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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

तेरहवाँ बयान


"बेशक बेशक" की आवाज ने दोनों कुमारों को चौंका दिया। वह आवाज सर्यू की न थी और न किसी ऐसे आदमी की थी, जिसे कुमार पहिचानते हो यह सबब उनके चौंकाने का और भी था। दोनों कुमारों को निश्चय हो गया कि यह आवाज उन्हीं नकाबपोशों में से किसी की है, जो तिलिस्म के अन्दर लटकाये गये थे और जिन्हें हम लोग खोज रहे हैं। ताज्जुब नहीं कि सर्यू भी इन्हीं लोगों के सबब से गायब हो गयी हो, क्योंकि एक कमजोर औरत की बेहोशी हम लोगों की बनिस्बत जल्द दूर नहीं हो सकती।

दोनों भाइयों के विचार एक-से थे अतएव दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और इसके बाद इन्द्रजीतसिंह और उनके पीछे-पीछे आनन्दसिंह उस दरवाजे के अन्दर चले गये, जिसमें किसी के बोलने की आवाज आयी थी।

कुछ आगे जाने पर कुमार को मालूम हुआ कि रास्ता सुरंग के ढंग का बना हुआ है, मगर बहुत छोटा और केवल एक ही आदमी के जाने लायक है, अर्थात् इसकी चौड़ाई डेढ़-हाथ से ज्यादे नहीं है।

लगभग बीस हाथ जाने के बाद दूसरा दरवाजा मिला, जिसे लाँघकर दोनों भाई एक छोटे से बाग में गये, जिसमें सब्जी की बनिस्बत इमारत का हिस्सा बहुत ज्यादा था, अर्थात् उसमें कई दालान, कोठरियाँ और कमरे थे, जिन्हें देखते ही इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, "इसके अन्दर थोड़े आदमियों का पता लगाना भी कठिन होगा।"

दोनों कुमार दो ही चार कदम आगे बढ़े थे कि पीछे से दरवाजे के बन्द होने की आवाज आयी, घूमकर देखा तो उस दरवाजे को बन्द पाया, जिसे लाँघकर इस बाग में पहुँचे थे। दरवाजा लोहे का एक ही पल्ले का था, जिसने चूहेदानी की तरह ऊपर से गिरकर दरवाजे का मुँह बन्द कर दिया। उस दरवाजे के पल्ले पर मोटे-मोटे अक्षरों में यह लिखा हुआ था—

"तिलिस्म का यह हिस्सा टूटने लायक नहीं है, हाँ तिलिस्म को तोड़ने तिलिस्मी हिस्सा तोड़ने यहाँ का तमाशा जरूर देख सकता है।"

इन्द्रजीत : यद्यपि तिलिस्मी तमाशे दिलचस्प होते हैं, मगर हमारा यह समय बड़ा नाजुक है और तमाशा देखने योग्य नहीं, क्योंकि तरह-तरह के तरद्दुदों ने दुःखी कर रक्खा है। देखा चाहिए इस तमाशबीनी से छुट्टी कब मिलती है।

आनन्द : मेरा भी यही खयाल है, बल्कि मुझे यो इस बात का अफसोस है कि इस बाग में क्यों आये, अगर किसी दूसरे दरवाजे के अन्दर गये होते तो अच्छा होता।

इन्द्रजीत : (कुछ आगे बढ़कर ताज्जुब से) देखा तो सही उस पेड़ के नीचे कौन बैठा है! कुछ पहिचान सकते हो?

आनन्द : यद्यपि पोशाक में बहुत बड़ा फर्क है, मगर सूरत भैरोसिंह की-सी मालूम पड़ती है।

इन्द्रजीत : मेरा भी यही खयाल है, आओ उसके पास चलकर देखें।

आनन्द : चलिए।

इस बाग के बीचोंबीच में एक कदम्ब का बहुत बड़ा पेड़ था, जिसके नीचे एक आदमी गाल पर हाथ रक्खे बैठा हुआ कुछ सोच रहा था। उसी को देखकर दोनों कुमार चौंके थे और उस पर भैरोसिंह के होने का शक हुआ था। जब दोनों भाई उसके पास पहुँचे तो शक जाता रहा और अच्छी तरह पहिचानकर इन्द्रजीतसिंह ने पुकारा और कहा, "क्यों यार भैरोसिंह तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे?"

उस आदमी ने सर उठाकर ताज्जुब से दोनों कुमारों की तरफ देखा और तब हलकी आवाज में जवाब दिया, "तुम दोनों कौन हो? मैं तो सात वर्ष से यहाँ रहता हूँ, मगर आज तक किसी ने मुझसे यह न पूछा कि तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे?"

आनन्द : कुछ पागल तो नहीं हो गये?

इन्द्रजीत : क्योंकि तिलिस्म की हवा बड़े-बड़े चालाकों और ऐयारों को पागल बना देती है!

भैरो : (शायद वह भैरोसिंह ही हो) कदाचित् ऐसा ही हो, मगर मुझे आज तक किसी ने यह भी नहीं कहा कि तू पागल हो गया है! मेरी स्त्री भी यहाँ रहती है, वह भी मुझे बुद्धिमान समझती है।

आनन्द : (मुस्कुराकर) तुम्हारी स्त्री कहाँ हैं? उसे मेरे सामने बुलाओ, मैं उससे पूछूँगा कि वह तुम्हें पागल समझती है या नहीं।

भैरो : वाह वाह, तुम्हारे कहने से मैं अपनी स्त्री को तुम्हारे सामने बुला लूँ! कहीं तुम इस पर आशिक हो जाओ या वही तुम पर मोहित हो जाय तो क्या हो?

इन्द्रजीत : (हँसकर) वह भले ही मुझ पर आशिक हो जाय, मगर मैं वादा करता हूँ कि उस पर मोहित होऊँगा।

भैरो : सम्भव है कि मैं तुम्हारी बातों पर विश्वास कर लूँ, मगर उसकी नौजवानी, मुझे उस पर विश्वास नहीं करने देती। अच्छा ठहरो मैं उसे बुलाता हूँ। अरी ए री मेरी नौजवान स्त्री भोली ई...ई...ई...!!

एक तरफ से आवाज आयी, "मैं आप ही चली आ रही हूँ, तुम क्यों चिल्ला रहे हो? कमबख्त को जब देखो ‘भोली भोली' करके चिल्लाया करता है!"

भैरो : देखो कमबख्त को! साठ घड़ी में एक पल भी सीधी तरह से बात नहीं करती। खैर, नौजवान औरतें ऐसी हुआ ही करती हैं!!

इतने में दोनों कुमारों ने देखा कि बायीं तरफ से एक नब्बे वर्ष की बुढ़िया छड़ी टेकती धीरे-धीरे चली आ रही है, जिसे देखते ही भैरोसिंह उठा और यह कहता हुआ उसकी तरफ बढ़ा, "आओ मेरी प्यारी भोली। तुम्हारी नौजवानी तुम्हें अकड़कर चलने नहीं देती तो मैं अपने हाथों का सहारा देने के लिए तैयार हूँ।"

भैरोसिंह ने बुढ़िया को हाथ का सहारा देकर अपने पास ला बैठाया और आप भी उसी जगह बैठकर बोला, "मेरी प्यारी भोली, देखो ये दो नये आदमी आज यहाँ आये हैं, जो मुझे पागल बताते हैं। तू ही बता कि क्या मैं पागल हूँ?"

बुढ़िया : राम राम, ऐसा भी कभी हो सकता है? मैं अपनी नौजवानी की कसम खाकर कहती हूँ कि तुम्हारे ऐसे बुद्धिमान बुड्ढे को पागल कहने वाला स्वयं पागल है! (दोनों कुमारो की तरफ देखकर) ये दोनों उजड्ढ यहाँ कैसे आ पहुँचे? क्या किसी ने इन्हें रोका नहीं?

भैरो : मैंने अभी इनसे कुछ भी नहीं पूछा कि ये कौन हैं और यहाँ कैसे आ पहुँचे, क्योंकि मैं तुम्हारी मुहब्बत में ढूबा हुआ तरह-तरह की बातें सोच रहा था, अब तुम आयी हो तो जो कुछ पूछना हो स्वयं पूछा लो।

बुढ़िया : (कुमारों से) तुम दोनों कौन हो?

भैरो : (कुमारों से) बताओ बताओ, सोचते क्या हो? आदमी हो, जिन्न हो, भूत हो, प्रेत हो, कौन हो क्यों नहीं! क्या तुम देखते नहीं कि मेरी नौजवान स्त्री को तुमसे बात करने में कितना कष्ट हो रहा है?

भैरोसिंह और उस बुढ़िया की बातचीत और अवस्था पर दोनों कुमारों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और कुछ सोचने बाद इन्द्रजीतसिंह ने भैरोसिंह से कहा, "अब मुझे निश्चय हो गया कि जरूर तुम्हें किसी ने इस तिलिस्म में ला फँसाया है और कोई ऐसी चीज खिलायी या पिलायी है कि जिससे तुम पागल हो गये हो, ताज्जुब नहीं कि यह सब बदमाशी इसी बुढ़िया की हो, अब अगर तुम होश में न आओगे तो मैं तुम्हें मार-पीटकर होश में लाऊँगा।" इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह भैरोसिंह की तरफ बढ़े मगर इसी समय बुढ़िया ने यह कहकर चिल्लाना शुरू किया, "दौड़ियों दौड़ियो, हाय रे, मारा रे, मारे रे, चोर चोर, डाकू डाकू, दौड़ो दौड़ो, ले गया, ले गया, ले गया!"

बुढ़िया चिल्लाती रही मगर कुमार ने उसकी एक भी न सुनी और भैरोसिंह का हाथ पकड़ के अपनी तरफ खैंच ही लिया, मगर बुढ़िया का चिल्लाना भी व्यर्थ न गया। उसी समय चार-पाँच खूबसूरत लड़के दौड़ते हुए वहाँ आ पहुँचे, जिन्होंने दोनों कुमारों को चारों तरफ से घेर लिया। उन लड़कों के गले में छोटी-छोटी झोलियाँ लटक रही थीं और उनमें आटे की तरह की कोई चीज भरी हुई थी। आने के साथ ही इन लड़कों ने अपनी झोली में से वह आटा निकाल-निकालकर दोनों कुमारों की तरफ फेंकना शुरू किया।

निःसन्देह उस बुकनी में तेज बेहोशी का असर था, जिसने दोनों कुमारों को बात-की-बात में बेहोश कर दिया और दोनों चक्कर खाकर जमीन पर लेट गये जब आँख खुली तो दोनों ने अपने को एक सजे-सजाये कमरे में फर्श के ऊपर पड़े पाया।

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