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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

पन्द्रहवाँ बयान


भैरोसिंह की बातें सुनकर दोनों कुमार देर तक तरह-तरह की बातें सोचते रहे और तब उन्होंने अपना किस्सा भैरोसिंह से कह सुनाया। बुढ़ियावाली बात सुनकर भैरोसिंह हँस पड़ा और बोला, "मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है कि वह बुढ़िया कौन और कहाँ है, यदि अब मैं उसे पाऊँ तो जरूर उसकी बदमाशी का मजा उसे चखाऊँ। मगर अफसोस तो यह है कि मेरा ऐयारी का बटुआ मेरे पास नहीं है, जिसमें बड़ी-बड़ी अनमोल चीजें थीं। हाय, वे तिलिस्मी फूल भी उसी बटुए में थे, जिसके देने से मेरा बाप भी मुझे टल्ली बताया चाहता था, मगर महाराज ने दिलवा दिया। इस समय बटुए का न होना मेरे लिए बड़ा दुखदायी है, क्योंकि आप कह रहे हैं कि ‘उन लड़कों ने एक तरह का बुकनी उड़ाकर हमें बेहोश कर दिया।' कहिए अब मैं क्योंकर अपने दिल का हौसला निकाल सकता हूँ?"

इन्द्रजीत : निःसन्देह उस बटुए का जाना बहुत ही बुरा हुआ? वास्तव में उसमें बड़ी अनूठी चीजें थीं, मगर इस समय उनके लिए अफसोस करना फजूल है। हाँ इस समय मैं दो चीजों से तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।

भैरो : वह क्या?

इन्द्रजीत : एक तो वह दवा हम दोनों के पास मौजूद है, जिसके खाने से बेहोशी असर नहीं करती, वह मैं तुम्हें खिला सकता हूँ, दूसरे हम लोगों के पास दो-दो हर्बे मौजूद हैं, बल्कि यदि तुम चाहो तो तिलिस्मी खंजर भी दे सकता हूँ।

भैरो : जी नहीं, तिलिस्मी खंजर मैं न लूँगा, क्योंकि आपके पास उसका रहना तब तब बहुत जरुरी है, जब तक आप तिलिस्म तोड़ने का काम पूरा न कर ले। मुझे बस मामूली तलवार दे दीजिए, मैं अपना काम उसी से चला लूँगा और वह दवा खिलाकर मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं उस बुढ़िया के पास से अपना बटुआ निकालने का उद्योग करूँ।

दोनों कुमारों के पास तिलिस्मी खंजर के अतिरिक्त एक-एक तलवार भी थी। इन्द्रजीतसिंह ने अपनी तलवार भैरोसिंह को दी और डिबिया में से निकालकर थोड़ी सी दवा भी खिलाने बाद कहा, "मैं तुमसे कह चुका है कि जब हम दोनों भाई इस भाग में पहुँचे तो चूहेदानी के पल्ले की तरह वह दरवाजा बन्द हो गया, जिस राह से हम दोनों आये थे और उस दरवाजे पर लिखा हुआ था कि यह तिलिस्म टूटने लायक नहीं है।"

भैरो : हाँ, आप कह चुके हैं।

आनन्द : (इन्द्रजीत से) भैया मुझे तो उस लिखावट पर विश्वास नहीं होता।

इन्द्रजीत : यही मैं भी कहने को था, क्योंकि रिक्तगन्थ की बातों से तिलिस्म का यह हिस्सा भी टूटने योग्य जान पड़ता है, (भैरोसिंह से) इसी से मैं कहता हूँ कि इस बाग में जरा समझ-बूझके घूमना।

भैरो : खैर, इस समय तो मैं आपके साथ चलता हूँ, चलिए बाहर निकलिए।

आनन्द : (भैरो से) तुम्हें याद है कि तुम ऊपर से उतरकर इस कमरे में किस राह से आये थे?

भैरो : मुझे कुछ याद नहीं।

इतना कहकर भैरोसिंह उठ खड़ा हुआ और दोनों कुमार भी उठकर कमरे के बाहर निकलने के लिए तैयार हो गये।

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