुड़ाओ!

स्याह नकाबपोश ने बटुआ खोलकर मेरे आगे रख दिया और कहा, "अब तो मुझे छुट्टी मिली?" इसके जवाब में मैंने कहा, "नहीं, पहिले मुझे देख लेने दो कि मेरी अनमोल चीजें इसमें हैं या नहीं।"

मैंने उस बटुए के बन्धन पर निगाह पड़ते ही पहिचान लिया कि मेरे हाथ की दी हुई गिरह ज्यों-की-त्यों मौजूद है, तथापि होशियारी के तौर पर बटुआ खोलकर देख लिया और जब निश्चय हो गया कि मेरी सब चीजें इसमें मौजूद हैं, तो खुश होकर बटुआ कमर में लगाकर स्याह नकाबपोश से बोला, "अब मेरी तरफ से तुम्हें छुट्टी है, मगर यह तो बता दो कि कुमार के पास किस राह से जा सकता हूँ।" इसका जवाब स्याह नकाबपोश ने यह दिया कि ‘यह सब हाल मैं नहीं जानता, तुम्हें जो कुछ पूछना है पीले मकरन्द से पूछ लो'।

इतना कहकर स्याह नकाबपोश न जाने किधर चला गया और मैं पीले मकरन्द का मुँह देखने लगा। पीले मकरन्द ने मुझसे पूछा, "अब तुम क्या चाहते हो?"

मैं : अपने मालिक के पास जाना चाहता हूँ!

पीला मकरन्द : तो जाते क्यों नहीं?

मैं : क्या उस दरवाजे की राह जा सकूँगा, जिधर से आया था?

पीला मकरन्द : क्या तुम देखते नहीं कि वह दरवाजा बन्द हो गया है और अब तुम्हारे खोलने से नहीं खुल सकता!

मैं : तब मैं क्योंकर बाहर जा सकता हूँ?

इसके जवाब में पीले मकरन्द ने कहा, "तुम मेरी सहायता के बिना यहाँ से निकलकर बाहर नहीं जा सकते, क्योंकि रास्ता बहुत कठिन और चक्करदार है, खैर, तुम मेरे पीछे-पीछे चले आओ मैं तुम्हें यहाँ से बाहर कर दूँगा।"

पीले मकरन्द की बात सुनकर मैं उसके साथ-साथ जाने के लिए तैयार हो गया, मगर फिर भी अपना दिल भरने के लिए मैंने एक दफे उस दरवाजे को खोलने का उद्योग किया, जिधर से उस कमरे में गया था। जब वह न खुला तब लाचार होकर मैंने पीले मकरन्द का सहारा लिया, मगर दिल में इस बात का खयाल जमा रहा कि कहीं वह मेरे साथ दगा न करे।

पीले मकरन्द ने चिराग उठा लिया और मुझे अपने पीछे-पीछे आने के लिए कहा तथा मैं तिलिस्मी खंजर हाथ में लिये हुए उसके साथ रवाना हुआ। पीले मकरन्द ने विचित्र ढंग से कई दरवाजे खोले और मुझे कई कोठरियों में घुमाता हुआ मकान के बाहर ले गया। मैं तो समझे हुए था कि अब उसके पास पहुँचा चाहता हूँ, मगर जब बाहर निकलने पर देखा तो अपने को किसी और मकान के समाने पाया। चारों तरफ सुबह की सुफेदी अच्छी तरह फैल चुकी थी और मैं ताज्जुब की निगाहों से चारों तरफ देख रहा था। उस समय पीले मकरन्द ने मुझे उस मकान के अन्दर चलने के लिए कहा, "मगर इस जगह वह स्वयं पीछे हो गया और मुझे आगे चलने के लिए बोला। उसकी इस बात से मुझे शक पैदा हुआ, मैंने उससे कहा कि ‘जिस तरह अभी तक तुम मेरे आगे-आगे चलते आये हो उसी तरह अब भी इस मकान के अन्दर क्यों नहीं चलते? मैं तुम्हारे पीछे-पीछे चला चलूँगा'। इसके जवाब में पीले मकरन्द ने सिर हिलाया और कुछ कहा ही चाहता था कि मेरे पीछे की तरफ से आवाज आयी, ‘ओ भैरोसिंह, खबरदार! इस मकान के अन्दर पैर न रखना और इस पीले मकरन्द को पकड़ रखना, भागने न पावे! '

मैं घूमकर पीछे की तरफ देखने लगा कि यह आवाज देनेवाला कौन है। इतने में ही इस इन्द्रानी पर मेरी निगाह पड़ी, जो तेजी के साथ चलकर मेरी तरफ आ रही थी। पलटकर मैंने पीले मकरन्द की तरफ देखा तो उसे मौजूद न पाया, न मालूम वह यकायक क्योंकर गायब हो गया। जब इन्द्रानी मेरे पास पहुँची तो उसने कहा, "तुमने बड़ी भूल की जो उस शैतान मकरन्द को पकड़ न लिया। उसने तुम्हारे साथ धोखेबाजी की। बेशक वह तुम्हारे बटुए की लालच में तुम्हारी जान लिया चाहता था। ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि मुझे खबर लग गयी और मैं दौड़ी हुई यहाँ तक चली आयी। वह कमबख्त मुझे देखते ही भाग गया।"

इन्द्रानी की बात सुनकर मैं ताज्जुब में आ गया और उसका मुँह देखने लगा। सबसे ज्यादे ताज्जुब तो मुझे इस बात का था कि इन्द्रानी जैसी खूबसूरत और नाजुक औरत को देखते ही वह शैतान मकरन्द भाग क्यों गया। इसके अतिरिक्त देर तक तो मैं इन्द्रानी की खूबसूरती ही को देखता रह गया। (मुस्कुराकर) माफ कीजिए बुरा न मानियेगा, क्योंकि मैं सच कहता हूँ इन्द्रानी को मैंने किशोरी से भी बढ़कर खूबसूरत पाया। सुबह के सुहावने समय में उसका चेहरा दिन की तरह चमक रहा था।

इन्द्रजीत : यह तुम्हारी खुशनसीबी थी कि सुबह के वक्त ऐसी खूबसूरत औरत का मुँह देखा।

भैरो : उसी का यह फल मिला कि जान बच गयी और आपसे मिल सका।

इन्द्रजीत : खैर,  तब क्या हुआ!

भैरो : मैंने धन्यवाद देकर इन्द्रानी से पूछा कि ‘तुम कौन हो और यह मकरन्द कौन था'? इसके जवाब में इन्द्रानी ने कहा कि ‘यह तिलिस्म है, यहाँ के भेद को जानने का उद्योग न करो, जोकुछ आप-से-आप मालूम होता जाय उसे समझते जाओ। इस तिलिस्म में तुम्हारे दोस्त और दुश्मन बहुत हैं, अभी तो आये हो, दो-चार दिन में बहुत-सी बातों का पता लग जायेगा, हाँ, अपने बारे में मैं इतना जरूर कह दूँगी कि इस तिलिस्म की रानी हूँ, और तुम्हें तथा दोनों कुमारों को अच्छी तरह जानती हूँ'।

इन्द्रानी इतना कहके चुप हो गयी और पीछे की तरफ देखने लगी। उसी समय और भी चार-पाँच औरतें वहाँ आ पहुँची, जो खूबसूरत, कमसिन और अच्छे गहने-कपड़े पहिरे हुए थीं। मैंने किशोरी, कामिनी बगैरह का हाल इन्द्रानी से पूछना चाहा, मगर उसने बात करने की मोहलत न दी, और यह कहकर मुझे एक औरत के सुपुर्द कर दिया कि ‘यह तुम्हें कुँअर इन्द्रजीतसिंह के पास पहुँचा देगी'। इतना कहकर बाकी औरतों को साथ लिये हुए इन्द्रानी चली गयी और मुझे तरद्दुद में छोड़ गयी। अन्त में उसी औरत की मदद से मैं यहाँ तक पहुँचा।

इन्द्रजीत : आखिर, उस औरत से भी तुमने कुछ पूछा या नहीं?

भैरो : पूछा तो बहुत कुछ, मगर उसने जवाब एक बात का भी न दिया मानो वह कुछ सुनती ही न थी। हाँ, एक बात तो मैं कहना भूल ही गया।

इन्द्रजीत : वह क्या?

भैरो : इन्द्रानी के चले जाने बाद जब मैं उस औरत के साथ इधर आ रहा था, तब रास्ते में एक लपेटा हुआ कागज मुझे मिला जो जमीन पर इस तरह पड़ा हुआ था, जैसे किसी राह चले की जेब से गिर गया हो। (कमर से कागज निकालकर और कुँअर इन्द्रजीतसिंह के हाथ में देकर) लीजिए पढ़िए, मैं तो इसे पढ़कर पागल-सा हो गया था।

भैरोसिंह के हाथ से कागज लेकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने पढ़ा और उसे अच्छी तरह देखकर भैरोसिंह से कहा, "बड़े आश्चर्य की बात है, मगर यह हो नहीं सकता, क्योंकि हमारा दिल हमारे कब्जे में नहीं है, और न हम किसी के आधीन है।"

आनन्द : भैया जरा मैं भी देखूँ यह कागज किसका है, और इसमें क्या लिखा है?

इन्द्रजीत : (वह कागज देकर) लो देखो।

आनन्द : (कागज पड़कर और उसे अच्छी तरह देखकर) यह तो अच्छी जबर्दस्ती है, मानों हम लोग कोई चीज ही नहीं हैं। (भैरोसिंह से) जिस समय यह चीठी तुमने जमीन से उठायी थी, उस समय उस औरत ने भी देखा या तुमसे कुछ कहा था कि नहीं जो तुम्हारे साथ थी?

भैरो : उसे इस बात की कुछ भी खबर नहीं थी, क्योंकि वह मेरे आगे आगे चल रही थी। मैंने जमीन पर से चीठी उठायी भी और पढ़ी भी, मगर उसे कुछ भी मालूम न हुआ। मुझे तो शक होता है कि वह गूँगी और बहरी अथवा हद्द से ज्यादे सूधी और बेवकूफ थी।

आनन्द : इस पर मोहर इस ढंग की पड़ी हुई है, जैसे किसी राज-दरबार की हो।

भैरो : बेशक ऐसी ही मालूम पड़ती है। (हँसकर इन्द्रजीतसिंह से) चलिए आपके लिए तो पौ बारह है, किस्मत का धनी होना इसे कहते हैं!

इन्द्रजीत : तुम्हारी ऐसी-की-तैसी।

पाठकों के सुबीते के लिए हम उस चीठी की नकल यहाँ लिख देते हैं, जिसे पढ़कर और देखकर दोनों कुमारों और भैरोसिंह को ताज्जुब मालूम हुआ था—

"पूज्यवर,

पत्र पाकर चित्त प्रसन्न हुआ। आपकी राय बहुत अच्छी है। उन दोनों के लिए कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ऐसा वर मिलना कठिन है, इसी तरह दोनों कुमारों को भी ऐसी स्त्री नहीं मिल सकती। बस अब इसमें सोच-विचार करने की कोई जरूरत नहीं, आपकी आज्ञानुसार मैं आठ पहर के अन्दर ही सब सामान दुरुस्त कर दूँगा। बस परसों ब्याह हो जाना ही ठीक है। बड़े लोग इस तिलिस्म में जोकुछ दहेज की रकम रख गये हैं, वह इन्हीं दोनों कुमारों के योग्य है। यद्यपि इन दोनों का दिल चुटीला हो चुका है, परन्तु हमारा प्रताप भी तो कोई चीज है! जब तक दोनों कुमार आपकी आज्ञा न मानेंगे, तब तक जा कहाँ सकते हैं, अन्त को वह होना आवश्यक है जो आप चाहते हैं।

मुहर

 द.—  मु.मा."

इस चीठी को कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने पुनः पढ़ा और ताज्जुब करते हुए अपने छोटे भाई की तरफ देखके कहा, "ताज्जुब नहीं कि यह चीठी किसी ने दिल्लगी के तौर पर लिखकर भैरोसिंह के रास्ते में डाल दी हो, और हम लोगों को तरद्दुद में डालकर तमाशा देखा चाहता हो?"

आनन्द : कदाचित ऐसा ही हो। अगर कमलिनी से मुलाकात हो गयी होती तो...

भैरो : तब क्या होता? मैं यह पूछता हूँ कि इस तिलिस्म के अन्दर आकर आप दोनों भाइयों ने क्या किया? अगर इस तरह से समय बिताया जायगा तो देखियेगा कि आगे चलकर क्या-क्या होता है।

इन्द्रजीत : तो तुम्हारी क्या राय है, बिना समझे-बूझे तोड़-फोड़ मचाऊँ?

भैरो : बिना समझे-बूझे तोड़-फोड़ मचाने की क्या जरूरत है? तिलिस्मी किताब और तिलिस्मी बाजे से आपने क्या पाया और वह किस दिन काम आवेगा? क्या इन बागों का हाल उसमें लिखा हुआ न था?

इन्द्रजीत : लिखा हुआ तो था, मगर साथ ही इसके यह अन्दाज मिलता था कि तिलिस्म के ये हिस्से टूटनेवाले नहीं है।

भैरो : यह तो मैं भी बिना तिलिस्मी किताब पढ़े ही समझ सकता हूँ, कि तिलिस्म के ये हिस्से टूटनेवाले नहीं है, अगर टूटनेवाले होते तो किशोरी, कामिनी वगैरह को राजा गोपालसिंह हिफाजत के लिए यहाँ न पहुँचा देते, मगर यहाँ से निकल जाने का या तिलिस्म के हिस्से में पहुँचने का रास्ता तो जरूर होगा, जिसे आप तोड़ सकते है।

आनन्द : हाँ, इसमें क्या शक है।

भैरो : अगर शक नहीं है तो उसे खोजना चाहिए।

इतने ही में इन्द्रानी और आनन्दी भी आ पहुँची, जिन्हें देख दोनों कुमार बहुत प्रसन्न हुए और इन्द्रजीत ने इन्द्रानी से कहा—"मैं बहुत देर से तुम्हारे आने का इन्तजार कर रहा था।"

इन्द्रानी : मेरे आने में वादे से ज्यादे देर तो नहीं हुई।

इन्द्रजीत : न सही, मगर ऐसे आदमी के लिए, जिसका दिल तरह-तरह के तरद्दुदों और उलझनों में पड़कर खराब हो रहा हो, इतना इन्तजार भी कम नहीं है।

इस समय इन्द्रानी और आनन्दी यद्यपि सादी पोशाक में थीं, मगर किसी तरह की सजावट की मुहताज न रहनेवाली उनकी खूबसूरती देखने वाले का दिल चाहे वह परले सिरे का त्यागी क्यों न हो, अपनी तरफ खैंचे बिना नहीं रह सकती थी। नुकीले हर्बों से ज्यादे काम करनेवाली उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में मारने और जिलानेवाली दोनों तरह की शक्तियाँ मौजूद थीं। गलों पर इत्तिफाक से आ पड़ी हुई घुँघराली लटें शान्त बैठे मन को भी चाबुक लगाकर अपनी तरफ मुतवजह कर रही थीं। सूधेपन और नेक चलनी का पता देनेवाली सीधी और पतली नाक तो जादू का काम कर रही थी, मगर उनके खूबसूरत पतले और लाल ओठों को हिलते देखने और उनमें से तुले हुए तथा मन लुभाने वाले शब्दों के निकलने की लालसा से दोनों कुमारों को छुटकारा नहीं मिल सकता था, और उनकी सुराहीदार गर्दनों पर गर्दन देनेवालों की कमी नहीं हो सकती थी। केवल इतना ही नहीं, उनके सुन्दर सुडौल और उचित आकारवाले अंगो की छटा बड़े-बड़े कवियों और चित्रकारों को भी चक्कर में डालकर लज्जित कर सकती थी।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के आग्रह से वे दोनों उनके सामने बैठ गयीं, मगर अदब का पल्ला लिये और सर नीचा किये हुए।

इन्द्रानी : इस जल्दी और थोड़े समय में हम लोग आपकी खातिरदारी और मेहमानी का इन्तजाम कुछ भी न कर सकीं, मगर मुझे आशा है कि कुछ देर के बाद इस कसूर की माफी का इन्तजाम अवश्य कर सकूँगी।

इन्द्रजीत : इतना क्या कम है कि मुझ जैसे नाचीज मुसाफिर के साथ यहाँ की रानी होकर तुमने ऐसा अच्छा वर्ताव किया। अब आशा है कि जिस तरह तुमने अपने वर्ताव से मुझे प्रसन्न किया है, उसी तरह मेरे सवालों का जवाब देकर मेरा सन्देह भी दूर करोगी।

इन्द्रानी : आप जो कुछ पूछना चाहते हैं पूछें, मुझे जवाब देने में किसी तरह का उज्र न होगा।

इन्द्रजीत : किशोरी, कामिनी, कमलिनी और लाडिली वगैरह इस तिलिस्म के अन्दर आयी हैं?

इन्द्रानी : जी हाँ, आयी तो हैं?

इन्द्रजीत : क्या तुम जानती हो कि वे सब इस समय कहाँ हैं?

इन्द्रानी : जी हाँ, मैं अच्छी तरह जानती हूँ। इस बाग के पीछे सटा हुआ एक और तिलिस्मी बाग है, सभों को लिये हुए कमलिनी उसी में चली गयी हैं और उसी में रहती हैं!

इन्द्रजीत : क्या हम लोगों को तुम उनके पास पहुँचा सकती हो?

इन्द्रानी : जी नहीं।

इन्द्रजीत : क्यों?

इन्द्रानी : वह बाग एक दूसरी औरत के आधीन है, जिससे बढ़कर मेरा दुश्मन इस दुनिया में कोई नहीं।

इन्द्रजीत : तो क्या तुम उस बाग में कभी नहीं जातीं?

इन्द्रानी : जी नहीं, क्योंकि एक तो दुश्मन के खयाल से मेरा जाना वहाँ नहीं होता, दूसरे उसने रास्ता भी बन्द कर दिया है, इसी तरह मैं उसके पक्षपातियों को अपने बाग में नहीं आने देती।

इन्द्रानी : तो हमारी, उनकी मुलाकात क्योंकर हो सकती है?

इन्द्रानी : यदि आप उन सभों से मिला चाहें तो तीन-चार दिन और सब्र करें क्योंकि अब ईश्वर की कृपा से ऐसा प्रबन्ध हो गया है कि तीन-चार दिन के अन्दर ही वह बाग मेरे कब्जे में आ जाय और उसका मालिक मेरा कैदी बने। मेरे दारोगा ने तो कमलिनी को उस बाग में जाने से मना किया था मगर अफसोस है कि उसने दारोगा की बात न मानी और धोखे में पड़कर अपने को एक ऐसी जगह जा फँसाया, जहाँ से हम लोगों का सम्बन्ध कुछ भी नहीं।

इन्द्रजीत : तो क्या तुम लोग राजा गोपालसिंह के आधीन नहीं हो?

इन्द्रानी : हम लोग जरूर राजा गोपालसिंह के आधीन हैं, और मैं यह जानती हूँ कि आप यहाँ के तिलिस्म को तोड़ने के लिए आये हैं, अस्तु इस बात को भी जानते होंगे कि यहाँ के बहुत से ऐसे हिस्से हैं, जिन्हें आप तोड़ नहीं सकेंगे।

इन्द्रजीत : हाँ जानते हैं।

इन्द्रानी : उन्हीं हिस्सों में से जो टूटनेवाले नहीं हैं, कई दर्जे ऐसे हैं जो केवल सैर-तमाशे के लिए बनाए गए हैं और वहाँ जमानिया का राजा प्रायः अपने मेहमानों को भेजकर सैर-तमाशा दिखाया करता है, अस्तु इसलिए कि वह जगह हमेशे अच्छी हालत में बनी रहे, हम लोगों के कब्जे में दे दी गयी है और नाम मात्र के लिए हम लोग तिलिस्म की रानी कहलाती है, मगर हाँ इतना तो जरूर है कि हम लोगों को सोना-चाँदी और जवाहिरात की (यहाँ की बदौलत) कमी नहीं है।

इन्द्रजीत : जिन दिनों राजा गोपालसिंह को मायारानी ने कैद कर लिया था, उन दिनों यहाँ की क्या अवस्था थी? मायारानी भी कभी यहाँ आती थी या नहीं?

इन्द्रानी : जी नहीं, मायारानी को इन सब बातों और जगहों की कुछ खबर ही न थी, इसलिए वह अपने समय में यहाँ कभी नहीं आयी और तब तक हम लोग स्वतन्त्र बने रहे। अब इधर जब से आपने राजा गोपालसिंह को कैद से छुड़ाकर हम लोगों को पुनः जीवनदान दिया है, तबसे केवल तीन दफे राजा गोपालसिंह यहाँ आये हैं, और चौथी दफे परसों मेरी शादी में यहाँ आवेंगे।

इन्द्रजीत : (चौंककर) क्या परसों तुम्हारी शादी होनेवाली है?

इन्द्रानी : (कुछ शर्माकर) जी हाँ, मेरी और (आनन्दी की तरफ इशारा करके) मेरी इस छोटी बहिन की भी।

इन्द्रजीत : किसके साथ?

इन्द्रानी : सो तो मुझे मालूम नहीं।

इन्द्रजीत : शादी करनेवाले कौन हैं? तुम्हारें माँ-बाप होंगे?

इन्द्रानी : जी मेरे माँ-बाप नहीं हैं केवल गुरुजी महाराज हैं, जिनकी आज्ञा मुझे माँ-बाप की आज्ञा से भी बढ़कर माननी पड़ती है।

भैरो : (इन्द्रानी से) इस तिलिस्म के अन्दर कल-परसों में किसी और का ब्याह भी होनेवाला है?

इन्द्रानी : नहीं।

भैरो : मगर हमने सुना है।

इन्द्रानी : कदापि नहीं, अगर ऐसा होता तो हम लोगों को पहिले खबर होती।

इन्द्रानी का जवाब सुनकर भैरोसिंह ने मुस्कुराते हुए कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की तरफ देखा और दोनों कुमारों ने भी उसका मतलब समझ कर सर नीचा कर लिया।

इन्द्रजीत : (इन्द्रानी से) क्या तुम लोगों में पर्दे का कुछ खयाल नहीं रहता?

इन्द्रानी : पर्दे का खयाल बहुत ज्यादे रहता है, मगर उस आदमी से पर्दे की बर्ताव करना पाप समझा जाता है, जिसको ईश्वर ने तिलिस्म तोड़ने की शक्ति दी है, तिलिस्म तोड़नेवाले को हम ईश्वर समझें यही उचित हैं।

आनन्द : तो तुम राजा गोपालसिंह के पास जा सकती हो, या हमारी चीठी उनके पास पहुँचा सकती हो?

इन्द्रानी : मैं स्वयं राजा गोपालसिंह के पास जा सकती हूँ, और अपना आदमी भेज सकती हूँ, मगर आजकल ऐसा करने का मौका नहीं है, तथा राजा गोपालसिंह से बदाबदी हो रही है, शायद यह बात आपको भी मालूम होगी।

इन्द्रजीत : हाँ, मालूम है।

इन्द्रानी : ऐसी अवस्था में हम लोगों का या हमारे आदमियों का वहाँ जाना अनुचित ही नहीं, बल्कि दुःखदायी भी हो सकता है।

इन्द्रजीत : हाँ, सो तो जरूर है।

इन्द्रानी : मगर मैं आपका मतलब समझ गयी, आप शायद उसके विषय में राजा गोपालसिंह को लिखा चाहते हैं, जिसके हिस्से में किशोरी, कमिनी वगैरह पड़ी हुई हैं, मगर ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है दो रोज सब्र कीजिए तब तक स्वयं राजा गोपालसिंह ही यहाँ आकर आपसे मिलेंगे।

इन्द्रजीत : अच्छा यह बताओ की हमारी चीठी किशोरी या कमलिनी के पास पहुँचवा सकती हो?

इन्द्रानी : जी हाँ, बल्कि उसका जवाब भी मँगवा सकती हूँ, मगर ताज्जुब की बात हैं कि कमलिनी ने आपके पास कोई पत्र क्यों नहीं भेजा।

इन्द्रजीत : शायद कोई सबब होगा, अच्छा तो मैं कमलिनी के  नाम से एक चीठी लिख दूँ?

इन्द्रानी : हाँ, लिख दीजिए, मैं उसका जवाब मँगा दूँगी।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने भैरोसिंह की तरफ देखा। भैरोसिंह ने अपने बटुए में से कलम-दावात और कागज निकालकर कुमार के सामने रख दिया और कुमार ने कमलिनी के नाम से इस मजमून की चीठी लिख और बन्द कर इन्द्रानी के हवाले कर दी—

"मेरी...कमलिनी,

यह तो मुझे मालूम ही है कि किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी और लाडिली वगैरह को साथ लेकर राजा गोपालसिंह की इच्छानुसार तुम यहाँ आयी हो, मगर मुझे अफसोस इस बात का है कि तुम्हारा दिल जो किसी समय मक्खन की तरह मुलायम था, अब फौलाद की तरह ठोस हो गया। इस बात का तो विश्वास हो ही नहीं सकता कि तुम इच्छा करके भी मुझसे मिलने में असमर्थ हो, परन्तु इस बात का रंज अवश्य हो सकता है कि किसी तरह का कसूर न होने पर भी तुमने मुझे दूध की मक्खी की तरह अपने दिल से निकालकर फेंक दिया। खैर, तुम्हारे दिल की मजबूती और कठोरता का परिचय तो तुम्हारे अनूठे कामों ही से मिल चुका था, परन्तु किशोरी के विषय में अभी तक मेरा दिल इस बात की गवाही नहीं देता कि वह भी मुझे तुम्हारी ही तरह अपने दिल से भुला देने की ताकत रखती हैं। मगर क्या किया जाय? पराधीनता की बेड़ी उसके पैरों में हैं और लाचारी की मुहर उसके होठों पर! अस्तु, इन सब बातों का लिखना तो अब बृथा ही है, क्योंकि तुम अपने आप मुख्तार हो, मुझसे मिलो चाहे न मिलो, यह तुम्हारी इच्छा है, मगर अपना तथा अपने साथियों का कुशल-मंगल तो लिख भेजो, या यदि अब मुझे इस योग्य भी नहीं समझती तो जाने दो।

                    क्या कहें, किसका-इन्द्रजीत"

कुँअर आनन्दसिंह की भी इच्छा थी कि अपने दिल का कुछ हाल कामिनी और लाडिली को लिखें, परन्तु कई बातों का खयाल कर रह गये। इन्द्रानी कुँअर इन्द्रजीतसिंह को लिखी हुई चीठी लेकर उठ खड़ी हुई, और यह कहती हुई अपनी बहिन को साथ लिये चली गयी कि ‘अब मैं चिराग जले बाद आप लोगों से मिलूँगी, तब तक आप लोग यदि इच्छा हो तो इस बाग की सैर करें, मगर किसी मकान के अन्दर जाने का उद्योग न करें।

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