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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

सातवाँ बयान


ऐयारी भाषा की चीठी पढ़ने और कमलिनी के ढाँढ़स दिलाने पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह की दिलजमई तो हो गयी परन्तु ‘टेप’ का परिचय पाने के लिए वे बेचैन हो रहे थे। अस्तु, उससे मिलने की आशा में दरवाज़े की तरफ ध्यान लगाकर थोड़ी देर तक खड़े हो गये। यकायक उस मकान का दरवाज़ा खुला और धनपत की कलाई पकड़े ‘टेप’ महाशय अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए आते दिखायी दिये। दरवाज़े के बाहर निकलते ही ‘टेप’ ने अपने चेहरे पर से नकाब हटा दी, सूरत देखते ही कुँअर इन्द्रजीतसिंह हँस पड़े और लपकके उनकी कलाई पकड़कर बोले, "अहा, यह किसे आशा थी कि यहाँ पर राजा गोपालसिंह से मुलाकात होगी? (कमलिनी की तरफ देखकर) तो क्या इन्हीं ने अपना नाम ‘टेप’ रक्खा है?"

कमलिनी : जी हाँ।

इन्द्रजीत : (गोपालसिंह से) क्या आनन्दसिंह इसी मकान के अन्दर हैं?

गोपाल :  जी हाँ, आप मकान के अन्दर चलिए और उनसे मिलिए।

इन्द्रजीत : एक औरत के रोने की आवाज़ हम लोगों ने सुनी थी, शायद वह भी इसी मकान के अन्दर हो?

गोपाल : जी नहीं, वह कम्बख्त औरत (धनपत की तरफ इशारा करके) यही है। न मालूम ईश्वर ने इस हरामजादे को कैसा मर्द बनाया है कि आवाज़ से भी कोई इसे मर्द नहीं समझ सकता!

कमलिनी : इसे आपने कब पकड़ा?

गोपाल : यह कल से मेरे कब्जे में है और मैं कल ही इसे इस मकान में कैद कर गया था, बल्कि आज छुड़ाने के लिए आया था।

इन्द्रजीत : तो आप कल भी इस मकान में आ चुके हैं! मगर मुझसे मिलने के लिए शायद कसम खा चुके थे!

गोपाल : (हँसकर) नहीं नहीं, मेरा वह समय बड़ा ही अनमोल था, एक-एक पल की देर बुरी मालूम होती थी, इसी से आपसे मिलने के लिए मैं रुक न सका। इसका खुलासा हाल सुनेगें तो आप बहुत ही हँसेंगे और खुश होंगे। मगर पहिले मकान के अन्दर चलकर आनन्दसिंह से मिल लीजिए तब यह अनूठा किस्सा आपसे कहूँगा।

इन्द्रजीत : क्या आनन्द यहाँ तक नहीं आ सकता?

गोपाल : नहीं वे यहाँ नहीं आ सकते। वे तिलिस्मी कारखाने में फँस चुके हैं इसलिए छूटने का उद्योग नहीं कर सकते, बल्कि तिलिस्म के अन्दर जा सकते हैं और उसे तोड़कर निकल आ सकते हैं। मगर अब उनसे मिलने में देर न कीजिए।

इन्द्रजीत : आप जिस काम के लिए गये थे, वह हुआ?

गोपाल : वह काम बखूबी हो गया, उसका खुलासा हाल थोड़ी देर में आपसे कहूँगा।

कमलिनी : भूतनाथ को आपने कहाँ छोड़ा?

गोपाल : वह भी आता ही होगा। वास्तव में वह बड़ा ही चालाक और धूर्त ऐयार है। उसने जो काम किये हैं, सुनोगी तो हँसते-हँसते लोटन कबूतर बन जाओगी। (इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर) आप आनन्दसिंह के फँसने से दुःखी न होइए, क्योंकि आप दोनों भाइयों के लिए इस तिलिस्म का तोड़ना बहुत ज़रूरी हो चुका है।

इन्द्रजीत : ठीक है, मगर रिक्तगन्थ का पूरा-पूरा मतलब उसकी समझ में नहीं आया है, और इससे तिलिस्म के काम में उसे तकलीफ होना सम्भव है। उसमें दस-बारह शब्द ऐसे हैं, जिनका अर्थ नहीं लगता और उन शब्दों का अर्थ जाने बिना बहुत-सी बातों का मतलब समझ में नहीं आता।

गोपाल : (हँसकर) आपका कहना ठीक है, मगर मैं एक बात आपको ऐसी बताता हूँ कि जिससे आप हरएक तिलिस्मी ग्रन्थ को अच्छी तरह पढ़ और समझ लेंगे और उनमें चाहे कैसे ही टेढ़े शब्द क्यों न हों, मगर मतलब समझने में कठिनता न होगी।

इन्द्रजीत : वह क्या?

गोपाल : केवल एक छोटी-सी बात है।

इन्द्रजीत : मगर उसके बताने में आप हुज्जत बड़ी कर रहे हैं।

गोपालसिंह ने झुककर इन्द्रजीतसिंह के कान में कुछ कहा, जिसे सुनते ही कुमार हँस पड़े और बोले, "बेशक बड़ी चतुराई की गयी है! जरा-सा फेर में मतलब कैसा बिगड़ जाता है! आपका कहना बहुत ठीक है। अब कोई शब्द ऐसा नहीं निकलता, जिसका अर्थ मैं न लगा सकूँ! क्यों न हो, आखिर आप तिलिस्म के राजा ही ठहरे।"

कमलिनी से इस समय चुप न रहा गया, वह ताने के तौर पर सिर नीचा करके बोली, "बेशक राजा ही ठहरे, इसी से तो बेमुरौवती कूट-कूट कर भरी है!" इसके जवाब में गोपालसिंह ने कहा, "नहीं नहीं, ऐसा मत खयाल करो। तुम्हारा उदास चेहरा कहे देता है कि तुम्हें इस बात का रंज है कि हमने जो कुछ कुमार के कान में कहा, उससे तुमको जान-बूझके वंचित रक्खा, मगर नहीं (धनपत की तरफ इशारा करके) इस कमबख्त के खयाल से मैंने ऐसा किया। आखिर वह भेद तुमसे छिपा न रहेगा।"

इस पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने एक विचित्र निगाह कमलिनी पर डाली, जिसे देखते ही वह हँस पड़ी, और मकान के अन्दर जाने के लिए दरवाज़े की तरफ बढ़ी। कुँअर इन्द्रजीतसिंह, कमलिनी, लाडिली और साथ उनके धनपत का हाथ पकड़े हुए राजा गोपालसिंह उस मकान के अन्दर चले।

इस मकान की हालत हम ऊपर लिख आये हैं, इसलिए पुनः नहीं लिखते। राजा गोपालसिंह सभों को साथ लिए हुए उस कोठरी में पहुँचे, जिसमें कुँअर आनन्दसिंह फँसे हुए थे, मगर इस समय वहाँ की अवस्था वैसी न थी, जैसी कि हम ऊपर लिख आये हैं, अर्थात् वह तिलिस्मी सन्दूक, जिसमें आनन्दसिंह का हाथ फँस गया था, वहाँ न था और न आनन्दसिंह वहाँ थे, हाँ, उस कोठरी की जमीन का वह हिस्सा, जिस पर सन्दूक था, जमीन के अन्दर धँस गया था और वहाँ एक कूएँ की शक्ल दिखायी दे रही थी। यह देख राजा गोपालसिंह ताज्जुब में आ गये और उस कूएँ की तरफ देखकर कुछ सोचने लगे। आखिर कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने उन्हें टोका और चुप रहने का सबब पूछा।

इन्द्रजीत : आप क्या सोच रहे हैं? शायद आनन्दसिंह को आपने इसी कोठरी में छोड़ा था।

गोपाल : जी हाँ, इस जगह जहाँ आप कूएँ की तरह गड़हा देखते हैं एक सन्दूक था और उसमें एक छेद था, उसी छेद के अन्दर हाथ डालकर कुमार ने अपने को फँसा लिया था। मालूम होता है कि अब वे तिलिस्म के अन्दर चले गये। इसी खयाल से मैंने आपसे कहा था कि कुँअर आनन्दसिंह अपने को छुड़ा नहीं सकते, बल्कि तिलिस्म के अन्दर जा सकते हैं।

इन्द्रजीत : अफसोस, खैर, मरजी परमेश्वर की? इस समय मेरा दिमाग परेशान हो रहा है। धनपत को मैं इस अवस्था में क्यों देख रहा हूँ? यकायक आपका इस बाग में आना कैसे हुआ? आप मुझसे मिले बिना सीधे इस मकान में क्यों आये? आनन्दसिंह को आपने इस मकान में आपने ठहरने क्यों दिया, अथवा उसे बचाने का उद्योग क्यों न किया? इत्यादि बहुत-सी बातें जानने के लिए मैं इस समय परेशान हो रहा हूँ, मगर इसके पहिले मैं इस कूएँ की अवस्था जानने का उद्योग करूँगा। (कमलिनी की तरफ देखकर) जरा तिलिस्मी खंजर मुझे दो, उसके जरिए से इस कूएँ में उजाला करके मैं देखूँगा कि इसके अन्दर क्या है?

कमलिनी : (तिलिस्मी खंजर और अँगूठी कुमार के सामने रखकर) लीजिए, शायद इससे कुछ काम चले!

कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने अँगूठी पहिर खंजर हाथ में लिया और धीरे-धीरे उस गड़हे के किनारे गये, जो ठीक कूएँ की तरह का हो रहा था। खंजरवाला हाथ कुमार ने कूएँ के अन्दर डाला और उसका कब्जा दबाकर उजाला करने के बाद झाँककर देखा कि उसके अन्दर क्या है।

न मालूम कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने कूएँ के अन्दर क्या देखा कि वे यकायक बिना किसी से कुछ कहे तिलिस्मी खंजर हाथ में लिये हुए, उस कूएँ के अन्दर कूद पड़े। यह देखते ही कमलिनी और लाडिली परेशान हो गयीं और राजा गोपालसिंह को भी बहुत ताज्जुब हुआ। इन्द्रजीतसिंह की तरह राजा गोपालसिंह ने भी अपना तिलिस्मी खंजर हाथ में लेकर कूएँ के अन्दर किया और उसका कब्जा रोशनी करने के बाद झाँककर देखा कि क्या बात है, मगर कुछ दिखायी न पड़ा।

कमलिनी : कुछ मालूम हुआ इस गड़हे में क्या है?

गोपाल : कुछ भी मालूम नहीं होता, न जाने क्या देखकर कुमार इसमें कूद गये।

कमलिनी : खैर, आप यहाँ से हटिए और सोचिए कि अब क्या करना होगा?

गोपाल : यद्यपि मैं जानता हूँ कि यहाँ का तिलिस्म कुमार के हाथ से टूटेगा, परन्तु इस रीति से दोनों कुमारों का तिलिस्म के अन्दर जाना ठीक न हुआ। देखा चाहिए ईश्वर क्या करता है? चलो अब यहाँ रहना उचित नहीं है, और न कुमार से मुलाकात होने की ही कोई आशा है।

कमलिनी : (अफसोस के साथ) चलिए।

गोपाल : (बाहर की तरफ चलते हुए) अफसोस! कुमार से कई बातें कहने की आवश्यकता थी, मगर लाचार!

कमलिनी : (धनपत की तरफ इशारा करके) इसे आप कहाँ-कहाँ लिये फिरेंगे और यहाँ क्यों ले आये थे?

गोपाल : इसे मैं कल गिरफ्तार करके इसी मकान के अन्दर छोड़ गया था। मुझे आशा थी कि यह स्वयं इस मकान से बाहर न निकल सकेगा, मगर आज इस मकान में आकर देखा तो बड़ा ही आश्चर्य हुआ। इस मकान के तीन दरवाज़े यह खोल चुका था और चौथा दरवाज़ा यह खोला चाहता था। न मालूम इस मकान का भेद इसे क्यों कर मालूम हुआ।

कमलिनी : इसे आपने किस रीति से गिरफ्तार किया?

गोपाल : पहिले इस कम्बख्त का इन्तजाम कर लूँ, तो इसका अनूठा किस्सा कहूँ।

कमलिनी और लाडिली के साथ धनपत का हाथ पकड़े हुए राजा गोपालसिंह उस मकान के बाहर आये और देवमन्दिर की तरफ रवाना होकर उसके पश्चिमी तरफवाले मकान के पास पहुँचे। हम ऊपर लिख आये हैं कि देवमन्दिर के पश्चिम तरफ वाले मकान के पास दरवाज़े पर हड्डियों का एक ढेर था और उसके बीचोबीच में लोहे की एक जंजीर पड़ी हुई थी जिसका दूसरा सिरा उसके पास वाले कूएँ के अन्दर गया हुआ था।

धनपत को घसीटते हुए राजा गोपालसिंह उसी कूएँ पर गये और उस हरामजादे स्त्री रूपधारी मर्द को जबर्दस्ती उसी कूएँ के अन्दर ढकेल दिया इसके साथ ही उस कूएँ के अन्दर से धनपत के चिल्लाने की आवाज़ आने लगी, परन्तु राजा गोपालसिंह, कमलिनी और लाडिली ने उस पर कुछ ध्यान न दिया। तीनों आदमी देवमन्दिर में आकर बैठ गये और बातचीत करने लगे।

कमलिनी : हाँ, अब पहिले यह कहिए कि भूतनाथ ने क्या किया मैंने उसे आपके पास भेजा था, इसलिए पूछती हूँ कि उसने अपना काम ईमानदारी से किया या नहीं!

गोपाल : बेशक, भूतनाथ ने अपना काम हद से ज्यादा ईमानदारी के साथ किया। वह जाहिर में मायारानी के साथ ऐसा मिला कि उसे भूतनाथ पर विश्वास हो गया और वह समझने लगी कि भूतनाथ इनाम की लालच से मेरा काम उद्योग के साथ करेगा।

कमलिनी : हाँ, उसने मायारानी के साथ मेल पैदा करने का हाल मुझसे कहा था। (मुस्कुराकर) अजीब ढंग से उसने मायारानी को धोखा दिया। हमारी तरफ की मामूली सच्ची बातें कहकर, उसने अपना काम पूरा-पूरा निकाला, मगर मैं उसके बाद का हाल पूछती हूँ, जब उसे आपके पास काशी में मैंने भेजा था, क्योंकि उसके बाद अभी तक वह मुझसे नहीं मिला।

गोपाल : उसके बाद भूतनाथ ने दो-तीन काम बड़े अनूठे किये, जिनका खुलासा हाल मैं तुमसे कहूँगा, लेकिन उन कामों में एक काम सबसे बढ़-चढ़ के हुआ!

कमलिनी : वह क्या?

गोपाल : उसने मायारानी से कहा कि मैं गोपालसिंह को गिरफ्तार करके दारोगावाले मकान में कैद कर देता हूँ, तुम उसे अपने हाथ से मारकर निश्चिन्त हो जाओ। यह सुनकर मायारानी बहुत खुश हुई और भूतनाथ ने भी वह काम बड़ी खूबी के साथ किया, बल्कि इसके इनाम में अजायबघर की ताली मायारानी से ले ली!

कमलिनी : क्या अजायबघर की ताली भूतनाथ ने ले ली?

गोपाल : हाँ।

कमलिनी : यह बड़ा काम हुआ और इस काम के लिए मैंने उसे सख्त ताकीद की थी। अब वह ताली किसके पास है?

गोपाल : ताली मेरे पास है, मुझे आशा न थी कि भूतनाथ मुझे देगा, मगर उसने कोई उज्र न किया।

कमलिनी : वह आपसे किसी तरह का उज्र नहीं कर सकता, क्योंकि मैंने उसे कसम देकर कह दिया था कि जितना मुझे मानते हो, उतना ही राजा गोपालसिंह को मानना। असल बात तो यह है कि भूतनाथ बड़े काम का आदमी है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह राजा बीरेन्द्रसिंह का गुनहगार है और उसने सजा पाने लायक काम किया है, मगर वह कसूर उससे धोखे में हुआ। इश्क का भूत उसके ऊपर सवार था और उसी ने उससे वह काम कराया, पर वास्तव में उसकी नीयत साफ़ है और उस कसूर का उसे सख्त रंज है, ऐसी अवस्था में जिस तरह हो उसका कसूर माफ होना ही चाहिए।

गोपाल : बेशक बेशक, और उसके बाद तुम्हारी बदौलत उसके हाथ से कई ऐसे काम निकले हैं, जिनके आगे वह कसूर कुछ भी नहीं है।

कमलिनी : अच्छा अब खुलासा कहिए कि भूतनाथ ने आपके मारने के विषय में किस तरह मायारानी को धोखा दिया और अजायबघर की ताली क्योंकर ली?

राजा गोपालसिंह के विषय में भूतनाथ ने जिस तरह मायारानी को धोखा दिया था, उसका हाल हम ऊपर के बयानों में लिख आये हैं। इस समय वही हाल राजा गोपाल सिंह ने अपने तौर पर कमलिनी से बयान किया। ताज्जुब नहीं कि भूतनाथ के विषय में हमारे पाठकों को धोखा हुआ हो, और वे समझ बैठे हों कि भूतनाथ वास्तव में मायारानी से मिल गया, मगर नहीं, उन्हें अब मालूम होगा कि भूतनाथ ने मायारानी से मिलकर केवल अपना काम साधा, और मायारानी को हर तरह से नीचा दिखाया।

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