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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

दूसरा बयान


अब हम फिर मायारानी की तरफ लौटते हैं और उसका हाल लिख कई गुप्त भेदों को खोलते हैं। मायारानी भी उस चीठी को पूरा-पूरा पढ़ न सकी और बदहवास होकर जमीन पर गिर पड़ी। नागर तुरन्त उठी और भण्डारिये में से एक सुराई निकाल लायी। जिसमें बेदमुश्क का अर्थ था। वह अर्क मायारानी के मुँह पर छिड़का, जिससे थोड़ी देर बाद वह होश में आयी और नागर की तरफ देखकर बोली, "हाय अफसोस, क्या सोचा था और क्या हो गया!"

नागर : खैर, जो होना था सो हो गया, अब इस तरह बदहवास होने से काम नहीं चलेगा, उठो अपने को सम्हालो, सोचो-विचारो और निश्चय करो कि अब क्या करना चाहिए।

माया : अफसोस, उस कम्बख्त ऐयार ने बड़ा भारी धोखा दिया, और मुझसे भी बड़ी भारी भूल हुई कि लक्ष्मीदेवीवाला भेद उसके सामने जुबान से निकाल बैठी! यद्यपि उस इशारे से वह कुछ समझ न सकेगा, परन्तु जिस समय गोपालसिंह के सामने लक्ष्मीदेवी का नाम लेगा और वे बातें कहेगा जो मैंने उस दारोगा रूपधारी ऐयार से कही थीं तो वह बखूबी समझ जायगा और मेरे विषय में उसका क्रोध सौ गुना हो जायगा। यदि मेरे बारे में वह किसी तरह की बदनामी समझता भी था तो अब न समझेगा। हाय, अब जिन्दगी की कोई आशा न रही।

नागर : लश्र्मीदेवी का नाम ले के जो कुछ तुमने कहा, उससे मुझे भी शक हो गया। क्या असल में...

माया : ओफ, यह भेद सिवाय असली दारोगा के किसी को भी मालूम नहीं। आज—(कुछ रुककर) नहीं, अब भी मैं उस भेद को छिपाने का उद्योग करूँगी और तुझसे कुछ भी न कहूँगी, बस अब लक्ष्मीदेवी का नाम तुम मेरे सामने मत लो। (चीठी की तरफ इशारा करके) अच्छा इस चीठी को तुम एक दफे फिर से पढ़ जाओ।

नागर ने वह चीठी उठा ली और जिसके पढ़ने से मायारानी की वह हालत हुई थी और पुनः उसे पढ़ने लगी—

"बुरे कर्मों को करनेवाला कदापि सुख नहीं भोग सकता। तू समझती होगी कि मैं राजा गोपालसिंह, देवीसिंह, भूतनाथ, कमलिनी और लादिली को निश्चन्त हो गयी, अब मुझे सतानेवाला कोई भी न रहा। इस बात का तो तुझे गुमान भी न होगा कि मैं सुरंग में असली दारोगा से नहीं मिली, बल्कि ऐयारों के गुरुघण्टाल तेजसिंह से मिली, जो दारोगा के वेष में था, और यह बात भी तुझे सूझी न होगी कि दारोगा वाले मकान की ताली की बदौलत जो सुरंग में मैंने तुझसे ले ली थी और भोजन तथा जल और पहुँचाने के समय कैदियों को होश में लाकर दे दी थी, निकल गये। अहा, परमात्मा, तू धन्य है! तेरी अदालत बहुत सच्ची है। ऐ कम्बख्त मायारानी, अब तू सब कुछ इसी से सबकुछ हँसी से समझ जा कि मैं वास्तव में तेजसिंह हूँ।

तेरा जो कुछ तू समझे—तेजसिंह।"

इस चीठी को सुनते ही मायारानी का सिर घूमने लगा और वह डर के मारे थर-थर काँपने लगी। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह उठ बैठी और नागर की तरफ देखकर बोली—

"यह तेजसिंह भी बड़ा ही शैतान है, इसने दो दफे भारी धोखा दिया। अफसोस, अजायबघर की ताली हाथ में आकर फिर निकल गयी, केवल ये दोनों तिलिस्मी खंजर मेरे हाथ में रह गये, मगर इनसे मेरी जान नहीं बच सकती। सबसे ज्यादे अफसोस तो इस बात का है कि लक्ष्मीदेवीवाला भेद अब खुल गया और यह बात मेरे लिए बहुत ही बुरी हुई। (कुछ सोचकर) हाय, अब मैं समझी कि इस तिलिस्मी खंजर का असर तेजसिंह पर इसलिए नहीं हुआ कि उसके पास भी जरूर इसी तरह का एक खँजर तथा ऐसी ही अँगूठी होगी!"

नागर : बेशक यही बात है। खैर, अब यह बहुत जल्द सोचना चाहिए कि हम लोगों की जान कैसे बच सकती है।

मायारानी इसका कुछ जवाब दिया ही चाहती थी कि सामने का दरवाज़ा खुला और मायारानी के दारोगा साहब अन्दर आते हुए दिखायी पड़े। उन्हें देखते ही मायारानी क्रोध के मारे लाल हो गयी और कड़ककर बोली, "तुझ कम्बख्त को यहाँ किसने आने दिया! खैर, अच्छा ही हुआ जो तू आ गया। मुझे मालूम हो गया कि तेरी मौत, तुझे यहाँ पर लायी है। हाँ, अगर तेरी चीठी मुझे न मिली रहती तो मैं फिर धोखे में आ जाती। कमबख्त, वालायक, तूने मुझे बड़ा भारी धोखा दिया! अब तू मेरे हाथ से बचकर नहीं जा सकता।"

दारोगा : तू अपने होश में भी है या नहीं? क्या अपने को बिल्कुल भूल गयी! क्या तू नहीं जानती कि किससे किया कह रही है? मेरी मौत नहीं बल्कि तेरी मौत आयी है, जो तू जुबान सम्हालकर नहीं बोलती।

माया : (खड़ी होकर और तिलिस्मी खंजर हाथ में लेकर) हाँ, ठीक है, यदि मैं अपने होश में रहती तो तुझ कमबख्त के फेरे में पड़ती ही क्यों? बेईमान कहीं का, तैने मुझे बड़ा भारी धोखा दिया, देख अब मैं तेरी क्या दुर्गति करती हूँ।

नागर : ताज्जुब है कि इतनी बड़ी बदमाशी करने पर भी तू निडर होकर यहाँ कैसे चला आया! मालूम होता है कि अपनी जान से हाथ धो बैठा। कोई हर्ज नहीं, अगर तिलिस्मी खंजर का असर तुझ पर नहीं होता तो मैं दूसरी तरह से तेरी खबर लूँगी।

इस समय मायारानी की फुर्ती देखने ही योग्य थी। वह बाघिन की तरह झपटकर दारोगा के पास पहुँची। इस समय उसकी उँगली में एक जहरीली अँगूठी उसी तरह की थी, जैसी नागर के हाथ में उस समय थी, जब उसने सूनसान जंगल में भूतनाथ को अँगूठी गाल में रगड़कर बेहोश किया था। इस समय मायारानी ने भी वही काम किया, अर्थात् वह अँगूठी जिस पर जहरीला नोकदार नगीना जड़ा हुआ था, दारोगा के गाल में इस फुर्ती और चालाकी से रगड़ दी कि वह बेचारा कुछ भी न कर सका। उस नगीने की रगड़ से गाल जरा-ही सा छिला था, मगर जहर का असर पल-भर में अपना काम कर गया। दारोगा चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। मायारानी ने नागर की तरफ देखा और कहा, "अब इसके हाथ-पैर जकड़ के बाँध दो और तब होश में लाकर पूछो कि ‘कहिए तेजसिंह आपका मिजाज कैसा है ’? इसके जवाब में नागर ने कहा, "केवल हाथ-पैर ही बाँधकर नहीं छोड़ दो, बल्कि थोड़ी-सी नाक काट लो और नकली दाढ़ी उखाड़कर फेंक दो और तब होश में लाकर पूछो कि ‘कहिए ऐयारों के गुरुघण्टाल तेजसिंह, आपका मिजाज कैसा है’?"

इस समय मायारानी यही समझ रही थी कि यह दारोगा वास्तव में वही तेजसिंह है, जिसने उसे अनूठी रीति से धोखा दिया था, बल्कि वह उसके शक पर भी बागीचे में घूमने के समय हरएक पत्ते से डरती फिरे तो ताज्जुब नहीं, परन्तु हमारे पाठक समझते होंगे कि तेजसिंह ऐसे बेवकूफ नहीं हैं, जो मायारानी को धोखा देकर, बल्कि अपने धोखे का परिचय देकर, फिर उसके सामने उसी सूरत में आवें, बल्कि, जिस सूरत में उन्होंने धोखा दिया था, और वास्तव में बात भी ऐसी ही है। यह तेजसिंह नहीं थे, बल्कि मायारानी के असली दारोगा साहब थे, मगर अफसोस इस समय उनकी दाढ़ी नोचने तथा नाक काटने के लिए वही तैयार हैं, जिनके वे पक्षपाती हैं।

नागर ने जो कुछ कहा मायारानी ने स्वीकार किया। नागर ने पहिले तिलिस्मी खंजर से दारोगा साहब की नाक काट ली और फिर दाढ़ी नोचने के लिए तैयार हुई, मगर यह दाढ़ी नकली न थी, जो एक ही झटके में अलग हो जाती, इसलिए इसके नोचने में बेचारी नागर को विशेष तकलीफ उठानी पड़ी। नागर दाढ़ी नोचती जाती थी और यह कहती जाती थी—"तेजसिंह बड़े मजबूत मसाले से बाल जमाता है!"

आधी दाढ़ी नुचते-नुचते दारोगा का चेहरा खून से लाल हो गया। उस समय चौंककर मायारानी ने नागर से कहा, "ठहर-ठहर, बेशक धोखा हुआ, यह तेजसिंह नहीं, वास्तव में बेचारे दारोगा साहब हैं।"

नागर : (रुककर) हाँ, ठीक जान पड़ता है। हाय, बहुत बुरी भूल हो गयी!

माया : भूल क्या जगब हो गया! बेचारे ने सिवाय नेकी के मेरे साथ बुराई कभी नहीं की, अब यह जहर के मारे मरा जा रहा है, पहिले जहर दूर करने की फिक्र करनी चाहिए।

नागर : जहर- तो बात-की-बात में दूर हो जायगा, मगर अब हम लोग इसे अपना मुँह कैसे दिखाएँगे!

माया : मैंने तो केवल दाढ़ी नोचने की राय दी थी, तू ही ने नाक काटने के लिए कहा और अपने हाथ से बेचारे की नाक काट भी ली।

नागर : क्या खूब? इसे गालियाँ भी मैंने ही दी थीं! क्या तुम्हारी आज्ञा के बिना, मैंने इसकी नाक काट ली? अब कसूर मेरे सिर पर थोप आप अलग हुआ चाहती हो? सच ही तुम्हें लोग बदनाम करते हैं। तुम्हारी दोस्ती पर भरोसा करना बेशक मूर्खता है, जब मेरे सामने तुम्हारा यह हाल है तो पीछे न मालूम तुम क्या करती! खैर, क्या हर्ज है, जैसी खुदगर्ज हो मैं जान गयी।

इतना कहकर नागर वहाँ से चली गयी और जरह दूर करनेवाली दवा की शीशी ले आयी। थोड़ी-सी दवा उस जगह लगायी, जहाँ अँगूठे के सबब से छिल गया था। दवा लगाने के थोड़ी ही देर बाद उस जगह छाला पड़ गया और उस छाले को नागर ने फोड़ा पानी निकल जाने के साथ ही दारोगा होश में आकर उठ बैठा और अपनी हालत देखकर अफसोस करने लगा। यद्यपि वह कुछ भी नहीं जानता था कि मायारानी ने उसके साथ ऐसा सलूक क्यों किया, तथापि उसे इतना क्रोध चढ़ा हुआ था कि मायारानी से कुछ भी न पूछकर वह चुपचाप उसका मुँह देखता रहा।

माया : (दारोगा से) माफ कीजिएगा, मैंने केवल यह जानने के लिए आपको बेहोश किया था कि यह बीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार तो नहीं है, इसके सिवाय और जो कुछ किया नागर ने किया।

नागर : ठीक है, बाबाजी इस बात को बखूबी समझते हैं। मैंने ही तो जहरीली अँगूठी से इनकी जान लेने का इरादा किया था! (बाबाजी की तरफ देखकर) मायारानी की दोस्ती पर भरोसा करना बड़ी भारी भूल है। जब इसने अपने पति ही को कैद करके वर्षों तक दुःख दिया तो हमारी आपकी बात ही क्या? इसने लक्ष्मीदेवीवाला भेद भी तेजसिंह से कह दिया और साथ ही इसके यह भी कह दिया कि सब काम दारोगा साहब ने किया है।

माया : (क्रोध से नागर की तरफ देखकर) क्यों रे, तू मुझे नाहक बदनाम करती है!

नागर : जब तुम झूठ-मूठ मुझे बदनाम करती हो और बाबाजी की नाक काटने का कसूर मुझ पर थोपती हो, तो क्या मैं सच्ची बात कहने से भी गयी। आँखें क्या दिखाती हो? मैं तुमसे डरने वाली नहीं हूँ, और तुम मेरा कुछ कर भी नहीं सकती हो! पहिले तुम अपनी जान तो बचा लो!!

मायारानी, जिसने इसके पहिले कभी आधी बात भी किसी की नहीं सुनी थी, आज नागर की इतनी बड़ी बात कब बर्दाश्त कर सकती थी? उसने दाँत पीसकर नागर की तरफ देखकर कहा। इस बीच में बाबाजी भी बोल उठे, "बेशक सब कसूर मायारानी का है, नागर की जुबानी से लक्ष्मीदेवी का शब्द निकलना ही इसका पूरा-पूरा सबूत है।"

बाबाजी की बात सुनकर मायारानी का गुस्सा और भी भड़क उठा। वह तिलिस्मी खंजर हाथ में लेकर नागर पर झपटी। नागर ने बगल में होकर अपने को बचा लिया और आप भी तिलिस्मी खंजर हाथ में लेकर मायारानी पर वार किया। दोनों में लड़ाई होने लगी। ये दोनों फेंकैत या ओस्ताद तो थीं नहीं कि गुँथ आतीं या हिकमत के साथ लड़तीं। हाँ, दाँव-घात बेशक होने लगे। कायदे की बात है कि तलवार या खंजर जो भी हाथ में हो लड़ते समय उसका कब्जा जोर से दबाना ही पड़ता है। दबाने के सबब दोनों खंजरों में से बिजली-की सी चमक पैदा हुई और इस सबब से बेचारे बाबाजी ने घबराकर अपनी आँखें बन्द कर लीं, बल्कि भागने का बन्दोबस्त करने लगे। वह लौंडी जो तेजसिंह की चीठी लायी थी, चिल्लाती हुई बाहर चली गयी और उसने सब लौंडियों को इस लड़ाई की खबर कर दी। बात-की-बात में सब लौंडियाँ यहाँ पहुँची और लड़ाई करने का उद्योग करने लगी।

जब आदमी के पास दौलत होती है या जब आदमी अपने दर्जे या ओहदे पर कायम रहता है, तब सभी कोई उसकी इज्जत करते हैं, मगर रुपया निकल जाने या दर्जा टूट जाने पर फिर कोई भी नहीं पूछता, संगी साथी सब दुम दबाकर भाग जाते हैं, भले आदमी उससे बात करना, अपनी बेइज्जती समझते हैं, चाचा कहने वाले भतीजा कहकर भी पुकारना पसन्द नहीं करते, दोस्त साहब सलाम तक छोड़ देते हैं, बल्कि दुश्मनी करने पर उतारू हो जाते हैं, नौकर-चाकर केवल सामना ही नहीं करते, बल्कि खुद मालिक की तरह आँखें दिखाता है।

ठीक यही हालत इस समय मायारानी की है। जब वह रानी थी, सौ ऐब होने पर भी लोग उसकी कदर करते थे, और उसका हुक्म मानना (चाहे कैसे ही बुरे काम के लिए वह क्यों न कहे) अपना फर्ज समझते थे। आज वह रानी की पदवी पर नहीं है, स्वयं उसे अपना राज्य छोड़ना, बल्कि मुँह छिपाकर भागना पड़ा, धन-दौलत रहते भी कंगाल होना पड़ा, वह कल रानी थी, आज उसके पास एक पैसा नहीं है, कल उससे लाखों आदमी डरते थे, आज उससे एक लौंडी भी नहीं डरती, कल सैकड़ों आदमियों की जान उसके हुक्म से ली जा सकती थी, मगर आज खुद एक लौंडी का कुछ नहीं कर सकती। यह उसके बुरे कर्मो का फल था, इसके सिवाय और क्या कहा जाय?

मनोरमा, मायारानी की सखी थी और यह नागर मनोरमा की मुँह लगी और मायारानी की लौंडी समझी जाती थी। मायारानी के हाथ से मनोरमा और नागर ने लाखों रुपये पाये। यह मकान रोआब और दबदबा मनोरमा और नागर का मायारानी ही की बदौलत था। यही नागर, मायारानी की सैकड़ों गालियाँ बर्दाश्त करती थी, भला या बुरा जो कुछ मायारानी उसे कहती थी मानना पड़ता था, मगर आज जब मायारानी किसी योग्य न रही, जब मायारानी धन-दौलत से खाली हो गयी, जब मायारानी की ताकत जाती रही, तो वही नागर बकरी से बाघिन हो गयी, बल्कि नागर की लौंडियों की नजरों में भी मायारानी की इज्जत न रही। अब नागर को मायारानी से कुछ पाने की आशा तो रही ही नहीं, बल्कि यह मौका आ गया कि नागर खुद रुपये से मायारानी की मदद करे, इसलिए झट नागर की आँख बदल गयी और बात का बतंगड़ बनाकर जान लेने के लिए तैयार हो गयी। नागर की लौंडियाँ जो इस लड़ाई का हाल सुनकर आ पहुँची थीं, नागर का दिया खाती थीं और इस समय मायारानी को भी अच्छी निगाह से देखती नहीं थीं, इसलिए ये सब सिवाय नागर के और किसी की मदद नहीं करना चाहती थीं, मगर तिलिस्मी खंजरों के सबब से इस लड़ाई के बीच में पड़ने से लाचार थीं। हाँ, जब दोनों लड़कियाँ ठहर जाती और खंजर का कब्जा ढीला पड़ने के कारण चमक बन्द हो जाती तो वे लौंडियाँ नागर की मदद को जरूर तैयार हो जातीं।

आखिर नागर ने मायारानी से ललकार कर कहा, "देख मायारानी, तू इस समय मुझसे लड़कर नहीं जीत सकती। यदि मैं तेरे सामने से भाग भी जाऊँ और काशीराज के पास जाकर तेरा सब हाल कह दूँ तो तुझे इसी समय गिरफ्तार करके राजा बीरेन्द्र के पास भेज देंगे और तुझसे कुछ भी करते-धरते न बन पड़ेगा। तू इस समय यहाँ छिपकर बैठी हुई है, किसी को भी तेरे हाल की खबर होगी तो तेरे लिए अच्छा न होगा, मगर मैं अपनी पुरानी दोस्ती को ध्यान देकर तुझे माफ करती हूँ और साथ ही इसके आज्ञा देती हूँ कि इसी समय यहाँ से भाग जा और जिस तरह अपनी जान बचा सके, बचा!"

नागर की बातें सुनकर मायारानी रुक गयी और थोड़ी देर तक कुछ सोचती रही, अन्त में तिलिस्मी खंजर कमर में रख शीघ्रता से कमरे के बाहर हो, हाते से निकल गयी। और न मालूम कहाँ चली गयी नागर ने इधर-उधर देखा तो दारोगा को भी न पाया। आखिर मालूम हुआ कि वह भी मौका देखकर भाग निकला और न जाने कहाँ चला गया।

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