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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

छठवाँ बयान

लीला की जुबानी दोनों नकाबपोशों, सिपाहियों और धनपत का हाल सुनकर मायारानी बहुत ही उदास और परेशान हो गयी। वह आशा, जो तिलिस्मी दरवाज़ा बन्द करने और बेहोशी का अद्भुत धूरा छिड़कने पर उसे बँधी थी, बिल्कुल जाती रही। तिलिस्म में जाकर दरवाज़े को बन्द करना, तिलिस्मी दवा पीना और लीला को पिलाना, बेहोशी की बुकनी फूलों के गमले में डालना, सब बिल्कुल ही व्यर्थ हो गया। धनपत दोनों नकाबपोशों के कब्जे में पड़ गया और सब सिपाही भी सहज ही में बाग के बाहर हो गये। इस समय उन दोनों नकाबपोशों की कार्रवाईयों ने उसे इतना बदहवास कर दिया कि वह अपने बचाव की कोई अच्छी सूरत सोच नहीं सकती थी। आखिर वह हर तरह से दुःखी होकर फिर उसी तहखाने के अन्दर गयी, जिसमें पहिली दफे जाकर बाग के दूसरे दर्जे का दरवाज़ा तिलिस्मी रीति से बन्द किया था। हम ऊपर लिख आये हैं कि वहाँ दीवार में बिना दरवाज़े की पाँच आलमारियाँ थीं और एक आलमारी में ताँबे के बहुत-से डिब्बे रक्खे थे। इस समय मायारानी ने उन्हीं डिब्बों को खोल-खोलकर देखना शुरू किया। ये डिब्बे छोटे और बड़े हर प्रकार के थे। कई डिब्बे खोल-खोलकर देखने के बाद मायारानी ने एक डिब्बा खोला, जिसका पेटा एक हाथ से कम न होगा। उस डिब्बे में एक हाथी दाँत का तमंचा बारह अंगुल का और छोटी-छोटी बहुत-सी गोलियाँ रक्खी हुई थीं। उन गोलियों का रंग लाल था, और उनके अलावे एक ताम्रपत्र भी उस डिब्बे के अन्दर था। मायारानी इस डिब्बे को लेकर वहाँ से रवाना हुई, अपने स्थान पर उस जगह पहुँची, जहाँ उसकी लौंडियाँ, उसकी राह देख रही थीं। उसने सब लौंडियों के सामने ही उस डिब्बे को खोला और ताम्रपत्र हाथ में लेकर पढ़ने लगी, जब पूरी तरह पढ़ चुकी तो लीला की तरफ देखकर बोली, "तू देखती है कि मैं किस बला में फँस गयी हूँ?"

लीला : जी हाँ, मैं बखूबी देख रही हूँ। दोनों नकाबपोशों की तरफ जब ध्यान देती हूँ, तो कलेजा काँप जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अब कोई भारी उपद्रव उठनेवाला है, क्योंकि नकाबपोशों की बदौलत इस बाग के सिपाही भी बागी हो गये हैं।

माया : बेशक, ऐसा ही है और ताज्जुब नहीं कि वे सिपाही लोग जो इस समय मेरे पंजे से निकल गये हैं, मेरे बाकी के फौजी सिपाहियों को भी भड़कावें।

लीला : इसमें कुछ भी सन्देह नहीं, बल्कि इन सिपाहियों की बदौलत आपकी रिआया भी बागी हो जायगी और तब जान बचाना मुश्किल हो जायगा। अफसोस, आपने व्यर्थ ही अपने दोनों भेद मुझसे छिपा रक्खे, नहीं तो मैं इस विषय में कुछ राय देती!

माया : (ताज्जुब से) दोनों भेद कौन-से?

लीला : एक तो यही धनपतवाला।

माया : हाँ, ठीक है, और दूसरा कौन?

लीला : (मायारानी के कान की तरफ झुककर धीरे से) ‘राजा गोपालसिंहवाला, जिन्हें भूतनाथ की मदद से आप ने मार डाला!"

लीला की बात सुनकर मायारानी चौंक पड़ी, अपनी जगह से उठ खड़ी हुई और लीला का हाथ पकड़के किनारे ले जाकर धीरे-से बोली, "देख लीला, तू केवल मेरी लौंडियों की सरदार ही नहीं है, बल्कि बचपन की साथी और मेरी सखी भी है। सच बता गोपालसिंह वाला भेद तुझे कैसे मालूम हुआ?"

लीला : आप जानती ही हैं कि मुझे कुछ ऐयारी का भी शौक है।

माया : हाँ, मैं खूब जानती हूँ कि तू ऐयारी भी कर सकती है, लेकिन इस किस्म का काम मैंने तुझसे कभी लिया नहीं।

लीला : यह मेरी बदकिस्मती थी, नहीं तो मैं अब तक एक ऐयारा की पदवी पा चुकी होती।

माया : ठीक है, खैर, तो इससे मालूम हुआ कि तूने ऐयारी से गोपालसिंह वाला भेद मालूम कर लिया?

लीला : जी हाँ, ऐसा ही है, मैंने ऐयारी से और भी बहुत-से भेद मालूम कर लिये हैं, जिनकी खबर आपको भी नहीं और जिनको इस समय कहना उचित नहीं समझती, मगर शीघ्र ही उस विषय में मैं आप से बात-चीत करूँगी। इस समय तो मुझे केवल इतना ही कहना है कि किसी तरह अपनी जान बचाने की फिक्र कीजिए, क्योंकि मुझे भूतनाथ की दोस्ती पर शक है।

माया : क्या तू समझती है कि भूतनाथ ने मुझे धोखा दिया?

लीला : जी हाँ, बल्कि मैं तो यही समझती हूँ कि राजा गोपालसिंह मारे नहीं गये, बल्कि जीते हैं।

माया : अगर ऐसा है तो बड़ा ही गजब हो जायगा, मगर इसका कोई सबूत भी है?

लीला : आज तो नहीं, मगर कल तक मैं इसका सबूत आपको दे सकूँगी।

माया : अफसोस, अफसोस। मैं इस समय किले में जाकर अपने दीवान से राय लेने वाली थी, मगर अब तो कुछ और ही सोचना पड़ा।

लीला : (उस डिब्बे की तरफ इशारा करके जो अभी तिलिस्मी तहखाने में से मायारानी लायी थी) पहिले यह बताइये कि इस डिब्बे को आप किस नीयत से लायी हैं? यह हाथी दाँत का तमंचा कैसा है, और ये गोलियाँ क्या काम दे सकती हैं?

माया : ये गोलियाँ इसी तमंचे में रखकर चलायी जाँयगी। इसके चलाने में किसी तरह की आवाज़ नहीं होती और गोली भी आध-कोस तक जा सकती है। जब यह गोली किसी के बदन पर लगेगी या जमीन पर गिरेगी तो एक आवाज़ देकर फट जायगी और इसके अन्दर से बहुत-सा जहरीला धुआँ निकलेगा। वह धुआँ जिस-जिसके नाक में जायगा, वह आदमी फौरन ही बेहोश हो जायगा। अगर हजार आदमियों की भी भीड़ आ रही हो तो, उन सभों को बेहोश करने के लिए, केवल दस-पाँच गोलियाँ काफी हैं।

लीला : बेशक, यह बहुत अच्छी चीज़ है और ऐसे समय में आपको बड़ा काम दे सकती है, मगर मैं समझती हूँ कि उस डिब्बे में पाँच सौ से ज्यादे गोलियाँ न होंगी, इसके बाद कदाचित् वह ताम्रपत्र* कुछ काम दे सके जो उस डिब्बे में है, और जिसे आपने हम लोगों के सामने पढ़ा था। (* ताम्रपत्र—ताँबे की तख्ती, जिस पर कुछ लिखा या खुदा हुआ हो।)

माया : वाह, तुम बहुत समझदार हो। बेशक, ऐसा ही है। इस ताम्रपत्र में उन गोलियों के बनाने की तरकीब लिखी है। इस तिलिस्म में ऐसी हजारों चीज़ें हैं, मगर लाचार हूँ कि तिलिस्म का पूरा हाल मुझे मालूम नहीं है, बल्कि चौथे दर्जे के विषय में तो मैं कुछ भी नहें जानती। फिर भी जो कुछ मैं जानती हूँ या जहाँ तक मैं तिलिस्म में जा सकती हूँ, वहाँ ऐसी और भी कितनी ही चीज़ें हैं, जो इस समय मेरे काम आ सकती हैं।

लीला : अब यही समय है कि उन चीज़ों को लेकर आप यहाँ से चल दीजिए, क्योंकि इस बाग तथा आपके राज्य पर आफत आया ही चाहती है। मैंने सुना है कि राजा बीरेन्द्रसिंह की बेशुमार फौज जमानिया की तरफ आ रही है, बल्कि यों कहना चाहिए कि आजकल में पहुँचा ही चाहती है।

माया : हाँ, यह खबर तो मैंने भी सुनी है। यदि गोपालसिंह का और धनपत का मामला न बिगड़ा होता तो मैं मुकाबला करने के लिए तैयार हो जाती, परन्तु इस समय मुझे अपनी रिआया में से किसी का भी भरोसा नहीं है।

लीला : भरोसे के साथ-ही-साथ आप यह समझ रखिए कि आप अपने किसी नौकर पर हुकूमत की लाल आँख भी अब नहीं दिखा सकतीं। मगर इन बातों में वृथा देर हो रही है। इस विषय को बहुत जल्द तय कर लेना चाहिए कि अब क्या करना और कहाँ जाना मुनासिब होगा।

माया : हाँ, ठीक है, मगर इसके भी पहिले मैं तुमसे पूछती हूँ कि तुम इस मुसीबत में मेरा साथ देने के लिए कब तक तैयार रहोगी?

लीला : जब तक मेरी जिन्दगी है, या जब तक आप मुझ पर भरोसा करेंगी।

माया : यह जवाब तो साफ़ नहीं है, बल्कि टेढ़ा है।

लीला : इस पर आप अच्छी तरह गौर कीजिएगा, मगर यहाँ से निकल चलने के बाद।

माया : अच्छा यह तो बताओ कि मेरी और लौंडियों के क्या हाल हैं?

लीला : आपकी लौंडियों में केवल चार-पाँच ऐसी हैं, जिनपर मैं भरोसा कर सकती हूँ, बाकी लौंडियों के विषय में, मैं कुछ भी नहीं कह सकती और न उनके दिल का हाल ही जाना जा सकता है।

माया : (ऊँची साँस लेकर) हाय, यहाँ तक नौबत पहुँच गयी! यह सब मेरे पापों का फल है। अच्छा जो होगा देखा जायगा। इस अनूठे तमंचे और गोलियों को मैं सम्हालती हूँ और थोड़ी देर के लिए पुनः तिलिस्मी तहखाने में जाकर देखती हूँ कि मेरे काम की ऐसी कौन-सी चीज़ है जिसे सफर में अपने साथ ले जा सकूँ। जो कुछ हाथ लगे सो ले आती हूँ और बहुत जल्द तुमको और उन लौंडियों को साथ लेकर निकल भागती हूँ, जिन पर तुम भरोसा रखती हो। कोई हर्ज नहीं, इस गयी-गुजरी हालत में भी मैं एक दफे लाखों दुश्मनों को जहन्नुम में पहुँचाने की हिम्मत रखती हूँ!

इसके जवाब में पीछे की तरफ से किसी गुप्त मनुष्य ने कहा— "बेशक बेशक, तुम मरते-मरते भी हजारों घर चौपट करोगी!!"

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