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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

आठवाँ बयान


अहा, ईश्वर की महिमा भी कैसी विचित्र है। बुरे कर्मों का बुरा फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। जो मायारानी अपने सामने किसी को कुछ समझती ही न थी, वही आज किसी के सामने जाने या किसी को मुँह दिखाने का साहस नहीं कर सकती। जो मायारानी कभी किसी से डरती ही न थी, वही आज पत्ते के खड़खड़ाने से भी डरकर बदहवास हो जाती है। जो मायारानी दिन-रात हँसी-खुशी में बिताया करती थी, वह आज रो-रोकर अपनी आँखें सुजा रही है। सन्ध्या के समय भयानक जंगल में उदास और दुःखी मायारानी केवल पाँच लौंडियों के साथ सिर झुकाये अपने किये हुए बुरे कर्मों को याद करके पछता रही है। रात की अवाई के कारण जैसे-जैसे अँधेरा होता जाता है, तैसे-तैसे उसकी घबराहट भी बढ़ती जाती है। इस समय मायारानी और उसकी लौंडियाँ मर्दाने भेष में हैं। लौंडियों के पास नीमचा तथा तीरकमान मौजूद है, परन्तु मायारानी केवल तिलिस्मी तमंचा कमर में छिपाये हुए है। वह घबड़ा-घबड़ाकर बार-बार पूरब की तरफ देख रही है, जिससे मालूम होता है कि इस समय उधर से कोई उसके पास आने वाला है। थोड़ी ही देर बाद अच्छी तरह अँधेरा हो गया और इसी बीच में पूरब की तरफ से किसी के आने की आहट मालूम हुई। यह लीला थी, जो मर्दाने भेष में पीतल की जालदार लालटेन लिये हुए कहीं दूर से चली आ रही थी, जब वह पास आयी, मायारानी ने घबराहट के साथ पूछा, "कहो क्या हाल है?"

लीला : हाल बहुत ही खराब है, अब तुम्हें जमानिया की गद्दी कदापि नहीं मिल सकती।

माया : यह तो मैं पहिले ही से समझे बैठी हूँ। तू दीवान साहब के पास गयी थी?

लीला : हाँ, गयी थी। उस समय उन सिपाहियों में से कई सिपाही वहाँ मौजूद थे, जो आपके तिलिस्मी बाग में रहते हैं और जिन्होंने दोनों नकाबपोशों का साथ दिया था। उस समय वे सिपाही दीवान साहब से दोनों नकाबपोशों का हाल बयान कर रहे थे, मगर मुझे देखते ही चुप हो गये।

माया : तब क्या हुआ।

लीला : दीवान साहब ने मुझे एक तरफ बैठने का इशारा किया और पूछा कि ‘तू यहाँ क्यों आयी है’? इसके जवाब में मैंने कहा कि ‘मायारानी हम लोगों को छोड़कर न मालूम कहाँ चली गयी। जब चारों तरफ ढूँढ़ने पर भी पता न लगा तो इत्तिला के लिए आपके पास चली आयी हूँ’। यह सुनकर दीवान साहब ने कहा कि ‘अच्छा ठहर, मैं इन सिपाहियों से बातें कर लूँ तब तुझसे करूँ’।

माया : अच्छा तब तूने उन सिपाहियों की बातें सुनीं?

माया : जी नहीं, सिपाहियों ने मेरे सामने बात करने से इन्कार किया और कहा कि ‘हम लोगों को लीला पर विश्वास नहीं है’! आखिर दीवान साहब ने मुझे बाहर जाने का हुक्म दिया। उस समय मुझे अन्दाज से मालूम हुआ कि मामला बेढब हो गया और ताज्जुब नहीं कि मैं गिरफ्तार कर ली जाऊँ इसलिए पहरेवालों से बात बनाकर मैंने अपना पीछा छुड़ाया और भागकर मैदान का रास्ता लिया।

माया : संक्षेप में कह कि उन दोनों नकाबपोशों का भेद मालूम हुआ कि नहीं।

लीला : दोनों नकाबपोशों का असल भेद कुछ भी न मालूम हुआ, हाँ, उस आदमी का पता लग गया, जिसने बाग से निकल भागने का विचार करती समय गुप्त रीति से कहा था कि ‘बेशक-बेशक, तुम मरते-मरते भी हजारों घर चौपट करोगी’!

माया : हाँ, कैसे पता लगा? वह कौन था?

लीला : वह भूतनाथ था। जब मैं दीवान साहब के यहाँ से भागकर शहर के बाहर हो रही थी। तब यकायक उससे मुलाकात हुई। उसने स्वयं मुझसे कहा कि ‘फलानी बात का कहनेवाला मैं हूँ, तू मायारानी से कह दीजियो कि अब तेरे दिन खोटे आये हैं, अपने किये का फल भोगने के लिए तैयार हो रहे, हाँ, यदि मुझे कुछ देने की सामर्थ्य हो तो मैं तेरा साथ दे सकता हूँ।

माया : (ऊँची साँस लेकर) हाय! अच्छा और क्या-क्या मालूम हुआ?

लीला : हाल क्या कहूँ? राजा बीरेन्द्रसिंह की बीस हजार फौज आ गयी है, जिसकी सरदारी नाहरसिंह कर रहा है। दीवान साहब ने एक सरदार को पत्र देकर नाहरसिंह के पास भेजा था, मालूम नहीं इस पत्र में क्या लिखा था, मगर नाहरसिंह ने यह जवाब, जुबानी कहला भेजा कि हम केवल मायारानी को गिरफ्तार करने के लिए आये हैं। इसके बाद पता चला कि दीवान साहब ने आपकी खोज में कई जासूस रवाना किये हैं।

माया : तो इससे निश्चित होता है कि कम्बख्त दीवान भी मेरा दुश्मन हो गया।

लीला : क्या इस बात में अब भी शक है?

माया : (लम्बी साँस लेकर) अच्छा और क्या मालूम हुआ?

लीला : एक बात सबसे ज्यादा ताज्जुब की मालूम हुई।

माया : वह क्या?

लीला : रात के समय मैं भेष बदलकर राजा बीरेन्द्रसिंह के लश्कर में गयी थी। घूमते-फिरते ऐसी जगह पहुँची, जहाँ से नाहरसिंह का खेमा सामने दिखायी दे रहा था और उस खेमे के दरवाज़े पर मशाल हाथ में लिये हुए पहरा देने वाले सिपाहियों की चाल साफ़-साफ़ दिखायी दे रही थी। मैंने देखा कि खेमे के अन्दर से दो नकाबपोश निकले और जहाँ मैं खड़ी थी, उसी तरफ आने लगे।

मैं किनारे हट गयी। जब वे मेरे पास से होकर निकले तो उनकी चाल और उनके कद से मुझे निश्चय हो गया कि वे दोनों नकाबपोश वही हैं, जो हमारे बाग में आये थे और जिन्होंने धनपत को पकड़ा था।

माया : हाँ!

लीला : जी हाँ!

माया : अफसोस, इसका पता कुछ भी न लगा कि वे दोनों आखिर हैं कौन, मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे खास बाग के तिलिस्मी भेदों को जानते हैं और इस समय तेरी जुबानी सुनने से यह जाना जाता है कि वे दोनों राजा बीरेन्द्रसिंह के पक्षपाती भी हैं।

लीला : इसका निश्चय नहीं हो सकता कि वे दोनों नकाबपोश राजा बीरेन्द्रसिंह के पक्षपाती हैं, शायद वे नाहरसिंह से मदद लेने गये हों।

माया : ठीक है, यह भी हो सकता है। बात तो यह है कि मैं सिवाय गोपालसिंह के और किसी से नहीं डरती, न मुझे रिआया के बिगड़ने का डर है, न सिपाहियों या फौज के बागी होने का खौफ, न दीवान मुत्सद्दियों के बिगड़ने का अन्देशा और न कमलिनी और लाडिली की बेवफाई का रंज—क्योंकि मैं इन सभी को अपनी करामात से नीचा दिखा सकती हूँ, हाँ, यदि गोपालसिंह के बारे में कमबख्त भूतनाथ ने मुझे धोखा दिया है जैसा कि तू कह चुकी है तो बेशक खौफ की बात है। अगर वह जीता है तो मुझे बुरी तरह हलाल करेगा। वह इस बात से कदापि नहीं डरेगा कि मेरा भेद खुलने उसकी बदनामी होगी, क्योंकि मैंने उसके साथ बहुत बुरा सलूक किया है। जिस समय कमबख्त कमलिनी और बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने गोपालसिंह को कैद से छुड़ाया था, यदि गोपालसिंह चाहता तो उसी समय मुझे जहन्नुम में मिला सकता था, मगर उसका ऐसा न करना मेरा कलेजा और भी दहला रहा है, शायद मौत से भी बढ़कर कोई सजा उसने मेरे लिए सोच ली है, हाय अफसोस! मैंने तिलिस्मी भेद जानने के लिए, उसे क्यों इतने दिनों तक कैद में रख छोड़ा! उसी समय उसे मार डाला होता तो यह बुरा दिन क्यों देखना पड़ता? हाय, अब तो मौत से भी कोई भारी सजा मुझे मिलनेवाली है। (रोती है)

लीला : अब रोने का समय नहीं है, किसी तरह जान बचाने की फिक्र करनी चाहिए।

माया : (हिचकी लेकर) क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? किससे मदद माँगूँ? ऐसी अवस्था में कौन मेरी सहायता करेगा? हाय, आज तक मैंने किसी के साथ किसी तरह की नेकी नहीं की, किसी को अपना दोस्त न बनाया और किसी पर अहसान का बोझ न डाला, फिर किसी को क्या गरज पड़ी है, जो ऐसी अवस्था में मेरी मदद करे! बीरेन्द्रसिंह के लड़कों के साथ दुश्मनी करना मेरे लिए और भी जहर हो गया।

लीला : खैर, जो हो गया सो हो गया, इस समय इन सब बातों का सोच-विचार करना और भी बुरा है। मैं इस मुसीबत में हर तरह तुम्हारा साथ देने के लिए तैयार हूँ, और अब भी तुम्हारे पास ऐसी-ऐसी चीज़ें हैं कि उनसे कठिन-से-कठिन काम निकल सकता है, रुपये-पैसे की तरफ से कुछ तकलीफ हो ही नहीं सकती, क्योंकि सेरों जवाहिरात पास में मौजूद है, फिर इतनी चिन्ता क्यों कर रही हो?

माया : चिन्ता क्यों न की जाय? एक मनोरमा का मकान छिपकर रहने योग्य था, सो वहाँ भी बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों के चरण जा पहुँचे। तू ही कह चुकी है कि किशोरी और कामिनी को ऐयार लोग छुड़ाकर ले गये। नागर को भी उन लोगों ने फँसा लिया होगा। अब सबसे पहिला काम तो यह है कि छिपकर रहने के लिए कोई जगह खोजी जाय, इसके बाद जो कुछ करना होगा किया जायगा। हाय, अगर गोपालसिंह की मौत हो गयी होती तो न मुझे रिआया के बागी होने का डर था और न राजा बीरेन्द्रसिंह की दुश्मनी का।

लीला : छिपकर रहने के लिए मैं जगह का बन्दोबस्त कर चुकी हूँ। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर...

लीला इससे ज्यादे कुछ कहने न पायी थी कि पीछे की तरफ से कई आदमियों के दौड़ते हुए आने की आहट मालूम हुई। बात-की-बात में वे लोग जो वास्तव में चोर थे, चोरी का माल लिये हुए उसी जगह आ पहुँचे, जहाँ मायारानी और उसकी लौंडियाँ बैठी बातें कर रही थीं। ये चोर गिनती में पाँच थे और उनके पीछे-पीछे कई सवार भी उनकी गिरफ्तारी के लिए चले आ रहे थे, जिनके घोड़ों के टापों की आवाज़ बखूबी आ रही थी। जब वे चोर मायारानी के पास पहुँचे तो यह सोचकर कि पीछा करने वाले सवारों के हाथ से बचना मुश्किल है, चोरी का माल उसी जगह पटककर आगे की तरफ भाग गये और इसके थोड़ी ही देर बाद वे कई सवार भी उसी जगह (जहाँ मायारानी थी) आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि कई आदमी* बैठे हुए हैं, बीच में एक लालटेन जल रही है, और चोरी का माल भी उसी जगह पड़ा हुआ है। उन्हें निश्चय हो गया कि ये ही चोर हैं, अस्तु, उन्होंने मायारानी तथा उसकी लौंडियों को चारों तरफ से घेर लिया। (*मायारानी और उसकी लौंडियाँ मर्दाने भेष में थीं।)

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