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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

।। दसवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

अब हम थोड़ा सा हाल तिलिस्म का लिखना उचित समझते हैं। पाठकों को याद होगा कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह कमलिनी के हाथ से तिलिस्मी खंजर लेकर, उस गड़हे या कूएँ में कूद पड़े, जिसमें अपने छोटे भाई आनन्सिंह को देखा चाहते थे। जिस समय कुमार ने तिलिस्मी खंजर कूएँ के अन्दर किया और उसका कब्जा दबाया तो उसकी रोशनी से कूएँ के अन्दर की पूरी-पूरी कैफियत दिखायी देने लगी। उन्होंने देखा कि कूएँ की गहराई बहुत ज्यादे नहीं है, बनिस्बत ऊपर के नीचे की जमीन बहुत चौड़ी मालूम पड़ी, और किनारे की तरफ एक आदमी किसी को अपने नीचे दबाये हुए बैठा उसके गले पर खंजर फेरा ही चाहता है।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह को यकायक खयाल गुजरा कि यह जुल्म कुँअर आनन्दसिंह पर ही न हो रहा हो! छोटे भाई की सच्ची मुहब्बत ने ऐसा जोश कि वह अपने को एक पल के लिए भी रोक न सके क्योंकि साथ ही इस बात का भी गुमान था कि देर होने से कहीं, उसका काम तमाम न हो जाय, इसलिए बिना कुछ सोचे और बिना किसी से कहे-सुने इन्द्रजीतसिंह उस गड़हे में कूद पड़े। मालूम हुआ कि वह किसी धातु की चादर पर जो जमीन की तरह मालूम होती थी गिरे हैं, क्योंकि उनके गिरने के साथ ही वह जमीन दो-तीन दफे लचकी और एक प्रकार की आवाज़ भी हुई। चमकता हुआ तिलिस्मी खंजर उनके हाथ में था, जिसकी रोशनी से और टटोलने से मालूम हुआ कि वे दोनों आदमी वास्तव में पत्थर के बने हुए हैं, जिन्हें देखकर वे गड़हे के अन्दर कूदे थे। इसके बाद कुमार ने इस विचार से ऊपर की तरफ देखा कि कमलिनी या राजा गोपालसिंह को पुकारकर यहाँ का कुछ हाल कहें, मगर गड़हे का मुँह बन्द पाकर लाचार हो रहे। ऊँचाई पर ध्यान देने से मालूम हुआ कि इस गड़हे ऊपर वाला मुँह बन्द नहीं हुआ, बल्कि बीच में कोई चीज़ ऐसी आ गयी है, जिससे रास्ता बन्द हो गया है।

कुमार ने तिलिस्मी खंजर का कब्जा इसलिए ढीला किया कि वह रोशनी बन्द हो जाय जो उसमें से निकल रही है, और मालूम हो कि इस जगह बिल्कुल अँधेरा ही है, या कहीं से कुछ चमक या रोशनी भी आती है, पर वहाँ पूरा अन्धकार था, हाथ को हाथ दिखायी नहीं देता था, अस्तु लाचार होकर कुमार ने फिर तिलिस्मी खंजर का कब्जा दबाया और उसमें से बिजली की तरह चमक पैदा हुई। उसी रोशनी में कुमार ने चारो तरफ इस आशा से देखना शुरू किया कि किसी तरह आनन्दसिंह की सूरत दिखायी पड़े, मगर सिवाय एक चाँदी के सन्दूक के जो उसी जगह पड़ा हुआ था, और कुछ दिखायी न दिया। यहाँ तीन तरफ पक्की दीवार थी, जिसमें छोटे-छोटे दरवाज़े और एक तरफ जाने का रास्ता इस ढंग का था, जिसे हर तौर पर सुरंग कह सकते हैं। कुमार उसी सुरंग की राह आगे की तरफ बढ़े, मगर ज्यों-ज्यों आगे जाते थे, सुरंग पतली होती जाती थी और मालूम होता था कि हम ऊँची जमीन पर चढ़े चले जा रहे हैं। लगभग सौ कदम जाने बाद सुरंग ख़तम हुई और अन्त में एक दरवाज़ा मिला जो जंजीर से बन्द था और कुण्डे में एक ताला लगा हुआ था। कुमार ने खंजर मारके जंजीर काट डाली और धक्का देकर दरवाज़ा खोला तो सामने उजाला नजर आया। अब तिलिस्मी खंजर की कोई आवश्यकता न थी, इसलिए उसका कब्जा ढीला किया और दरवाज़ा लाँघकर दूसरी तरफ चले गये। कुमार ने अपने को हरे-भरे बाग में पाया और देखा कि वह बाग मामूली तौर का नहीं है, बल्कि उसकी बनावट विचित्र ढंग की है, फलों के पेड़ बिल्कुल न थे, पर तरह-तरह के मेवों के पेड़ लगे हुए थे। हरएक पेड़ के चारों तरफ दो-दो हाथ ऊँची दीवार घिरी हुई थी, और बीच में मिट्टी भरने के कारण खासा चबूतरा मालूम पड़ता था। इसके अतिरिक्त अर्थात् पेड़ों के चबूतरों को छोड़कर, बाकी जितनी जमीन उस बाग में थी, सब पर संगमरमर का फर्श था। पूरब तरफ से एक नहर बाग के अन्दर आयी हुई थी और पन्द्रह बीस हाथ के बाद छोटी-छोटी शाखों में फैल गयी थी। जो नहर बाग के अन्दर आयी थी उसकी चौड़ाई ढाई हाथ से कम न थी, मगर बीच की जमीन पक्की न थी और इसी सबब से यहाँ की जमीन बहुत तर थी और पेड़ सूखने नहीं पाते थे। बाग के चारों तरफ ऊँची दीवार तथा पूरब तरफ एक दालान और कई कोठरियाँ थीं, पश्चिम तरफ की दीवार के पास एक संगीन कुआँ था और बाग के बीचोबीच में एक मन्दिर था।

कुमार ने पेड़ों से कई फल तोड़ के खाये और चश्मे का पानी पीकर भूख-प्यास शान्त की और इसके बाग घूम-घूमकर देखने लगे। उन्हें कुँअर आनन्दसिंह के विषय में चिन्ता थी और चाहते थे कि किसी तरह शीघ्र उनसे मुलाकात हो।

चारों तरफ़ घूम-फिरकर देखने बाद, कुमार उस मन्दिर में पहुँचे जो बाग के बीचोबीच में था। वह मन्दिर बहुत छोटा था और उसके आगे का सभामण्डप भी चार-पाँच आदमियों से ज्यादे के बैठने के लायक न था। मन्दिर में प्रतिमा या शिवलिंग की जगह एक छोटा सा चबूतरा था और इसके ऊपर एक भेड़िए की मूरत बैठायी हुई थी। कुमार उसे अच्छी तरह देख-भाल कर बाहर निकल आये और सभामण्डप में बैठकर खून से लिखी हुई किताब पढ़ने लगे। अब उन्हें उस किताब का मतलब साफ़-साफ़ समझ में आता था। जब तक बखूबी अँधेरा नहीं हुआ और निगाह ने काम दिया, तब तक ये उस किताब को पढ़ते रहे, इसके बाद किताब सम्हालकर उसी जगह लेट गये और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

उस बाग में कुँअर इन्द्रजीतसिंह को दो दिन बीत गये। इस बीच में वे कोई ऐसा काम न कर सके, जिससे अपने भाई कुँअर आनन्दसिंह को खोज निकालते या बाग से बाहर निकल जाते या तिलिस्म तोड़ने ही में हाथ लगाते, हाँ, इस दो दिन के अन्दर वे खून से लिखी हुई तिलिस्मी किताब को अच्छी तरह पढ़ और समझ गये, बल्कि उसके मतलब को इस तरह दिल में बैठा लिया कि अब उस किताब की उन्हें कोई जरूरत न रही। ऐसा होने से तिलिस्म का पूरा-पूरा हाल उन्हें मालूम हो गया और वे अपने को तिलिस्म तोड़ने के लायक समझने लगे। खाने-पीने के लिए उस बाग में मेवों और पानी की कुछ कमी न थी।

तीसरे दिन दोपहर दिन चढ़े बाद कुछ कार्रवाई करने के लिए कुमार फिर उस भेड़िए की मूरत के पास गये, जो मन्दिर में चबूतरे के ऊपर बैठायी हुई थी। वहाँ कुमार को अपनी कुछ ताकत खर्च करनी पड़ी। उन्होंने दोनों हाथ लगाकर भेड़िए को बायीं तरफ इस तरह घुमाया, जैसे कोई पेंच घुमाया जाता है। तीन चक्कर घूमने के बाद वह भेड़िया चबूतरे से अलग हो गया और जमीन के अन्दर से घरघराहट की आवाज़ आने लगी। कुमार उस भेड़िए को एक किनारे रखकर बाहर निकल आये और राह देखने लगे कि अब क्या होता है। घण्टे-भर तक बराबर आवाज़ आती रही और फिर धीरे-धीरे कम होकर बन्द हो गयी। कुमार फिर उस मन्दिर के अन्दर गये और देखा कि वह चबूतरा, जिस पर भेड़िया बैठा हुआ था, जमीन के अन्दर धँस गया और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखायी दे रही हैं। कुमार बेधड़क नीचे उतर गये। वहाँ पूरा अन्धकार था, इसलिए तिलिस्मी खंजर से चाँदना करके चारों तरफ देखने लगे। यह एक कोठरी थी, जिसकी चौड़ाई बीस हाथ और लम्बाई पच्चीस हाथ से ज्यादे न होगी। चारों तरफ की दीवारों में छोटे-छोटे कई दरवाज़े थे, जो इस समय बन्द थे। कोठरी के चारों कोनों में पत्थर की चार मूरतें थीं। ये चारों मूरतें एक ही रंग-ढंग और एक ही ठाठ से खड़ी थीं, सूरत शक्ल में कुछ भी फर्क न था, या था भी तो केवल इतना ही कि एक मूरत के हाथ में खंजर और बाकी तीन मूरतों के हाथ में कुछ भी न था।

कुमार पहिले उसी मूरत के पास गये, जिसके हाथ में खंजर था, पहिले उसकी उँगलियों की तरफ ध्यान दिया। बायें हाथ की उँगली में अँगूठी थी, जिसे निकालकर पहिन लेने के बाद खंजर ले लिया और कमर में लगाकर धीरे-से बोले, "इस तिलिस्म में ऐसे तिलिस्मी खंजर के बिना वास्तव में काम नहीं चल सकता, अब आनन्दसिंह मिल जाय तो यह खंजर उसे दे दिया जाय।"

पाठक समझ ही गये होंगे कि मूरत के हाथ से जो खंजर कुमार ने लिया, वह उसी प्रकार का तिलिस्मी खंजर था, जैसा कि पहिले से एक कमलिनी की बदौलत कुमार के पास था। इस समय कुँअर इन्द्रजीतसिंह जो कुछ कार्रवाई कर रहे हैं, वह बिना जाने-बूझे नहीं कर रहे हैं, बल्कि खून से लिखी हुई तिलिस्मी किताब के मतलब को समझ अपनी विमल बुद्धि से जाँच और ठीक करके करते हैं, तथा आगे के लिए भी पाठकों को ऐसा ही समझना चाहिए।

अब कुमार उन दरवाजों की तरफ गौर से देखने लगे, जो चारों तरफ की दीवारों में दिखायी दे रहे थे। उन दरवाजों में केवल चार दरवाज़े चार तरफ असली थे और बाकी के दरवाज़े नकली थे, अर्थात चार दरवाजों को छोड़कर बाकी दरवाजों के केवल निशान दीवारों में थे, मगर ये निशान भी ऐसे थे कि जिन्हें देखने से आदमी पूरा-पूरा धोखा खा जाय।

कुमार पूरब तरफ की दीवार की तरफ गये और उस तरफ जो दरवाज़ा था उसे जोर से लात मारकर खोल डाला, इसके बाद बायें तरफ के कोने में जो मूरत थी, उसे बगल में दाब उठाना चाहा, मगर वह उठ न सकी क्योंकि उनके दाहिने हाथ में वह चमकता हुआ तिलिस्मी खंजर था। आखिर कुमार ने खंजर कमर में रख लिया। यद्यपि ऐसा करने से वहाँ पूर्ण रूप से अन्धकार हो गया, मगर कुमार ने इसका कुछ विचार न करके अँधेरे ही में दोनों हाथ उस मूरत की कमर में फँसाकर जोर किया और उसे जमीन से उखाड़कर धीरे-धीरे उस दरवाज़े के पास लाये, जिसे लात मारकर खोला था। जब चौखट के पास पहुँचे तो उस मूरत को जहाँ तक जोर से बन पड़ा दरवाज़े के अन्दर फेंक दिया, और फुर्ती से तिलिस्मी खंजर हाथ में ले रोशनी करके सीढ़ी की राह कोठरी के बाहर निकल आये अर्थात् फिर उसी बाग में चले गये और मन्दिर से दूर हटकर खड़े हो गये।

थोड़ी देर तो कुमार को ऐसा मालूम हुआ कि जमीन काँप रही है और उसके अन्दर बहुत-सी गाड़ियाँ दौड़ रही हैं। आखिर धीरे-धीरे कम होकर ये दोनों बातें जाती रहीं। इसके बाद कुमार फिर मन्दिर के अन्दर हो गये, जहाँ पहिले गये थे। इस समय वहाँ तिलिस्मी खंजर की रोशनी की कोई आवश्यकता न थी, क्योंकि उस समय कई छोटे-छोटे सूराखों में से रोशनी बखूबी आ रही थी, जिसका पहिले नाम-निशान भी न था। कुमार चारों तरफ देखने लगे, मगर पहिले की बनिस्बत कोई नयी बात दिखायी न दी। आखिर पूरब तरफ की दीवार के पास गये और दरवाज़े के अन्दर झाँककर देखा, जिसे लात मारकर खोला था या जिसके अन्दर मूरत को जोर से फेंका था। इस समय इस कोठरी के अन्दर भी चाँदना था। और वहाँ की हरएक चीज़ दिखायी दे रही थी। यह कोठरी बहुत लम्बी-चौड़ी न थी, मगर दीवारों में छोटे-छोटे कई खुले दरवाज़े दिखायी दे रहे थे, जिससे मालूम होता था कि यहाँ से कई तरफ जाने के लिए सुरंग या रास्ता है। कुमार ने उस मूरत को गौर से देखा, जिसे उस कोठरी के अन्दर फेंका था। उस मूरत की अवस्था ठीक वैसी हो रही थी, जैसी कि चूने की कली की उस समय होती है, जब थोड़ा-सा पानी उस पर छोड़ा जाता है, अर्थात् टूट-फूट के वह बिल्कुल ही बर्बाद हो चुकी थी। उसके पेट में एक चमकती हुई चीज़ दिखायी दे रही थी, जो पहिले तो उसके पेट के अन्दर हो रही होगी, मगर अब पेट फट जाने के कारण बाहर हो रही थी। कुमार ने यह चमकती हुई चीज़ उठा ली और तहखाने के बाहर निकल मन्दिर के मण्डप में बैठकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

थोड़ी ही देर बाद धमधमाहट की आवाज़ से मालूम हुआ कि मन्दिर के अन्दर तहखानेवाली सीढ़ियों पर कोई चढ़ रहा है। कुमार उसी तरफ देखने लगे। यकायक कुँअर आनन्द सिंह आते हुए दिखायी पड़े। बड़े कुमार खुशी के मारे उठ खड़े हुए और आँखों में प्रेमाश्रु की दो-तीन बूँदें दिखायी देने लगीं। आनन्दसिंह दोड़कर अपने बड़े भाई के पैरों पर गिर पड़े। इन्द्रजीतसिंह ने झट से उठाकर गले लगा लिया। जब दोनों भाई खुशी-खुशी उस जगह बैठ गये, तब इन्द्रजीतसिंह ने पूछा, "कहो तुम किस आफत में फँस गये थे और क्योंकर छूटे?" कुँअर आनन्दसिंह ने अपने फँस जाने और तकलीफ उठाने का हाल, अपने बड़े भाई के सामने कहना शुरू किया।

तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में कुँअर आनन्दसिंह जिस तरह अपने भाई से बिदा होकर खूँटियोंवाले तिलिस्मी मकान के अन्दर गये थे और चाँदी वाले सन्दूक में हाथ डालने के कारण फँस गये थे, उसका इस जगह दोहराना पाठकों का समय नष्ट करना है। हाँ, वह हाल कहने के बाद फिर जो कुछ हुआ और कुमार ने अपने बड़े भाई से बयान किया, उसका लिखना आवश्यक है।

छोटे कुमार ने कहा—"जब मेरा हाथ सन्दूक में फँस गया तो मैंने छुड़ाने के लिए बहुत कुछ उद्योग किया, मगर कुछ न हुआ और घण्टो तक फँसा रहा, इसके बाद एक आदमी चेहरे पर नकाब डाले हुए मेरे पास आया और बोला, "घबड़ाइए मत, थोड़ी देर और सब्र कीजिए, मैं आपको छुड़ाने का बन्दोबस्त करता हूँ।" इस बीच में वह जमीन हिलने लगी, जहाँ मैं था, बल्कि तमाम मकान तरह-तरह के शब्दों से गूँज उठा, ऐसा मालूम होता था, मानो जमीन के नीचे सैकड़ों गाडियाँ दौड़ रही हैं। वह आदमी जो मेरे पास आया था, यह कहता हुआ ऊपर की तरफ चला गया कि ‘मालूम होता है कुमार और कमलिनी ने इस मकान के दरवाज़े पर बखेड़ा मचाया है, मगर यह काम अच्छा नहीं किया’। थोड़ी ही देर बाद वह नकाबपोश नीचे उतरा और बराबर नीचे चला गया, मैं समझता हूँ कि दरवाज़ा खोलकर आपसे मिलने गया होगा, अगर वास्तव में आप ही दरवाज़े पर होंगे।"

इन्द्रजीत : हाँ, दरवाज़े पर उस समय मैं ही था, और मेरे साथ कमलिनी और लाडिली भी थीं, अच्छा तब क्या हुआ?

आनन्द : तो क्या आपने कोई कार्रवाई की थी?

इन्द्रजीत : की थी, उसका हाल पीछे कहूँगा, पहिले तुम अपना हाल कह जाओ।

आनन्दसिंह ने फिर कहना शुरू किया—

"उस आदमी को नीचे गये हुए चौथाई घड़ी भी न हुई होगी कि जमीन यकायक जोर से हिली और मुझे लिए हुए सन्दूक जमीन के अन्दर घुस गया, उसी समय मेरा हाथ छूट गया और सन्दूक से अलग होकर, इधर-उधर टटोलने लगा, क्योंकि वहाँ बिल्कुल ही अन्धकार था, यह भी न मालूम होता था कि किधर दीवार है और किधर जाने का रास्ता है। ऊपर की तरफ जहाँ सन्दूक धँस जाने से गड़हा हो गया था, देखने से भी कुछ मालूम न होता था, लाचार मैंने एक तरफ का रास्ता लिया और बराबर चले ही जाने का विचार किया, परन्तु सीधा रास्ता न मिला, कभी ठोकर खाता, कभी दीवार में अड़ता, कभी दीवार थामे घूमकर चलना पड़ता, जब दुःखी हो जाता तो पीछे की तरफ लौटना चाहता था, मगर लौट न सकता था, क्योंकि लौटते समय तबियत और भी घबड़ाती और गर्मी मालूम होती थी, लाचार आगे की तरफ बढ़ना पड़ता। इस बात को खूब समझता था कि मैं आगे ही की तरफ बढ़ता हुआ बहुत दूर नहीं जा रहा हूँ, बल्कि चक्कर खा रहा हूँ, मगर क्या करूँ लाचार था, अक्ल कुछ काम न करती थी। इस बात का पता लगाना बिल्कुल ही असम्भव था कि दिन है कि रात, सुबह है या शाम, बल्कि वही दिन है, या दूसरा दिन, मगर जहाँ तक मैं सोच सकता हूँ इस खराबी में आठ-दस पहर बीत गये होंगे। कभी तो मैं जीवन से निराश हो जाता, कभी यह सोचकर कुछ ढाढ़स होती कि आप मेरे छुड़ाने का जरूर कुछ उद्योग करेंगे। इसी बीच में मुझे कई खुले हुए दरवाजों के अन्दर पैर रखने और फिर उसी या दूसरे दरवाज़े की राह से बाहर निकलने की भी नौबत आयी, मगर छुटाकारे की कोई सूरत नजर न आयी। अन्त में एक कोठरी के अन्दर पहुँचकर बदहवास हो जमीन पर गिर पड़ा, क्योंकि भूख-प्यास के मारे दम निकला जाता था। इस अवस्था में भी कई-पहर बीत गये, आखिर इस समय से घण्टे-भर पहिले मेरे कान में एक आवाज़ आयी, जिससे मालूम हुआ कि इस कोठरी के बगलवाली कोठरी का दरवाज़ा किसी ने खोला है। मुझे यकायक आपका खयाल हुआ। थोड़ी ही देर बाद जमीन हिली और तरह-तरह के शब्द होने लगे। आखिर यकायक उजाला हो गया, तब मेरे जान में जान आयी। बड़ी मुश्किल से मैं उठा, सामने का दरवाज़ा खुला हुआ पाया, निकलके दूसरी कोठरी में पहुँचा, जहाँ दरवाज़े के पास ही देखा कि पत्थर का एक आदमी पड़ा है, जिसका शरीर पानी पड़े हुए चूने की कली की तरह फूला-फटा पड़ा है, इसके बाद मैं तीसरी कोठरी में गया और फिर सीढ़ियाँ चढ़कर आपके पास पहुँचा।"

कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने अपने छोटे भाई के हाल पर बहुत अफसोस किया और कहा—"यहाँ मेवों और पानी की कमी नहीं है, पहिले तुम कुछ खा पी लो तो मैं अपना हाल तुमसे कहुँगा।"

दोनों भाई वहाँ से उठे और खुशी-खुशी मेवेदार पेड़ों के पास जाकर पके और स्वादिष्ट मेवे खाने लगे। छोटे कुमार बहुत भूखे और सुस्त हो रहे थे, मेवे खाने और पानी पीने से उनका जी ठिकाने हुआ, और फिर दोनों भाई उसी मन्दिर के सभामण्डप में आ बैठे, तथा बातचीत करने लगे। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने अपना पूरा-पूरा हाल अर्थात्, जिस तरह यहाँ आये थे और जो कुछ किया था, आनन्दसिंह से कह सुनाया और इसके बाद कहा, "खून से लिखी, इस किताब को अच्छी तरह पढ़ जाने से मुझे बहुत फायदा हुआ। यदि तुम भी इसे इस तरह पढ़ जाओ और याद कर जाओ कि फिर इसकी आवश्यकता न रहे तो दोनों भाई शीघ्र ही इस तिलिस्म को तोड़ के नाम और दौलत पैदा करें। साथ ही इसके इस बात को भी समझ रक्खो कि बाग में आकर तुम्हारा पता लगाने की नीयत से जो कुछ मैंने किया उससे इतना नुकसान अवश्य हुआ कि अब बिना तिलिस्म तोड़े हम लोग यहाँ से बाहर नहीं निकल सकते।"

आनन्द : (कुछ सोचकर) यदि ऐसा ही है और आपको निश्चय है कि इस रिक्तगन्थ के पढ़ जाने से हम लोग अवश्य तिलिस्म तोड़ सकेंगे तो मैं इसी समय इसका पढ़ना आरम्भ करता हूँ, परन्तु इसमें बहुत से लेख ऐसे हैं, जिसका मतलब समझ में नहीं आता...।

इन्द्रजीत : ठीक है, मगर मैं अभी कह चुका हूँ कि तुम्हें खोजता हुआ जब मैं खूँटियों वाले मकान के पास पहुँचा तो राजा गोपालसिंह ने...

आनन्द : (बात काटकर) जी हाँ, मुझे बखूबी याद है, आपने कहा था कि राजा गोपालसिंह ने कोई ऐसी तरकीब आपको बतायी है कि जिससे केवल रिक्तगन्थ ही नहीं, बल्कि हरएक तिलिस्मी किताब को पढ़कर उसका मतलब आप बखूबी समझा सकेंगे, अस्तु, मेरे कहने का मतलब यह था कि जब तक आप मुझे न बतायेंगे तब तक...

इन्द्रजीत : (हँसकर) इतनी उलझन डालने की क्या जरूरत थी! मैं तो स्वयं वह भेद तुमसे कहने को तैयार हूँ, अच्छा सुनो...

कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी किताबों को पढ़कर समझने का भेद जो राजा गोपालसिंह से सुना था आनन्दसिंह को बताया। इतने ही में मन्दिर के पीछे की तरफ चिल्लाने की आवाज़ आयी, दोनों भाई का ध्यान एकदम उस तरफ चला गया और तब यह आवाज़ सुनायी पड़ी, "अच्छा अच्छा, तू मेरा सिर काट ले। मैं भी यही चाहती हूँ कि अपनी जिन्दगी में इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को दुःखी न देखूँ। हाय इन्द्रजींह, अफसोस इस समय तुम्हें मेरी खबर कुछ भी न होगी!"

इस आवाज़ को सुनकर इन्द्रजीतसिंह बेचैन और बेताब हो गये और जल्दी से आनन्दसिंह से ये कहते हुए कि ‘कमलिनी की आवाज़ मालूम पड़ती है’! मन्दिर के पीछे की तरफ झपटे और आनन्दसिंह भी उनके पीछे-पीछे चले।

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