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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

तीसरा बयान


अब जरा उन कैदियों की सुध लेनी चाहिए, जिन्हें नकली दारोगा ने दारोगावाले बँगले में मेगजीन की बगलवाली कोठरी में बन्द किया गया था। वास्तव में वह तेजसिंह ही थे, जो दारोगा की सूरत बनकर मायारानी से मिलने और उसके दिल का भेद लेने जा रहे थे, मगर जब दारोगावाले बँगले पर पहुँचे तो मायारानी की लौंडियों तथा लीला की जुबानी मालूम हुआ कि कुछ आदमियों के पीछे-पीछे मायारानी और नागर टीले पर गयी हैं। तेजसिंह उस टीले का हाल बखूबी जानते थे और सुरंग की राह बाग के चौथे दरजे में जाने का इरादा रखते हो; यदि वास्तव में ऐसा हो तो निःसन्देह मायारानी के हाथ उन्हें कष्ट पहुँचेगा। यह सोचते ही तेजसिंह उस टीले की तरफ रवाना हुए और यही सबब था कि सुरंग में दारोगा की शक्ल बने हुए तेजसिंह की मायारानी से मुलाकात हुई थी और उसके बाद जो कुछ हुआ, ऊपर लिखा ही जा चुका है।

मेगजीन की बगलवाली कोठरी में कैदियों को कैद करने के बाद जब खाने-पीने का सामान लेकर तेजसिंह उस तहखाने में गये तो कैदियों को होश में लाकर संक्षेप में सब हाल कह दिया था और अजायबघर की ताली जो मायारानी से वापस ली थी, राजा गोपालसिंह को देकर कहा कि इस ताली की मदद से जहाँ तक हो सके आप लोग यहाँ से निकल जाइए। राजा गोपालसिंह ने जवाब दिया था कि ‘यदि यह ताली न मिलती तो भी हम लोग यहाँ से निकल जाते क्योंकि मुझे यहाँ का पूरा-पूरा हाल मालूम है, और अब आप हम लोगों की तरफ से निश्चिन्त रहिए, मगर चौबीस घण्टे के अन्दर मायारानी का साथ न छोड़िए और न उसे कोई काम इस बीच में करने दीजिए, इसके बाद हम लोग स्वयं आपको ढूँढ़ लेंगे’।

इस दारोगावाले बँगले का हाल केवल तेजसिंह ही को नहीं, बल्कि हमारे और भी कई ऐयारों को मालूम था, क्योंकि कमलिनी ने, जो कुछ भी वह जानती थी, सभों को बता दिया था।

अब, जब तेजसिंह दारोगावाले बँगले से चले तो राजा गोपालसिंह और कमलिनी इत्यादि को ढूँढ़ने के लिए उत्तर की तरफ रवाना हुए। वे जानते थे कि मेगजीन की बगलवाली कोठरी से निकलकर वे लोग उत्तर की तरफ ही किसी ठिकाने बाहर होंगे।

तेजसिंह कोस-भर से ज्यादे नहीं गये होंगे कि रात की पहली अँधेरी ने चारों तरफ अपना दखल जमा लिया, जिसके सबब से वे उन लोगों को बखूबी ढूँढ़ सकते थे और न उन लोगों को ठीक पता ही था, तथापि उन्हें विशेष कष्ट न उठाना पड़ा, क्योंकि थोड़ी ही दूर जाने बाद देवीसिंह से मुलाकात हो गयी, जो इन्हीं को ढूँढ़ने के लिए जा रहे थे। देवीसिंह के साथ चलकर तेजसिंह थोड़ी ही देर में वहाँ जा पहुँचे, जहाँ गोपालसिंह इत्यादि घने जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे इनके आने की राह देख रहे थे। तेजसिंह को देखते ही सब लोग उठ खड़े हुए और खातिर की तौर पर दो-चार कदम आगे बढ़ आये।

देवी : देखिए इन्हें कितना जल्द ढूँढ़ लाया हूँ।

गोपाल : (तेजसिंह से) आइए आइए!

तेज : इतनी दूर आये तो क्या दो-चार कदम के लिए रुक रहेंगे?

गोपाल : (हँसके और तेजसिंह का हाथ पकड़के) आज आपही की बदौलत हम लोग जीते-जागते यहाँ दिखायी दे रहे हैं।

तेज : यह सब तो भगवती की कृपा से हुआ और उन्हीं की कृपा से इस समय मैं इसके लिए अच्छी तरह तैयार भी हो रहा हूँ कि मेरी जितनी तारीफ आपके किये हो सके कीजिए और मैं फूला नहीं समाता हुआ, चुपचाप बैठा सुनता रहूँ और घण्टे बीत जायँ, मगर तिस पर भी आपकी की हुई तारीफ को उस काम के बदले में न समझूँ जिसकी वजह से आप लोग छूट गये, बल्कि एक दूसरे ही काम के बदले में समझूँ, जिसका पता खुद आप ही की जुबान से लगेगा और यह भी जाना जायेगा कि मैं कौन-सा अनूठा काम करके आया हूँ, जिसे खुद नहीं जानता, मगर जिसके बदले में तारीफों की बौछार सहने को चुप्पी का छाटा लगाये, पहिले ही से तैयार था। साथ ही इसके यह भी कह देना अनुचित न होगा कि मैं केवल आपही को तारीफ करने के लिए मजबूर करूँगा, बल्कि आपसे ज्यादा कमलिनी और लाडिली को मेरी तारीफ करनी पड़ेगी।

गोपाल : (कुछ सोचकर और हँसी के ढंग से) अगर गुस्ताखी और बेअदबी में न गिनिए तो मैं पूछ लूँ कि आज आपने भंग के बदले में ताड़ी तो नहीं छानी है।

यद्यपि यह जंगल बहुत ही घना और अन्धकारमय हो रहा था, मगर तेजसिंह को साथ लिये देवीसिंह के आने की आहट पाते ही भूतनाथ ने बटुए में से एक छोटी-सी अबरख की लालटेन जो मोड़माड़ के बहुत छोटी और चिपटी कर ली जाती थी, निकाल ली थी और रोशनी के लिए तैयार बैठा था। देवीसिंह की आवाज़ पाते ही उसने बत्ती बालकर उजाला कर दिया था, जिससे सभों की सूरत साफ़-साफ़ दिखायी दे रही थी। तेजसिंह की इज्जत के लिए सबकोई उठकर दो-चार कदम आगे बढ़ गये थे और इसके बाद मायारानी का समाचार जानने की नीयत से सभों ने उन्हें घेर लिया था। तेजसिंह के चेहरे पर खुशी की निशानियाँ मामूली से ज्यादा दिखायी दे रही थीं इसलिए गोपालसिंह इत्यादि किसी भारी खुशखबरी के सुनने की लालसा मिटाने का उद्योग किया चाहते थे, मगर तेजसिंह की रेशम की गुत्थी की तरह उलझी हुई बातों को सुनकर गोपालसिंह भोचक्के से हो गये और सोचने लगे कि वह कैसी खुशशबरी है कि जिसे तेजसिंह स्वयं नहीं जानते, बल्कि मुझसे ही सुनकर मुझी को सुनाने और खुश करके तारीफों की बौछार सहन करने के लिए तैयार हैं, और यही सबब था कि राजा गोपालसिंह ने दिल्लगी के साथ तेजसिंह पर भंग के बदले में ताड़ी पीने की आवाज़ कसी।

तेज : (हँसकर) ताड़ी और शराब पीना तो आप लोगों का काम है, जिन्हें अपने-बेगाने की कुछ खबर ही नहीं रहती! मैं यह बात दिल्लगी में नहीं कहता, बल्कि साबित कर दूँगा कि आप भी उन्हीं में अपनी गिनती करा चुके हैं। सच तो यों है कि इस समय आपके पेट में चूहे कूदते होंगे और यह जानने के लिए आप बहुत बेताब होंगे कि मैं आपसे क्या पूछूँगा और क्या कहूँगा। अच्छा यह बताइए कि ‘लक्ष्मीदेवी’ किसका नाम है?

गोपाल : क्या आप नहीं जानते? यह तो उसी कम्बख्त मायारानी का नाम है!

तेज : बस-बस! अब आपकी जुबानी उस बात का पता लग गया जिसे मैं एक भारी खुशखबरी समझता हूँ। अब आप सुनिए, (कुछ रुककर) मगर नहीं, पहले आप से इनाम पाने का इकरार तो करा ही लेना चाहिए, क्योंकि तारीफों की बौछार से काम न चलेगा।

गोपाल : मैं आपको कुछ इनाम देने योग्य तो नहीं हूँ, पर यदि आप मुझे इस योग्य समझते ही हैं तो इनाम का निश्चय भी आप ही कर लीजिए, मुझे जी जान से उसे पूरा करने के लिए तैयार पाइएगा।

तेज : (हाथ फैलाकर) अच्छा तो आप हाथ पर हाथ मारिए, मैं अपना इनाम जब चाहूँगा, माँग लूँगा और आप उसे उस समय देने योग्य होंगे।

गोपाल : (तेजसिंह के हाथ पर हाथ मारकर) लीजिए अब तो कहिए, आप तो हम लोगों की बेचैनी बढ़ाते ही जा रहे हैं।

तेज : हाँ हाँ, सुनिए, (कमलिनी और लाडिली से) तुम दोनों भी जरा पास आओ और ध्यान देकर सुनो कि मैं क्या कहता हूँ। (हँसकर) आप लोग बड़े खुश होंगे, हाँ, अब सबकोई बैठ जाइए।

गोपाल : (बैठकर) तो आप कहते क्यों नहीं, इतना नखरा तिल्ला क्यों कर रहे हैं?

तेज : इसलिए कि खुशी के बाद आप लोगों को रंज भी होगा और आप लोग एक तरद्दुद में फँस जायेंगे।

गोपाल : आप तो उलझन पर उलझन डाले जाते हैं और कुछ कहते भी नहीं।

तेज : कहता तो हूँ सुनिए—यह जो मायारानी है, वह असल में आपकी स्त्री लक्ष्मीदेवी नहीं है।

इतना सुनते ही राजा गोपालसिंह, कमलिनी और लाडिली को हद से ज्यादे खुशी हुई, यहाँ तक कि दम रुकने लगा और थोड़ी देर तक कुछ कहने की सामर्थ्य न रह गयी, इसके बाद अपनी अवस्था ठीक करके कमलिनी ने कहा।

कमलिनी : ओफ, आज मेरे सिर से एक बड़े भारी कलंक का टीका मिटा। मैं इस ताने के सोच में मरी जाती थी कि तुम्हारी बहिन जब इतनी दुष्ट है तो तुम न जाने कैसी होवोगी!

गोपाल : मैं जिस खयाल से लोगों को मुँह दिखाने से हिचकिचाता था, आज वह जाता रहा। अब मैं खुशी से जमानिया के राजकर्मचारियों के सामने मायारानी का इजहार कर लूँगा! मगर यह तो कहिए कि इस बात का निश्चय आपको क्योंकर हुआ?

तेज : मैं संक्षेप में आप से कह चुका हूँ कि जब मैं दारोगा की सूरत में सुरंग के अन्दर पहुँचा और मायारानी से मुलाकात हुई तो आपको होश में लाने के लिए मायारानी से खूब हुज्जत हुई!

गोपाल : हाँ, आप कह चुके हैं।

तेज : उस समय जो-जो बातें मायारानी से हुईं, वह तो पीछे कहूँगा, मगर मायारानी की थोड़ी-सी बात, जिसे मैंने इस तरह अक्षर-अक्षर याद कर रक्खा है जैसे पाठशाला के लड़के अपना पाठ याद कर रखते हैं, आप लोगों से कहता हूँ, उसी से आप लोग उस भेद का मतलब निकाल लेंगे। मायारानी ने मुझे समझाने की रीति से कहा था कि—

"यद्यपि आपको इस बात का रंज है कि मैंने गोपालसिंह के साथ दगा की और यह भेद आपसे छिपा रक्खा, मगर आप भी तो जरा पुरानी बातों को याद कीजिए! खास करके उस अँधेरी रात की बात, जिसमें मेरी शादी और पुतले की बदलौवत हुई थी! आपही ने तो मुझे यहाँ तक पहुँचाया, अब अगर मेरी दुर्दशा होगी तो क्या आप बच जायँगे! मान लिया जाय कि अगर गोपालसिंह को बचा लें तो लक्ष्मीदेवी का बच के निकल जाना आपके लिए दुःखदायी न होगा? और जब इस बात की खबर गोपालसिंह को लगेगी तो क्या वह आपको छोड़ देगा? बेशक, जो कुछ आज तक मैंने किया है, सब आपही का कसूर समझा जायेगा। मैंने इसे इसलिए कैद किया था कि लक्ष्मीदेवी का भेद इसे न मालूम होने पावे, या इसे इस बात का पता न लग जाय कि दारोगा की करतूत ने लक्ष्मीदेवी की जगह..."

बस इतना कहकर वह चुप हो गयी और मैंने भी इस भेद को सोचते हुए यह समझकर इन बातों का कुछ जवाब देना उचित न जाना और चुप हो रहा कि वही बात-ही-बात में मेरा अनजानापन झलक न जावे और मायारानी को यह न मालूम हो जाय कि मैं वास्तव में दारोगा नहीं हूँ।

गोपाल : बस बस! मायारानी के मुँह से निकली हुई इतनी ही बातें सबूत के लिए काफी हैं और बेशक वह मेरी स्त्री नहीं है, अब मुझे ब्याह के दिन की कुछ बातें धीरे-धीरे याद आ रही हैं, जो इस बात को और भी मजबूत कर रही हैं, और इसमें भी कोई शक नहीं कि हरामखोर दारोगा ही सब फसाद की जड़ है।

कमलिनी : मगर उस हरामजादी की बातों से जैसा कि आपने कभी कहा यह भी साबित होता है कि दारोगा की मदद से अपना काम पूरा करने के बाद, वह मेरी बहिन लक्ष्मीदेवी की जान लिया चाहती थी, मगर वह किसी तरह बचके निकल गयी।

तेज : बेशक, ऐसा ही है और मेरा दिल गवाही देता है कि लक्ष्मीदेवी अभी तक जीती है, यदि उसकी खोज की जाय तो वह अवश्य मिलेगी।

गोपाल : मेरा दिल भी यही गवाही देता है, मगर अफसोस की बात यह है कि उसने मुझ तक पहुँचने या इस भेद को खोलने के लिए कुछ उद्योग न किया।

कमलिनी : यह आप कैसे कह सकते हैं कि उसने कोई उद्योग न किया होगा? कदाचित् उसका उद्योग सफल न हुआ हो? इसके अतिरिक्त मायारानी और दारोगा की चालाकी कुछ इतनी कच्ची न थी कि किसी की कलई चल सकती, फिर उस बेचारी का क्या कसूर? जब मैं उसकी सगी बहिन होकर धोखे में फँस गयी और इतने दिनों तक उसके साथ रही तो दूसरे की क्या बात है? उसके ब्याह के चार वर्ष बाद जब मैं माता-पिता के मर जाने के कारण लाडिली को साथ लेकर आपके घर आयी, तो मायारानी की सूरत देखते ही मुझे शक पड़ा, परन्तु इस खयाल ने उस शक को जमने न दिया कि कदाचित् चार वर्ष के अन्तर ने उसकी सूरत शक्ल में इतना फर्क डाल दिया हो और आश्चर्य की बात है भी नहीं बहुतेरी कुँआरी लड़कियों की सूरत-शक्ल ब्याह होने के तीन ही चार-वर्ष बाद ऐसी बदल जाती है कि पहिचानना कठिन होता है।

तेज : प्रायः ऐसा होता है, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

कमलिनी : और कमबख्त हम दोनों बहिनों की उतनी ही खातिरदारी की, जितनी बहिन, बहिन की खातिर कर सकती है, मगर यह बात तभी तक रही, जब तक उसने (गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) इनको कैद न कर लिया था।

गोपाल : मेरे साथ तो रस्म और रिवाज ने दगा की! ब्याह के पहिले मैंने उसे देखा ही न था, फिर पहिचानता क्योंकर?

कमलिनी : बेशक, बड़ी चालाकी खेली गयी। हाय, अब मैं बहिन लक्ष्मीदेवी को कहाँ ढूँढूँ और क्योंकर पाऊँ?

तेज : जिस ढंग से मायारानी ने मुझे समझाया था, उससे तो मालूम होता है कि यह चालाकी करने के साथ ही दारोगा ने लक्ष्मीदेवी को कैद करके किसी गुप्त स्थान में रख दिया था, मगर कुछ दिनों बाद वह किसी ढंग से छूटकर निकल गयी। शायद उसी सबब से वह कमलिनी या लाडिली से न मिल सकी हो!

गोपाल : बिना दारोगा को सताये इसका पूरा हाल न मालूम होगा।

तेज : दारोगा तो रोहतासगढ़ में ही कैद है।

इतने ही में एक तरफ से आवाज़ आयी, "दारोगा अब रोहतासगढ़ में कैद नहीं है, निकल भागा!" तेजसिंह ने घूमकर देखा तो भैरोसिंह पर निगाह पड़ी। भैरोसिंह ने बाप का चरण छुआ और राजा गोपालसिंह को भी प्रणाम किया, इसके बाद आज्ञा पाकर बैठ गया।

तेज : (भैरो से) क्या तुम बड़ी देर से खड़े-खड़े हम लोगों की बातें सुन रहे थे! हम लोग बातों में इतना डूबे हुए थे कि तुम्हारा आना जरा भी मालूम न हुआ!

भैरो : जी नहीं, मैं अभी चला आ रहा हूँ और सिवाय इस आखिरी बात के जिसका जवाब दिया है, आप लोगों की और कोई बात मैंने नहीं सुनी।

तेज : तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि हम लोग यहाँ हैं?

भैरो : मैं तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जा रहा था, मगर जब दारोगावाले बँगले के पास पहुँचा तो उसकी बिगड़ी हुई अवस्था देखकर जी व्याकुल हो गया, क्योंकि इस बात का विश्वास करने में किसी तरह का शक नहीं हो सकता था कि उस बँगले की बरबादी का सबब बारूद और सुरंग हैं, और यह कार्रवाई बेशक हमारे दुश्मनों की है। अस्तु, तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जाने से पहिले इस मामले का असल हाल जानने की इच्छा हुई और किसी से मिलने की आशा में मैं इस जंगल में घूमने लगा, मगर इस लालटेन की रोशनी ने जो यहाँ बल रही है, मुझे ज्यादे देर तक भटकने न दिया। अब सबके पहिले मैं उस बँगले की बरबादी का सबब जानना चाहता हूँ, यदि आपको मालूम हो तो कहिए।

तेज : मैं भी यही चाहता हूँ कि राजा बीरेन्द्रसिंह का कुशल-क्षेंम पूछने बाद जो कुछ कहना है, सो तुमसे कहूँ और उस बँगले की कायापलट का सबब तुमसे बयान करूँ, क्योंकि इस समय एक बड़ा ही कठिन काम, तुम्हारे सुपुर्द किया जायगा, जो कितना ज़रूरी है, सो उस बँगले का हाल सुनते ही तुम्हें मालूम हो जायेगा।

भैरो : राजा बीरेन्द्रसिंह बहुत अच्छी तरह हैं, इधर का हाल सुनकर उन्हें बहुत क्रोध आता है और चुपचाप बैठे रहने की इच्छा नहीं होती, परन्तु आपकी वह बात उन्हें बराबर याद रहती है, जो उनसे विदा होने के समय अपनी कसम का बोझ देकर आप कह आये थे। निःसन्देह वे आपको सच्चे दिल से चाहते हैं और यही सबब है कि बहुत कुछ कर सकने की शक्ति रखकर भी कुछ नहीं कर रहे हैं!

तेज : हाँ, मैं उन्हें ताकीद कर आया था कि चुपचाप चुनार जाकर बैठिए और देखिए कि हम लोग क्या करते हैं। तो क्या राजा बीरेन्द्रसिंह चुनार गये!

भैरो : जी हाँ, वे चुनार गये और मैं अबकी दफे चुनार ही से चला आ रहा हूँ। रोहतासगढ़ में केवल ज्योतिषीजी हैं और उन्हें राज्य संबंधी कार्यों से बहुत कम फुरसत मिलती है, इसी सबब से दारोगा धोखा देकर न मालूम किस तरह कैद से निकल भागा। जब यह खबर चुनार पहुँची तो यह तो सोचकर कि भविष्य में कोई गड़बड़ न होने पाये, चुन्नीलाल ऐयार रोहतासगढ़ भेजे गये और जब तक कोई दूसरा हुक्म न पहुँचे, उन्हें बराबर रोहतासगढ़ ही में रहने की आज्ञा हुई और मैं इधर का हालचाल लेने के लिए भेजा गया।

तेज : अच्छा तो मैं दारोगावाले बँगले की बरबादी का सबब बयान करता हूँ।

इसके बाद तेजसिंह ने सब हाल अर्थात् अपना सुरंग में जाना, मायारानी से मुलाकात और बातचीत, राजा गोपालसिंह और कमलिनी इत्यादि का गिरफ़्तार होना और फिर उन्हें छुड़ाना, तथा दारोगावाले बँगले के उड़ने का सबब और इसके बाद का पूरा-पूरा हाल कह सुनाया, जिसे भैरोसिंह बड़े गौर से सुनता रहा और जब बातें पूरी हो गयीं, तब बोला—

"यह एक विचित्र बात मालूम हुई कि मायारानी वास्तव में कमलिनी की बहिन नहीं हैं। (कुछ सोचकर) मगर मैं समझता हूँ कि असल बातों का पूरा-पूरा पता लगाने के लिए उसे बहुत जल्द गिरफ्तार करना चाहिए, केवल उसी को नहीं, बल्कि कमबख्त दारोगा को भी ढूँढ़ निकालना चाहिए।"

गोपाल : बेशक, ऐसा ही होना चाहिए, और अब मैं भी अपने को गुप्त रखना नहीं चाहता जैसा कि आज के पहिले सोचे हुए था।

तेज : सबसे पहिले यह तै कर लेना चाहिए कि अब हम लोगों को क्या करना है! (गोपालसिंह से) आप अपनी राय दीजिए।

गोपाल : राय और बहस में तो घण्टों बीत जायँगे, इसलिए यह काम भी आप ही की मरजी पर छोड़ा, जो कहिए वही किया जाय।

तेज : (कुछ सोचकर) अच्छा तो फिर आप कमलिनी और लाडिली को लेकर जमानिया जाइए और तिलिस्मी बाग में पहुँचकर अपने को प्रकट कीजिए, मैं समझता हूँ कि वहाँ आपका विपक्षी (खिलाफ) कोई भी न होगा।

गोपाल : आप खिलाफ कह रहे हैं! मेरे नौकरों को मुझसे मिलने की खुशी है, अपने नौकरों में मैं अपने को प्रकट भी कर चुका हूँ!

तेज : (ताज्जुब से) यह कब? मैं तो इसका हाल कुछ भी नहीं जानता!

गोपाल : इधर आपसे मुलाकात ही कब हुई जो आप जानते? हाँ, कमलिनी, लाडिली, भूतनाथ और देवीसिंह को मालूम है।

तेज : खैर, कह तो जाइए कि क्या हुआ?

गोपाल : बड़ा ही मजा हुआ। मैं आपसे खुलासा कह दूँ, सुनिए। एक दिन रात के समय मैं भूतनाथ को साथ लिये हुए गुप्त राह से तिलिस्मी बाग के उस दर्जे में पहुँचा, जिसमें मायारानी सो रही थी। हम दोनों नकाब डाले हुए थे। उस समय इसके सिवाय और कोई काम न कर सके कि कुछ रुपये देकर एक मालिन को इस बात पर राजी करें कि कल रात के समय तू चुपके से चोर दरवाज़ा खोल दीजियो, क्योंकि कमलिनी इस बाग में आना चाहती है। यह काम इस मतलब से नहीं किया गया कि वास्तव में कमलिनी वहाँ जानेवाली थी, बल्कि इस मतलब से था कि किसी तरह से कमलिनी के जाने की झूठी खबर मायारानी को मालूम हो जाय और वह कमलिनी को गिरफ्तार करने के लिए पहिले से तैयार रहे, जिसके बदले में हम और भूतनाथ जाने वाले थे, क्योंकि आगे जो कुछ मैं कहूँगा, उससे मालूम होगा कि वह मालिन तो इस भेद को छिपाया चाहती थी, और हम लोग हर तरह से प्रकट करके अपने को गिरफ्तार कराया चाहते थे। इसी सबब से दूसरे दिन आधी रात के समय हम दोनों फिर उस बाग में उसी राह से पहुँचे, जिसका हाल मेरे सिवाय और कोई भी नहीं जानता—बाग ही में नहीं बल्कि उस कमरे में पहुँचे, जिसमें मायारानी अकेले सो रही थी। उस समय वहाँ केवल एक हाँडी जल रही थी, जिसे जाते ही मैंने बुझा दिया और इसके बाद दरवाज़े में ताला लगा दिया, जो अपने साथ ले गया था। यद्यपि दरवाज़े पर पहरा पड़ रहा था, मगर मैं दरवाज़े की राह से नहीं गया था, बल्कि एक सुरंग की राह से गया था, जिसका सिरा उसी कोठरी में निकला था। उस कोठरी की दीवार आबनूस की लकड़ी की थी और इस बात का गुमान भी नहीं हो सकता था कि दीवार में कोई दरवाज़ा है। यह दरवाज़ा केवल एक तख्ते के हट जाने से खुलता है, और तख्ता एक कमानी के सहारे पर है। खैर, ताला बन्द कर देने के बाद मैंने जान-बूझकर एक शीशा जमीन पर गिरा दिया, जिसकी आवाज़ से मायारानी चौंक उठी। अँधेरे के कारण सूरत तो दिखायी नहीं देती थी, इसलिए मैं नहीं कह सकता कि उसने क्या-क्या किया, मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह बहुत ही घबड़ायी होगी और वह घबराहट, उसकी उस समय और भी बढ़ गयी होगी जब दरवाज़े के पास पहुँचकर उसने देखा होगा कि वहां ताला बन्द है। मैं पैर पटक-पटककर कमरे में घूमने लगा। थोड़ी देर में टटोलता हुआ मायारानी के पास पहुँचकर, मैंने उसकी कलाई पकड़ ली और जब वह चिल्लायी तो एक तमाचा जड़के अलग हो गया। तब मैंने एक चोर लालटेन जलायी जो मेरे पास थी। उस समय मायारानी डर और मार खाने के कारण बेहोश हो चुकी थी। मैंने दरवाज़े का ताला खोल दिया और उसे उठाकर चारपाई पर लिटा देने के बाद वहाँ से चलता बना। यह कार्रवाई इसलिए की गयी थी कि मायारानी घबड़ाकर बाहर निकले और उसकी लौंडियाँ इस घटना का पता लगाने के लिए चारों तरफ घूमें, जिससे आगे हम लोग जो कुछ करेंगे, उसकी खबर मायारानी को लग जाय। इसके बाद मैं और भूतनाथ एक नियत स्थान पर उस मालिन से जाकर मिले और उससे बोले कि आज तो कमलिनी आ न सकी, मगर कल आधी रात को जरूर आवेगी, चोर दरवाज़ा खुला रखियो! बेशक, इस बात की खबर मायारानी को लग गयी, जैसा कि हम लोग चाहते थे, क्योंकि दूसरे दिन जब हम लोग चोर दरवाज़े की राह बाग में पहुँचे तो हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए कई आदमी मुस्तैद थे।

ऊपर लिखे हुए बयान से पाठक इतना तो जरूर समझ गये होंगे कि मायारानी के बाग में पहुँचने वाले दोनों नकाबपोश, जिनका हाल सन्तति के नौवें भाग के चौथे और सातवें बयानों में लिखा गया है, ये ही राजा गोपालसिंह और भूतनाथ थे, इसलिए उन दोनों ने और जो कुछ काम किया, उसे इस जगह दोहराकर लिखना हम इसलिए उचित नहीं समझते कि वह हाल पाठकगण पढ़ ही चुके हैं, और उन्हें याद होगा। अस्तु, यहाँ केवल इतना ही कह देना काफी है कि ये दोनों गोपालसिंह और भूतनाथ थे और राजा गोपालसिंह ही ने कोठरी के अन्दर बारी-बारी से पाँच-पाँच आदमियों को बुलाकर अपनी सूरत दिखायी, और कुछ थोड़ा-सा हाल भी कहा था।

राजा गोपालसिंह ने यह सब पूरा हाल तेजसिंह और भैरोसिंह से कहा और देर तक वे सुन-सुनकर हँसते रहे। इसके बाद देवीसिंह और भूतनाथ ने भी अपनी कार्रवाई की हाल कहा और फिर इस विषय में बातचीत होने लगी कि अब क्या करना चाहिए।

तेज : (गोपालसिंह से) अब आप खुले दिल से अपने महल में जाकर राज्य का काम कर सकते हैं, इसलिए अब जो कुछ आपको करना है, हुकूमत के साथ कीजिए। ईश्वर की कृपा से अब आपको किसी तरह की चिन्ता न रही, इसलिए इधर-उधर...

गोपाल : यह आप नहीं कह सकते कि अब मुझे किसी तरह की चिन्ता नहीं, मगर हाँ, बहुत-सी बातें जिनके सबब से मैं अपने महल में जाने से हिचकिचाता था, जाती रहीं इसलिए मेरी भी राय है कि कमलिनी और लाडिली को साथ लेकर मैं अपने घर जाँऊ और वहाँ से दोनों कुमारों के मदद पहुँचाने के उद्योग करूँ, जो इस समय तिलिस्म के अन्दर जा पहुँचे हैं, क्योंकि यद्यपि तिलिस्म का फैसला उन दोनों के हाथों होना ब्रह्मा की लकीर-सा हो रहा है, यद्यपि मेरी मदद पहुँचने से उन्हें विशेष कष्ट न उठाना पड़ेगा। इसके साथ मैं यह भी चाहता हूँ कि किशोरी और कामिनी को अपने तिलिस्म बाग ही में बुलाकर रक्खूँ...

कमलिनी : जी नहीं, मैं तिलिस्मी बाग में तब तक नहीं जाऊँगी, जब तक कमबख्त मायारानी से अपना बदला न ले लूँगी और अपनी बहिन को, यदि वह अभी तक इस दुनिया में है, न ढूँढ़ निकालूँगी। किशोरी और कामनी का भी आपके यहाँ रहना उचित नहीं है, इसे आप अच्छी तरह गौर करके सोच लें। उनकी तरफ से आप निश्चिंत रहें, तालाबवाले मकान में जो आजकल मेरे दखल में है, उन्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं होगी। मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करती हूँ कि आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें और मुझे अपनी राय पर छोड़ दें।

गोपाल : (कुछ सोचकर) तुम्हारी बातों का बहुत-सा हिस्सा सही और वाजिब है, मगर बेइज्जती के साथ तुम्हारा इधर-उधर मारे फिरना मुझे पसन्द नहीं। यद्यपि तुम्हें ऐयारी का शौक है और तुम इस फन को अच्छी तरह जानती हो, मगर मेरी और इसी के साथ किसी और की इज्जत पर ध्यान देना उचित है। यह बात मैं तुम्हारी गुप्त इच्छा को अच्छी तरह समझकर कहता हूँ। मैं तुम्हारी अभिलाषा में बाधक नहीं होता, बल्कि उसे उत्तम और योग्य समझता हूँ...

कमलिनी : (कुछ शर्माकर) उस दिन आप जो चाहें मुझे सजा दें, जिस दिन किसी की जुबानी, जो ऐयार या उन लोगों में से न हों, जिनके सामने मैं हो सकती हूँ, आप यह सुन पावें कि कमलिनी या लाडिली की सूरत किसी ने देख ली या दोनों ने ऐसा कोई काम किया, जो बेइज्जती या बदनामी से सम्बन्ध रखता है।

गोपाल : (तेजसिंह से) आपकी क्या राय है?

तेज : मैं इस विषय में कुछ भी न बोलूँगा। हाँ, इतना अवश्य कहूँगा कि यदि आप कमलिनी की प्रार्थना स्वीकार कर लेंगे तो मैं अपने दो ऐयारों को इनकी हिफाजत के लिए छोड़ दूँगा।

गोपाल : जब आप ऐसा कहते हैं तो मुझे कमलिनी की बात माननी पड़ी। खैर, थोड़े-से सिपाही इनकी मदद के लिए मैं भी मुकर्रर कर दूँगा।

कमलिनी : मुझे उससे ज्यादे आदमियों की जरूरत नहीं है, जितने मेरे पास थे। हाँ, आप उन लोगों को एक चीठी मेरे जाने के बाद अवश्य लिख दें कि ‘हम इस बात से खुश हैं कि तुम इतने दिनों तक कमलिनी के साथ और रहोगे’। हाँ, इसके साथ एक काम और भी चाहती हूँ!

गोपाल : वह क्या?

कमलिनी : जब मैंने अपना किस्सा आपसे बयान किया था तो यह भी कहा था कि मायारानी ने तिलिस्मी मकान के जरिए से कुमार और उनके ऐयारों के साथ-ही साथ मेरे कई बहादुर साथियों को गिरफ्तार कर लिया था।

गोपाल : हाँ, मुझे याद है, जिस मकान में बारी-बारी हँसकर वे लोग कूद गये थे!

कमलिनी : जी हाँ, सो कुमार और उनके ऐयार तो छूट गये, मगर मेरे सिपाहियों का अभी तक पता नहीं है, बेशक वे भी तिलिस्मी बाग में किसी ठिकाने कैद होंगे जिसका पता आप लगा सकते हैं। मुझे आज तक यह न मालूम हुआ कि उनके हँसने और कूद पड़ने का क्या कारण था। इस विषय में कुमार से भी कुछ पूछने का मौका मिला।

गोपाल : मैं वादा करता हूँ कि उन आदमियों को यदि वे मारे नहीं गये हैं तो अवश्य ढूँढ़ निकालूँगा, और इसका कारण कि वे लोग हँसते-हँसते उस मकान के अन्दर क्यों कूद पड़े सो तुम इसी समय देवीसिंह से भी पूछ सकती हो, जो यहाँ मौजूद है और उन हँसते-हँसते कूद पड़ने वालों में शरीक थे।

देवीसिंह : माफ कीजिए, मैं उस विषय में तब तक न कुछ भी कहूँगा, जब तक इन्द्रजीतसिंह मेरे सामने मौजूद न होंगे, क्योंकि उन्होंने उस बात को छिपाने के लिए मुझे सख्त ताकीद दी है, बल्कि कसम दे रक्खी है।

कमलिनी : यह और भी आश्चर्य की बात है, खैर, जाने दीजिए फिर देखा जायगा। हाँ, आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार की? लाडिली मेरे साथ रहेगी?

गोपाल : हाँ, स्वीकार की, मगर देखो जो कुछ करना होशियारी से करना और मुझे बराबर खबर देती रहना।

तेज : मैं प्रतिज्ञानुसार अपने दो ऐयार तुम्हारे सुपुर्द करता हूँ, जिन्हें तुम चाहो अपनी मदद के लिए ले लो।

कमलिनी : अच्छा तो कृपा कर भूतनाथ और देवीसिंह को दे दीजिए।

तेजसिंह : भूतनाथ तो तुम्हारा ही ऐयार है, उस पर अभी मेरा कोई अख्तियार नहीं है, वह अवश्य तुम्हारे साथ रहेगा, इसके अतिरिक्त दो ऐयार तुम और ले लो।

कमलिनी : निःसन्देह आपका बड़ा अनुग्रह मुझपर है मगर मुझे विशेष ऐयारों की आवश्यकता नहीं है।

तेजसिंह : खैर, यही सही फिर देखा जायगा। (देवीसिंह से) अच्छा तो तुम कमलिनी का काम करो और इनके साथ रहो।

देवीसिंह : बहुत अच्छा।

तेजसिंह : खैर, तो अब सभा विसर्जित होनी चाहिए, देखिए आसमान का रंग बदल गया। कमलिनी और लाडिली के लिए सवारी का क्या इन्तजाम होगा?

कमलिनी : थोड़ी दूर जाकर मैं रास्ते में इसका इन्तजाम कर लूँगी, आप बेफिक्र रहिए।

थोड़ी-सी और बातचीत के बाद सब कोई उठ खड़े हुए। कमलिनी, लाडिली, भूतनाथ तथा देवीसिंह ने दक्खिन का रास्ता पकड़ा और कुछ दूर जाने के बाद, सूर्य भगवान की लालिमा दिखायी देने के पहिले ही, एक घने जंगल में गायब हो गये।

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