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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

सोलहवाँ बयान


तीनों आदमी कमरे से निकल कर बाहर सहन में आये, उस समय कुमार को मालूम हुआ कि यह कमरा बाग के पूरब तरफवाली इमारत के सबसे निचले हिस्से में बना हुआ है, और इस कमरे के ऊपर और भी दो मंजिल की इमारत है, मगर वे दोनों मंजिल बहुत छोटी थीं और उनके साथ ही दोनों तरफ इमारतों का सिलसिला बराबर चला गया था। दिन चढ़ आया था और नित्यकर्म न किये जाने के कारण कुमारों की तबीयत कुछ भारी हो रही थी।

जिस तरह इस तिलिस्म में पहिले दूसरे बाग के अन्दर नहर की बदौलत पानी की कमी न थी, उसी तरह इस बाग में भी नहर का पानी छोटी नालियों के जरिये चारों ओर घूमता हुआ आता और दस-पाँच मेवों के पेड़ भी थे, जिनमें बहुतायत के साथ मेवे लगे हुए थे।

दोनों कुमार और भैरोसिंह टहलते हुए बाग के बीतोबीच से उसी कमन्द के पेड़ तले आये, जिसके नीचे पहिल-पहिले भैरोसिंह के दर्शन हुए थे। बातचीत करने के बाद तीनों ने जरूरी कामों से छुट्टी पा हाथ-मुँह धोकर स्नान किया और सन्ध्योपासन से छुट्टी पाकर के बाग के मेवे और नहर के जल से सन्तोष करने बाद बैठकर यों बातचीत करने लगे—

इन्द्रजीत : मैं उम्मीद करता हूँ कि कमलिनी, किशोरी और कामिनी वगैरह से इसी बाग में मुलाकात होगी।

आनन्द : निःसन्देह ऐसा ही है, इस बाग में अच्छी तरह घूमना और यहाँ की हरएक बातों का पूरा-पूरा पता लगाना, हम लोगों के लिए जरूरी है।

भैरो : मेरा दिल भी यही गवाही देता है कि वे सब जरूर इसी बाग में होंगी, मगर कहीं ऐसा न हुआ हो कि मेरी तरह से उन लोगों का दिमाग भी किसी कारण विशेष से बिगड़ गया हो।

इन्द्रजीत : कोई ताज्जुब नहीं अगर ऐसा ही हुआ हो, मगर तुम्हारी जुबानी मैं सुन चुका हूँ राजा गोपालसिंह ने कमलिनी को बहुत कुछ समझा-बुझाकर एक तिलिस्मी किताब भी दी है।

भैरो : हाँ, बेशक मैं कह चुका हूँ और ठीक कह चुका हूँ।

इन्द्रजीत : तो यह भी उम्मीद कर सकता हूँ कि कमलिनी को इस तिलिस्म का कुछ हाल मालूम हो गया हो और वह किसी के फन्दे में न फँसे।

भैरो : इस तिलिस्म में और है ही कौन जो उन लोगों के साथ दगा करेगा?

आनन्द : बहुत ठीक! शायद आप अपनी नौजवान स्त्री और उसके हिमायती लड़को को बिल्कुल ही भूल गये, या हम लोगों की जुबानी सब हाल सुनकर भी आपको उसका कुछ खयाल न रहा।

भैरो : (मुस्कुराकर) आपका कहना ठीक है मगर उन सभों को...

इतना कहकर भैरोसिंह चुप हो गया और कुछ सोचने लगा। दोनों कुमार भी किसी बात पर गौर करने लगे और कुछ देर बाद भैरोसिंह ने इन्द्रजीतसिंह से कहा—

भैरो : आपको याद होगा कि लड़कपन में एक दफे मैंने पागलपन की नकल की थी।

इन्द्रजीत : हाँ, याद है, तो क्या आज भी तुम जान-बूझकर पागल बने हुए थे?

भैरो : नहीं नहीं, मेरे कहने का मतलब यह नहीं, बल्कि मैं यह कहता हूँ कि इस समय भी उसी तरह का पागल बनके शायद कोई काम निकाल सकूँ।

आनन्द : हाँ, ठीक तो है, आप पागल बनके अपनी नौजवान स्त्री को बुलाइए, जिस ढंग से मैं बताता हूँ।

कुमार के बताये हुए ढंग से भैरोसिंह ने पागल बनके अपनी नौजवान स्त्री को कई दफे बुलाया, मगर उसका नतीजा कुछ न निकला, न तो कोई उसके पास आया और न किसी ने उसकी बात का जवाब ही दिया, आखिर इन्द्रजीतसिंह ने कहा, "बस करो, उसे मालूम हो गया कि तुम्हारा पागलपन जाता रहा, अब हम लोगों को फँसाने के लिए वह जरूर कोई दूसरा ही ढंग लावेगी।"

आखिर भैरोसिंह चुप हो रहे और थोड़ी देर बाद तीनों आदमी इधर-उधर का तमाशा देखने के लिए यहाँ से रवाना हुए। इस समय दिन बहुत कम बाकी था।

तीनों आदमी बाग के पश्चिम तरफ गये, जिधर संगमरमर की एक बारहदरी थी। उनके दोनों तरफ दो इमारतें और थीं, जिनके दरवाजे बन्द रहने के कारण यह नहीं जाना जाता था कि उसके अन्दर क्या है, मगर बारहदरी खुले ढंग से बनी हुई थी, अर्थात् उसके पीछे की तरफ दीवानखाना और आगे की तरफ केवल तेरह खम्भे लगे हुए थे, जिनमें दरवाजा चढ़ाने की जगह न थी।

इस बारहदारी के मध्य में एक सुन्दर चबूतरा बना हुआ था, जिस पर कम-से-कम पन्द्रह बखूबी बैठ सकते थे। उस चबूतरे के ऊपर बीचोबीच में लोहे का चौखूटा तख्त था, जिसमें उठाने के लिए कड़ी लगी हुई थी और चबूतरे के सामने की दीवार में एक छोटा-सा दरवाजा था, जो इस समय खुला हुआ था, और उसके अन्दर दो-चार हाथ के बाद अन्धकार-सा जान पड़ता था। भैरोसिंह ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, "यदि आज्ञा हो तो इस छोटे से दरवाजे के अन्दर जाकर देखूँ कि इसमें क्या है?"

इन्द्रजीत : यह तिलिस्म का मुकाम है, खिलवाड़ नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि तुम अन्दर जाओ और दरवाजा बन्द हो जाय! फिर तुम्हारी क्या हालत होगी सो तुम्हीं सोच लो।

आनन्द : पहिले यह तो देखो कि दरवाजा लकड़ी का है, या लोहे का?

इन्द्रजीत : भला तिलिस्म बनानेवाले इमारत के काम में लकड़ी क्यों लगाने लगे, जिसके थोड़े ही दिन में बिगड़ जाने का खयाल होता है, मगर शक मिटाने के लिए यदि चाहो तो देख लो।

भैरो (उस दरवाजे को अच्छी तरह जाँचकर) बेशक यह लोहे का बना हुआ है। इसके अन्दर कोई भारी चीज डालकर देखने चाहिए कि बन्द होता है या नहीं? यदि किसी आदमी के जाने से बन्द हो जाता होगा, तो मालूम हो जायगा।

आनन्द : (चबूतरे की तरफ इशारा करके) पहिले इस तख्त को उठाकर देखो कि इसके अन्दर क्या है!

"बहुत अच्छा" कहकर भैरोसिंह चबूतरे के ऊपर चढ़ गया और कड़ी हाथ डालके उस तख्ते को उठाने लगा। तख्त किसी कब्जे या पेंच के सहारे उसमें जुड़ा न था, बल्कि चारों तरफ से अलग से था, इसलिए भैरोसिंह ने उसे उठाकर चबूतरे के नीचे रख दिया, इसके बाद झाँककर देखने से मालूम हुआ कि नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।

भैरोसिंह ने नीचे उतरने के लिए आज्ञा माँगी, मगर कुँअर इन्द्रजीतसिंह उसे रोककर स्वयं नीचे उतर गये और भैरोसिंह और आनन्दसिंह को ऊपर मुस्तैद रहने के लिए ताकीद कर गये।

नीचे उतरने के लिए चक्करदार सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और हर एक सीढ़ी के दोनों तरफ बनावटी गेंदे के पेड़ बने हुए थे, जो सीढ़ी पर पैर रखने के साथ ही झुक जाते और पैर (या बोझ) हट जाने से पुनः ज्यों-के-त्यों खड़े हो जाते थे। इस तमाशे को देखते हुए इन्द्रजीतसिंह कई सीढ़ियाँ नीचे उतरते गये और जब अँधेरे में पहुँचे तो एक बन्द दरवाजा मिला, जिसे उस समय कुमार ने खुला हुआ देखा था, जब वहाँ तक पहुँचने में तीन-चार सीढ़ियाँ बाकी थीं, अर्थात् कुमार के देखते-ही-देखते वह दरवाजा बन्द हो गया था।

कुमार को ताज्जुब मालूम हुआ और जब उद्योग करने पर भी दरवाजा न खुला तो कुमार ऊपर की तरफ लौटे। तीन सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ने बाद घूमकर देखा तो दरवाजे को पुनः कुछ खुला हुआ देखा, मगर जब नीचे उतरने तो फिर बन्द हो गया।

इन्द्रजीतसिंह को विश्वास हो गया कि इस दरवाजे का खुलना और बन्द होना भी इन्हीं सीढ़ियों के आधीन है। आखिर लाचार होकर कुछ सोचते-विचारते चले आये। ऊपर आते समय भी सीढ़ियों के दोनों तरफवाले पेड़ों की वही दशा हुए अर्थात् जिस सीढ़ी पर पैर रक्खा जाता, उसके दोनों तरफवाले पेड़ झुक जाते और जब उस पर से पैर हट जाता तो फिर ज्यों-के-त्यों हो जाते।

ऊपर आकर इन्द्रजीतसिंह ने कुल हाल आनन्दसिंह और भैरोसिंह से कहा और इस बात पर विचार करने की आज्ञा दी कि "हम नीचे उतरकर किसी तरह उस दरवाजे को खुला पा सकते हैं।"

थोड़ी देर के बाद भैरोसिंह ने कहा, "मैं पेड़ों का मतलब समझ गया, यदि आप मुझे अपने साथ ले चलें तो मैं ऐसी तरकीब कर सकता हूँ कि वह दरवाजा आपको खुला मिले।"

इस समय सन्ध्या हो चुकी थी इसलिए सभों की राय नीचे उतरने की न हुई। कुमार की आज्ञानुसार भैरोसिंह ने उस गड़हे का मुँह ज्यों-का-त्यों ढाँक दिया और उस बारहदरी में निश्चिन्ती के साथ बैठ बातचीत करने लगे, क्योंकि आज की रात इसी बारहदरी में होशियारी के साथ रहकर बिताने का निश्चय कर लिया था और भैरोसिंह के जिद करने से यह बात भी तय पायी थी कि इन्द्रजीतसिंह आराम के साथ सोयें, और भैरोसिंह तथा आनन्दसिंह बारी-बारी से जागकर पहरा दें।

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