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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

चौथा बयान


नानक को तो हमने इस तरह भुला दिया जैसे अमीर लोग किसी से कुछ वादा करके उसे भुला देते हैं। आज अकस्मात नानक की याद आयी है, अकस्मात काहे, बल्कि यों कहना चाहिए कि यकायक आ पड़ने वाली आवश्यकता ने नानक की याद दिला दी।

जमानिया प्रान्त से भागे हुए स्वार्थी नानक वहाँ से बहुत दूर जाकर अपना डेरा बसाया और, यही सबब है कि आज मिथिलेश की अमलदारी में एक छोटे-से शहर के मामूली महल्ले में मँगनी का मकान लेकर लापरवाही के साथ दिन बिताते हुए नानक को हम देखते हैं। यह शहर यद्यपि छोटा है, मगर दो-तीन पढ़े लिखे विद्यानुरागी रईसों और अमीरों के कारण, जिन पर यहाँ की रिआया का बहुत बड़ा प्रेम है, अँगूठी का सुडौल नगीना हो रहा है।

नानक यद्यपि कंगाल नहीं था, मगर बहुत ही खुदगर्ज और साथ-साथ कंजूस भी होने के कारण अपने को छिपाये हुए बहुत ही साधारण ढंग से रहा करता था अर्थात् उसके घर में (कुत्ते-बिल्ली को छोड़) एक नौकर एक मजदूरनी और एक उसकी जोरू के सिवाय, जिसे वह न मालूम कहाँ से उठा लाया था, या ब्याह लाया था, और कोई भी नहीं रहता था। लोगों का कथन तो यही था कि नानक ने ब्याह करके अपनी ग्रहस्थी बसायी है, मगर कई आदमियों को, जो नानक के साथ-ही-साथ रामभोली के किस्से से भी अच्छी तरह जानकार थे, इस बात का विश्वास नहीं होता था।

नानक के लिए यह शहर नया नहीं है। जब से उसका नाम इस किस्से में आया है, उसके पहिले भी समय-समय पर कई दफे वह इस शहर में आकर रह चुका है। अबकी दफे यद्यपि उसे इस शहर में आये हुए बहुत दिन नहीं हुए हैं, मगर वह इस ढंग से रह रहा है, जैसे पुराना बाशिन्दा हो। वह यह भी सोचे हुए है कि उसका गुमनाम बाप, अर्थात् भूतनाथ जिसका असल हाल थोड़े ही दिन हुए उसे मालूम हुआ है, बहुत जल्द बीरेन्द्रसिंह की बदौलत मालामाल होकर शहर में आवेगा, और उस समय हम लोग बड़ी खुशी से जिन्दगी बितावेंगे, मगर उसकी इस आशा को भारी धक्का लगा, जैसाकि आगे चलकर मालूम होगा।

रात पहर-भर के लगभग जा चुकी है। नानक अपने मकान के अन्दर दालान को बिछावन, आसन और रोशनी के सामान से इस तरह सजा रहा है, जैसे किसी नये या बहुत ही रेप्या मेहमान की अवाई सुनकर जाहिरदारी के शौकीन लोग लजाया करते हैं। उसकी स्त्री भी खाने-पीने के सामान की तैयारी में चारों तरफ मटकती फिरती है, और थालियों को तरह-तरह के खाने तथा कई प्रकार के मांस से सजा रही है। उसकी सूरत शक्ल और चाल-ढाल से यह भी पता लगता है कि उसे अपने मेहमान के आने की खुशी नानक से भी ज्यादे है। खैर इस टीमटाम के बयान को तो जाने दीजिए, मुख्तसर यह है कि बात-की-बात में सब सामान दुरुस्त हो गया और नानक की स्त्री ने अपनी लौंडी से कहा—"अरे जरा आगे बढ़के देख तो सही गज्जू बाबू आते हैं, या नहीं!!"

लौंडी : (धीरे से, जिसमें दूसरा कोई सुनने न पावे) बीबी जल्दी क्यों करती हो, वे तो यहाँ आने के लिए तुमसे भी ज्यादे बेचैन हो रहे होंगे।

बीबी : (मुस्कुराकर धीरे से) कमबख्त—यह तू कैसे जानती है?

लौंडी : तुम्हारी और उनकी चाल से क्या मैं नहीं जानती? क्या उस एकादशी के रात वाली बात भूल जाऊँगी? (अपना बाजू दिखाकर) देखो यह तुम्हारी...

लौंडी अपनी बात पूरी भी न करने पायी थी कि मटकते हुए नानक भी उसी तरफ आ पहुँचे, और लाचार होकर लौंडी को चुप रह जाना पड़ा।

नानक : (सजी हुई थालियों की तरफ देखके) अरे, इसमें मुरब्बा तो रक्खा ही नहीं!

बीबी : मुरब्बा क्या खाक रखती! न मालूम कहाँ से सड़ा हुआ मुरब्बा उठा लाये! वह उनके खाने लायक भी है? लखपती आदमी की थाली में रखते शर्म तो नहीं मालूम पड़ती!

नानक : मेरा तो दो आना पैसा उसमें लग गया, और तुम्हें पसन्द ही नहीं। क्या मैं अन्धा था, जो सड़ा हुआ मुरब्बा उठा लाता!

बीबी : तुम्हारे अन्धे होने में शक ही क्या है? ऐसे ही आँखवाले होते तो रामभोली, अपनी माँ और अपने बाप के पहिचानने में वर्षों तक काहे झक मारते रहते।

नानक : (चिढ़कर) तुम्हारी बातें तो तीर की तरह लगती हैं! तुम्हारे तानों ने तो कलेजा पका दिया! रोज-रोज की किचकिच ने तो नाकों दम कर लिया! न मालूम कहाँ की कमबख्ती आयी थी, जो तुम्हें मैं अपने घर ले आया।

बीबी : (अपने मन में) कमबख्ती नहीं आयी थी, बल्कि तुम्हारा नसीब चमका था, जो मुझे अपने घर में लाये! अगर मैंन आती तो ऐसे-ऐसे अमीर तुम्हारे दरवाज़ेपर थूकने भी नहीं आते! (प्रकट) तुम्हारी कमबख्ती तो नहीं मेरी कमबख्ती आयी थी, जो इस घर में आयी! जने-जने के सामने मुँह दिखाना पड़ता है। तुम्हें तो ऐसा मकान भी न जुड़ा, जिसमें मरदानी बैठक होती और तुम्हारे दोस्तों की खिदमत से मेरी जान छूटती। अच्छा तो तभी होता जो वही गूँगी तुम्हारे घर आती, और दिन में तीन दफे झाड़ू दिलवाती। चलो, दूर हो जाओ मेरे सामने से नहीं तो अभी भण्डा फोड़ के रख दूँगी।

लौंडी : बीवी रहने भी दो, तुम तो बड़ी भोली हो, जरा सी बात में रंज हो जाती हो!

बड़ी मुश्किल से लौंडी ने लड़ाई बन्द करवायी और इतने ही में दरवाज़े पर से किसी के पुकारने की आवाज़ आयी। नानक दौड़ा हुआ बाहर गया। दरवाज़ा खोलने पर मालूम हुआ कि पाँच-सात नौकरों के साथ गज्जू बाबू आ पहुँचे हैं। इनका असल नाम ‘गजमेन्दुपाल’ था मगर अमीर होने के कारण लोग इन्हें गज्जू बाबू के नाम से पुकारा करते थे।

नौकरों को तो बाहर छोड़ा, और अकेले गज्जू बाबू आँगन में पहुँचे। नानक ने बड़ी खातिरदारी से इन्हें बैठाया, और थोड़ी देर तक गमपशप के बाद खाने की सामग्री उनके आगे रक्खी गयी।

गज्जू : अरे तो मैं अकेला ही खाऊँगा?

नानक : और क्या?

गज्जू : नहीं सो तो नहीं होगा, तुम अपनी थाली भी लाओ, मेरे सामने बैठो।

नानक : भला खाइए तो सही, मैं आपके सामने ही तो हूँ, (बैठकर) लीजिए बैठ जाता हूँ।

गज्जू : कभी नहीं, हरगिज नहीं ; मुमकिन नहीं! ज्यादे जिद्द करोगे तो मैं उठकर चला जाऊँगा!

नानक : अच्छा आप खफा न होइए, लीजिए मैं भी अपनी थाली लाता हूँ।

लाचार नानक को भी अपनी थाली लानी पड़ी। लौंडी ने गज्जू बाबू के सामने नानक के लिए आसन बिछा दिया, और दोनों आदमियों ने खाना शुरू किया।

गज्जू : वाह, गोश्त तो बहुत ही मजेदार बना है-जरा और मँगाना!

नानक : (लौंडी से) अरे जा जल्दी से गोश्त का बरतन उठा ला।

गज्जू : वाह वाह, क्या दाई परोसेगी?

नानक : क्या हर्ज है?

गज्जू : वाह, अरे हमारी भाभी साहिबा कहाँ हैं? बुलाओ साहब। जब आपके हमारे दोस्ती है तो पर्दा कहे का?

नानक : पर्दा तो कुछ नहीं है, मगर उसे आपके सामने आते शर्म मालूम होगी।

गज्जू : व्यर्थ! भला इसमें शर्म काहे की? हाँ, अगर आप कुछ शरमाते हों तो बात दूसरी है!

नानक : भला आपसे शर्म काहे की? आप-हम तो एकदिन एकजान ठहरे! आपको दोस्ती के लिए मैंने बेरादरी के लोगों तक की परवाह न की।

गज्जू : ठीक है, और मैंने भी अपने भाई साहब के नाक-भौं चढ़ाने का कुछ ख्याल न किया और तुम्हें साथ लेकर अजमेर और मक्के चलने के लिए तैयार हो गया।

नानक : ठीक है, (अपनी स्त्री से) अजी सुनो तो सही-जरा गोश्त का बर्तन लेकर यहाँ आओ।     

गज्जू : हाँ हाँ, चली आओ, हर्ज क्या है। तुम तो हमारी भाभी ठहरी, अगर जिद्द हो तो हमसे मुँह दिखायी ले लेना!

इतना सुनते ही छमछम करते हुए बीबी साहबा पर्दे से बाहर निकलीं और गोश्त का बर्तन बड़ी नजाकत से लिए दोनों महापुरुषों के पास आ खड़ी हुईं।

हम यहाँ पर बीवी साहबा का हुलिया लिखना उचित नहीं समझते, और सच तो यों है कि लिख भी नहीं सकते, क्योंकि उनके चेहरे का खास-खास हिस्सा नाम मात्र के घूँघट में छिपा हुआ था। खैर, जाने दीजिए, ऐसे तम्बाकू पीने के लिए छप्पर फूँकनेवाले लोगों का जिक्र जहाँ तक कम आये अच्छा है। हम तो आज नानक की ऐसी अवस्था देखकर हैरान हैं और कमलिनी तथा तेजसिंह की भूल पर अफसोस करते हैं। यह वही नानक है, जिसे हमारे ऐयार लोग नेक और होनहार समझते थे, और अभी तक समझते होंगे, मगर अफसोस, इस समय यदि किसी तरह कमलिनी को इस बात की खबर हो जाती कि नानक के धर्म तथा नेक चालचलन के लम्बे-चौड़े दस्तावेज को दीमक चाट गये, अब उसका विश्वास करना या उसे सच्चा ऐयार समझना अपनी जान के साथ दुश्मनी करना है, तो बहुत अच्छा होता। यद्यपि किशोरी, कमलिनी, लाडिली, लक्ष्मीदेवी और बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का दिल भूतनाथ से फिर गया है, मगर नानक पर कदाचित् अभी तक उनकी दया दृष्टि बनी हुई है।

नानक की स्त्री ने बर्तन में से दो टुकड़ा गोश्त निकालकर गज्जू बाबू की थाली में रक्खा और पुनः निकालकर थाली में रखने के लिए झुकी ही थी कि बाहर से किसी आदमी ने बड़े जोर से पुकारा, "अजी नानक हो जी!" इस आवाज़ को सुनते ही नानक चौंक गया और उसने दाई की तरफ देखके कहा, "जल्दी जा, देख तो सही कौन पुकार रहा है!"

दाई दौड़ी हुई दरवाज़े पर गयी। दरवाज़ा खोलकर जब उसने बाहर की तरफ देखा तो एक नकाबपोश पर उसकी निगाह पड़ी, जिसने चेहरे की तरह अपने तमाम बदन को भी काले कपड़े से ढाँक रक्खा था। उसके तमाम कपड़े इतने ढीले थे कि उसके अंग प्रत्यंग का पता लगाना या इतना भी जान लेना कि यह बुड्ढा है या जवान बड़ा ही कठिन था।

दाई उसे देखकर डरी। यदि गज्जू बाबू के कई सिपाही उसी जगह दरवाज़े पर मौजूद न होते, तो वह निःसन्देह चिल्लाकर मकान के अन्दर भाग जाती, मगर गज्जू बाबू के नौकरों पर निगाह पड़ने से उसे कुछ साहस हुआ और उसने नकाबपोश से पूछा—

दाई : तुम कौन हो, और क्या चाहते हो?

नकाबपोश : मैं आदमी हूँ, और नानक परसाद से मिला चाहता हूँ।

दाई : अच्छा तुम बाहर बैठो, वह भोजन कर रहे हैं, जब हाथ-मुँह धो लेगें तब आवेंगे।

नकाबपोश : ऐसा नहीं हो सकता! तू जाकर कह दे कि भोजन छोड़कर जल्दी से मेरे पास आवे। जा, देर मत कर। यदि थाली की चीज़ें बहुत स्वादिष्ट लगती हों, और जूठा छोड़ने की इच्छा न होती तो कह दीजियो कि ‘रोहतासमठ’ का पुजारी आया है।

यह बात नकाबपोश ने इस ढंग से कही कि दाई ठहरने या पुनः कुछ पूछने का साहस न कर सकी। किवाड़ बन्द करके दौड़ती हुई नानक के पास गयी और सब हाल कहा। ‘रोहतासमठ का पुजारी’ आया है, इस शब्द ने नानक को बेचैन कर दिया। उसके हाथ में इतनी ताकत भी न रही कि गोश्त के टुकड़ों को उठाकर उसके मुँह तक पहुँचा देता। लाचार उसने घबड़ाई हुई आवाज़ में गज्जू बाबू से कहा—"आधे घण्टे के लिए मुझे माफ कीजिए। उस आदमी से बातचीत करना कितना आवश्यक है, सो आप इसी से समझ सकते हैं कि घर में ऐसा दोस्त है और सामने से भरी थाली छोड़कर जाता हूँ। आपकी भाभी साहिबा आपको खुले दिल से खिलावेंगी। (अपनी स्त्री से) दो-चार गिलास आसव का भी इन्हें देना।"

इतना कहकर अपनी बात का बिना कुछ जवाब सुने ही नानक उठ खड़ा हुआ। अपने हाथ से गगरी उँडेल हाथ-मुँह धो दरवाज़े पर पहुँचा और किवाड़ खोलकर बाहर चला गया। यद्यपि इस समय नानक ने तकल्लुफ की टाँग तोड़ डाली थी, तथापि उसके चले जाने से गज्जू बाबू को किसी तरह का रंज न हुआ, बल्कि एक तरह की खुशी हुई और उन्होंने अपने दिल में कहा, "चलो इनसे भी छुट्टी मिली।"

दरवाज़े के बाहर पहुँचकर नानक ने उस नकाबपोश को देखा और बिना कुछ कहे उसका हाथ पकड़के मकान से कुछ दूर ले गया। जब ऐसी जगह पहुँचा, जहाँ उन दोनों की बातें सुननेवाला कोई दिखायी नहीं देता था तब नानक ने बातचीत आरम्भ की।

नानक : मैं तो आवाज़ ही से पहिचान गया था कि मेरे दोस्त आ पहुँचे, मगर लौंडी को इसलिए दरवाज़े पर भेजा था कि मालूम हो जाय कि आप किस ढंग से आये हैं। जब लौंडी ने आपकी तरफ से ‘रोहतासमठ के पुजारी’ का परिचय दिया, बस कलेजा दहल उठा, मालूम हो गया कि खबर भयानक है।

नकाबपोश : बेशक ऐसी ही बात है। कदाचित् तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि तुम्हारा बहुत दिनों से खोया हुआ बाप अर्थात् भूतनाथ अब मैदान की ताजी हवा खाने योग्य नहीं रहा।

नानक : हैं, सो क्यों?

नकाबपोश : उसका दुर्दैव जो बहुत दिनों तक पारे में चाँदी की तरह छिपा हुआ था, एकदम प्रकट हो गया। उसने तुम्हारी माँ को भी अष्टम चन्द्रमा की तरह कृपा-दृष्टि से देख लिया और साढ़ेसाती के कठिन शनि को भी तुमसे जै गोपाल करने के लिए कहला भेजा है, पर इससे यह न समझना कि ज्योतिषियों के बताये हुए दान का फल बनकर मैं तुम्हारी रक्षा के लिए आया हूँ। अब तुम्हें भी यह उचित है कि आजकल के ज्योतिषियों के कर्म-भण्डार से फलित विद्या की तरह जहाँ तक जल्द हो सके, अन्तर्ध्यान हो जाओ।

नानक : (डरकर) अफसोस, तुम्हारी पुरानी आदत किसी तरह कम नहीं होती। दो शब्दों में पूरी हो जाने वाली बात को भी बिना हजार शब्दों का लपेट दिये तुम नहीं रहते। साफ़ क्यों नहीं कहते कि क्या हुआ?

नकाबपोश : अफसोस, अभी तक तुम्हारी बुद्धि की कतरनी को चाटने के लिए शान का पत्थर नहीं मिला। अच्छा अब मैं साफ़-साफ़ ही कहता हूँ सुनो। तुम्हारे बाप का छिपा हुआ दोष बरसात की बदली में छिपे हुए चन्द्रमा की तरह यकायक प्रकट हो गया, इसी से तुम्हारी माँ भी दुश्मन के काबू में शेर के पंजे में बेचारी हिरनी की तरह पड़ गयी और उसी कारण से तुम पर भी उल्लू के पीछे शिकारी बाज की तरह धावा हुआ ही चाहता है। सम्भव है कि चारपाई के खटमल की तरह तब तक कोई ढूँढ़ने के लिए तैयार हो, तुम गायब हो जाओ, मगर मेरी समझ में फिर भी गरम पानी का डर बना ही रहेगा।

नानक : (चिढ़कर) आखिर तुम न मानोगे! खैर, मैं समझ गया कि मेरे बाप का कसूर बीरेन्द्रसिंह को मालूम हो गया। परन्तु उनके तेजसिंह के और कमलिनी के मुँह से निकले हुए ‘क्षमा’ शब्द पर मुझे बहुत भरोसा था यद्यपि दोष जान लेने के पहिले ही उन्होंने ऐसा किया था।

नकाबपोश : नहीं नहीं, तुम्हारे बाप ने बीरेन्द्रसिंह का जो कुछ कसूर किया था वह तो उनके ऐयारों को पहिले ही मालूम हो गया था, मगर इन नये प्रकट भये हुए दोषों के सामने, वे दोष ऐसे थे, जैसे सूर्य के सामने दीपक, चन्द्रमा के सामने जुगनू,, दिन के आगे रात, या मेरे मुकाबले में तुम!

नानक : अगर तुममें यह ऐब न होता तो तुम बड़े काम के आदमी थे। देख रहे हो कि हम लोग सड़क पर बेमौके खड़े हैं, मगर फिर भी संक्षेप में बात पूरी नहीं करते!

नकाबपोश : इसका सबब यही है कि मेरा नाम संक्षेप में या अकेले नहीं है, गोपी और कृष्ण इन दोनों शब्दों से मेरा नाम बड़े लोगों ने ठोंक मारा है, अस्तु बड़े लोगों की इज्जत का ध्यान करके मैं अपने नाम को स्वार्थ की पदवी देने के लिए सदैव तैयार रहता हूँ। इसी से गोपियों के प्रेम की तरह मेरी बातों का तौल नहीं होता और जिस तरह कृष्णजी त्रिभंगी थे, उसी तरह मेरे मुख से निकले हुए शब्द भी त्रिभंगी होते हैं। हाँ, यह तुमने ठीक कहा कि सड़क पर खड़े रहना भले मनुष्यों का काम नहीं है। अस्तु, थोड़ी दूर आगे बढ़ चलो और नदी के किनारे बैठकर मेरी बात इस तरह ध्यान से सुनो, जैसे बीमार लोग वैद्य के मुँह से अपनी दवा का अनुपान सुनते हैं। बस जल्द बढ़ों देर न करो, क्योंकि समय बहुत कम है, कहीं ऐसा न हो कि विलम्ब हो जाने के कारण बीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग आ पहुँचें और उस चरणानुरागी पात्र की मजबूती का इलाज तुम्हारे माथे ठोंके, जिसके कारण जंगली काँटों और कंकड़ियों से बचकर यहाँ तक वे लोग आ पहुँचेंगे।

नानक : (झुँझलाकर) बस माफ कीजिए, बाज़ आये आपकी बातें सुनने से। जिस सबब से हम लोग पर आफत आने वाली है, उसका पता हम आप लगा लेगें, मगर द्रोपदी के चीर की तरह समाप्त न होने वाली तुम्हारी बातें न सुनेंगे।

नकाबपोश : (हँसकर) शाबाश-शाबाश, जीते रहो, अब मैं तुमसे खुश हो गया क्यों अब तुम भी अपनी बातों में उपमालंकार की टाँगे तोड़ने लगे। सच तो यों है तुम्हारा झुँझलाना मुझे उतना ही अच्छा लगता है, जितना इस समय भूख की अवस्था में फजली आम और अधावट दूध से भरा हुआ चौसेरा कटोरा मुझे अच्छा लगता है।

नानक : तो साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते कि हम भूखे हैं, जब तक पेट भरके खा न लेगें तब तक असल मतलब न कहेंगे।

नकाबपोश : शाबाश, खूब समझे। बेशक, मैंने यही सोचा था कि तुम्हारे यहाँ दक्षिण के सहित भोजन करूँगा, और बातों का रत्ती-रत्ती भेद बता दूँगा, जिनकी बदौलत तुम कुम्भीपाक में पड़ने से भी ज्यादा दुःख भोगा चाहते हो, मगर नहीं, दरवाज़े पर पहुँचते ही देखता हूँ कि फोड़ा फूट गया और सड़ा मवाद बह निकला है। अब तुम इस लायक न रहे कि तुम्हारा छुआ पानी भी पिया जाय। खैर, तुम्हारे दोस्त हैं, जिस काम के लिए आये हैं, उसे अवश्य ही पूरा करेंगे। (कुछ सोचकर) कभी नहीं, छी: छी:, तुझ नालायक से अब हम दोस्ती रखना नहीं चाहते, जो कुछ ऊपर कह चुके हैं, उसी से जहाँ तक अपना मतलब निकाल सको निकाल लो और जो कुछ करते बने, करो, हम जाते हैं।

इतना कहकर नकाबपोश वहाँ से रवाना हो गया। नानक ने उसे बहुत समझाया और रोकना चाहा, मगर उसने एक न सुनी और सीधे नदी के किनारे का रास्ता लिया तथा नानक भी अपनी बदकिस्मती पर रोता हुआ घर पहुँचा। उस समय मालूम हुआ कि उसके नौजवान अमीर दोस्त को अच्छी तरह अपनी नायाब ज्याफत का आनन्द लेकर गये हुए आधी घड़ी के लगभग हो चुके हैं।

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