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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

तेरहवाँ बयान


कल शाम को बाबाजी जमानिया गये थे, और आज शाम होने के दो घण्टे पहिले ही लौट आये। दूर ही से अपने बँगले की हालत देख सिर हिलाकर बोले, "मैं उसी समय समझ गया था, जब मायारानी ने कहा था कि कैदियों को मेगजीन के बगलवाले तहखाने में कैद करना चाहिए।"

बाबाजी का बँगला, जो बहुत ही खूबसूरत और शौकीनों के रहने लायक था बिल्कुल बर्बाद हो गया था, बल्कि यों कहना चाहिए कि उसकी एक-एक ईंट अलग हो गयी थी। बाबाजी धीरे-धीरे उसके पास पहुँचे और कुछ देर तक गौर से देखने के बाद यह कहते हुए घूम पड़े कि ‘जो हो मगर अजाबघर किसी तरह बर्बाद नहीं हो सकता’।

बाबाजी के बँगले के बरबाद होने का सबब पाठक समझ ही गये होंगे, क्योंकि ऊपर के बयान में मायारानी और नागर की बातचीत से वह भेद साफ़-साफ़ खुल चुका है। अब बाबाजी इस विचार में पड़े कि मायारानी को ढूँढ़ना और उनसे दो-दो बातें करनी चाहिए।

ऐसा करने में बाबाजी को विशेष तकलीफ न उठानी पड़ी, क्योंकि थोड़ी ही दूर पर उन्हें उन लौंडियों में से एक लौंडी मिली, जो उस समय मायारानी के साथ थीं, जब बाबाजी कैदियों को तहखाने में बन्द करके दीवान से मिलने के लिए जमानिया की तरफ रवाना हुए थे। बाबाजी ने उस लौंडी से केवल इतना ही पूछा, "मायारानी कहाँ हैं?"

लौंडी : जब आप जमानिया की तरफ चले गये तो मायारानी हम लोगों को साथ लेकर दिल बहलाने के लिए इस जंगल में टहलने लगीं, और धीरे-धीरे यहाँ से कुछ दूर चली गयीं। ईश्वर ने बड़ी कृपा की कि रानी साहबा के दिल में यह बात पैदा हुई, नहीं तो हम लोग भी टुकड़े-टुकड़े होकर उड़ गये होते, क्योंकि थोड़ी ही देर बाद एक भयानक आवाज़ सुनने से अन्धकार हो रहा था। हम लोग डरकर पीछे की तरफ हट गये और अन्त में इस बँगले की ऐसी अवस्था देखने में आयी जो आप देख रहे हैं। लाचार मायारानी ने यहाँ ठहरना उचित न समझा और नागर के साथ काशी की तरफ रवाना हो गयी।

बाबा : और तुझे इसलिए यहाँ छोड़ गयी कि जब मैं आऊँ तो बातें बनाकर मेरे क्रोध को बढ़ावें!

लौंडी : जी ई ई ईय...

बाबा : जी ई ई ई क्या? बेशक, यही बात है! खैर, अब तू भी यहाँ से चली जा और कमबख्त मायारानी से जाकर कह दे कि जो कुछ तूने किया बहुत अच्छा किया, मगर इस बात को खूब याद राखियो कि नेकी का नतीजा नेक है और बद को कदापि सुख की नींद सोना नसीब नहीं होता। अच्छा ठहर मैं एक चीठी लिख देता हूँ, सो लेती जा और जहाँ तक जल्द हो सके, मिलकर मायारानी के हाथ में दे दे।

इतना कहकर बाबाजी बैठ गये और अपने बटुए से सामान निकालकर चीठी लिखने लगे, जब चीठी लिख चुके तो उस लौंडी के हाथ में दे दिया, और आप उत्तर की तरफ रवाना हो गये।

इसमें कोई संदेह नहीं कि यह लौंडी बाबाजी की चीठी लिये हुए काशी जी जायगी और मायारानी मिलकर चीठी उसके हाथ में दे देगी, मगर हम आपको अपने साथ लिये हुए पहले ही काशी पहुँचते हैं और देखते हैं कि मायारानी किस धुन में कहाँ बैठी है, या क्या कर रही है।

पहर रात से ज्यादे जा चुकी है। काशी में मनोरमा मकान के अन्दर एक सजे हुए कमरे में मायारानी नागर के साथ बैठी हुई कुछ बात कर रही है। इस समय कमरे में सिवाय नागर और मायारानी के और कोई नहीं है। कमरे में यद्यपि बहुत से बेशकीमती शीशे करीने के साथ लगे हुए हैं, मगर रोशनी दो दीवारगीरों में और एक सब्ज कंवलवाले शमादान में जो मायारानी के सामने गद्दी के नीचे रक्खा हुआ है, हो रही है। मायारानी सब्ज मखमल की गद्दी पर गाव तकिए के सहारे बैठी है। इस समय उसका खूबसूरत चेहरा जो आज के तीन-चार दिन पहिले उदासी और बदहवासी के कारण, बेरौनक हो गया था, खुशी और फतहमन्दी की निशानियों के साथ दमक रहा है और वह किसी सवाल का इच्छानुसार जवाब पाने की आशा में मुस्कुराती हुई नागर की तरफ देख रही है।

नागर : इसमें तो कोई संदेह नहीं कि बड़ी भारी बला आपके सिर से टली परन्तु यह न समझना चाहिए कि अब आपको किसी आफत का सामना न करना पड़ेगा।

माया : इस बात को मैं जानती हूँ कि जमानिया की गद्दी पर बैठने के लिए, अब भी बहुत कुछ उद्योग करना पड़ेगा, मगर मैं यह कह रही हूँ कि सबसे भारी बला जो थी, वह टल गयी। कमबख्त कमलिनी ने भी बड़ा ऊधम मचा रक्खा था, अगर वह बीरेन्द्रसिंह की पक्षपाती न होती तो मैं कभी की दोनों कुमारों को मौत की नींद सुला चुकी होती।

नागर : बेशक बेशक।

माया : और भूतनाथ का मारा जाना भी बहुत अच्छा हुआ, क्योंकि उसे इस मकान का बहुत कुछ भेद मालूम हो चुका था और इस सबब से इस मकान के रहने वाले भी बेफिक्र नहीं रह सकते थे। मगर देखो तो सही, हरामजादे दीवान को क्या हो गया जो एकदम मुझसे फिर गया, बल्कि गिरफ्तार करने का उद्योग करने लगा।

नागर : जरूर यह बात उन नकाबपोशों की बदैलत हुई है।

माया : ठीक है, पहिले तो मैं बेशक ताज्जुब में थी कि न मालूम वे दोनों नकाबपोश कौन थे और कहाँ से आये थे और दीवान तथा सिपाहियों के बिगड़ने का सबब केवल यही ध्यान आता था कि धनपत का भेद खुल जाने से उन लोगों ने मुझे बदकार समझ लिया, मगर अब मुझे निश्चय हो गया कि उन दोनों नकाबपोशों में से एक तो जरूर गोपालसिंह था।

नागर : मुझे भी यही निश्चय है, बल्कि अभी यही बात अपने मुँह से निकलने वाली थी। उनके सिवाय और कोई ऐसा नहीं हो सकता कि केवल सूरत दिखाकर लोगों को अपने वश में कर ले। सिपाहियों को और दीवान को जरूर इस बात का निश्चय हो गया कि गोपालसिंह को तुमने कैद कर रक्खा था। खैर, जो होना था, सो हो गया, अब तो राजा गोपालसिंह का नाम-निशान ही न रहा, जो फिर जाकर अपना मुँह उन लोगों को दिखावेंगे, अब थोड़े ही दिनों में उन लोगों को निश्चय करा दिया जायगा कि वह राजा बीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार था।

माया : तुम्हारा कहना बहुत ठीक है और मेरे नजदीक अब यह कोई बड़ी बात नहीं है कि बेईमान दीवान को गिरफ्तार कर लूँ, या मार डालूँ, मगर एक बात का खुटका जरूर है।

नागर : वह क्या?

माया : केवल इतना ही कि दीवान को मारने या गिरफ्तार करने के साथ-ही-साथ राजा बीरेन्द्रसिंह की उस फौज का भी मुकाबला करना पड़ेगा, जो सरहद पार आ चुकी है।

नागर : इसमें तो कुछ भी सन्देह नहीं है और इस बात का भी विश्वास नहीं हो सकता कि तुम्हारी फौज तुम्हारा पक्ष लेकर लड़ने के लिए तैयार हो जायगी। फौजी सिपाहियों के दिल से गोपालसिंह का ध्यान दूर होना दो-एक दिन का काम नहीं है!      

माया : (कुछ सोचकर) तो क्या मैं अकेली राजा बीरेन्द्रसिंह की फौज को नहीं हटा सकती।

नागर : सो तो तुम्हीं जानो।

माया : बेशक, मैं ऐसा कर सकती हूँ, मगर अफसोस, मेरा प्यारा धनपत...

धनपत का नाम लेते ही मायारानी की आँखें डबडबा आयीं। नागर ने अपने आँचल से उसकी आँखें पोंछीं और बहुत कुछ धीरज दिया। इसी समय दरवाज़े से चुटकी बजाने की आवाज़ आयी, जिसे सुन नागर समझ गयी कि कोई लौंडी यहाँ आया चाहती है। नागर ने पुकार कर कहा, "कौन है, चली आओ।"

वह लौंडी भीतर आते हुई दिखायी पड़ी जो बर्बाद हुए बँगले के पास बाबाजी से मिली थी, और जिसके हाथ बाबाजी ने मायारानी के पास चीठी भेजी थी। उसको देखते ही मायारानी चैतन्य हो बैठी और बोली, "कहो दारोगा से मुलाकात हुई थी?"

लौंडी : जी हाँ।

माया : (मुस्कुराकर) वह तो बहुत ही बिगड़ा होगा।

लौंडी : हाँ, बहुत झुँझलाये और उछले-कूदे, आपकी शान में कड़ी-कड़ी बातें कहने लगे, मगर मैं चुपचाप खड़ी सुनती रही, अन्त में बोले, "अच्छा मैं एक चीठी लिखकर देता हूँ, ले जाकर मायारानी को दे दीजियो।"

माया : तो क्या उसने चीठी लिखकर दी?

लौंडी : जी हाँ, यह मौजूद है लीजिए।

लौंडी ने चीठी मायारानी के हाथ में दे दी और मायारानी ने यह कहकर चीठी ले ली कि ‘देखना चाहिए इसमें दारोगा साहब क्या रंग लाये हैं’! इसके बाद वह चीठी नागर के हाथ में देकर बोली, "लो इसे तुम ही पढ़ो।"

नागर चीठी खोलकर पढ़ने लगा। उस समय मायारानी की निगाह नागर के चेहरे पर थी। आधी चीठी पढ़ने के बाद नागर के चेहरे पर हवाई उड़ने लगी और डर के मारे उसका हाथ काँपने लगा। मायारानी ने घबड़ाकर पूछा, "क्यों क्या हाल, कुछ कहो तो?"

इसके जवाब में नागर ने लम्बी साँस लेकर चीठी मायारानी के सामने रख दी और बोली, "ओह, मेरी सामर्थ्य नहीं कि इस चीठी को आखीर तक पढ़ सकूँ। हाय, निःसन्देह बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का मुकाबला करना पूरा-पूरा पागलपन है।"

मायारानी ने घबड़ाकर चीठी उठा ली और स्वयं पढ़ने लगी, पर वह भी उस चीठी को आधे से ज्यादा न पढ़ सकी। पसीना छूटने लगा, शरीर काँपने लगा, दिमाग में चक्कर आने लगे, यहाँ तक कि अपने को किसी तरह सम्हाल न सकी और बदहवास होकर गिर पड़ी।


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