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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

बारहवाँ बयान


शाम होने में कुछ भी विलम्ब नहीं है। सूर्य भगवान अस्त होगये, केवल उनकी लालिमा आसमान में पश्चिम तरफ साफ़  दिखायी दे रही है। दारोगावाले बँगले में रहनेवालों के लिए, यह अच्छा समय है। परन्तु आज उस बँगले में जितने आदमी दिखायी दे रहे हैं, वे सब इस योग्य नहीं हैं कि बेफिक्री के साथ इधर-उधर घूमें और इस अनूठे समय का आनन्द लें। यद्यपि राजा गोपालसिंह, कमलिनी और लाडिली की तरफ से मायारानी निश्चिन्त हो गयी, बल्कि उनके साथ-ही-साथ दो ऐयारों को भी उसने गिरफ्तार किया है, मगर अभी तक उसका जी ठिकाने नहीं हुआ। वह नहर के किनारे बैठी हुई बाबाजी से बातें कर रही है और इस फिक्र में है कि कोई ऐसी तरकीब निकल आवे कि जमानिया की गद्दी पर बैठकर उसी शान के साथ हुकूमत करे, जैसाकि आज के कुछ दिन पहिले कर रही थी। उसके पास केवल नागर बैठी हुई दोनों की बातें सुन रही है।

माया : जिस दिन से आपको बीरेन्द्रसिंह ने गिरफ्तार कर लिया, उसी दिन से मेरी किस्मत ने ऐसा पलटा खाया कि जिसका कोई हद्दहिसाब नहीं, मानो मेरे लिए जमाना ही और हो गया। एक दिन भी सुख के साथ सोना नसीब न हुआ! मुझ पर जो-जो मुसीबतें आयीं और तिलिस्मी बाग के अन्दर, जो-जो अनहोनी बातें हुईं, उनका खुलासा हाल आज मैं आपसे कह चुकी हूँ। इस समय यद्यपि राजा गोपालसिंह, कमलिनी, और लाडिली की तरफ से निश्चिन्त हूँ मगर फिर भी अपनी अमलदारी में या तिलिस्मी बाग के अन्दर जाकर रहने का हौसला नहीं पड़ता, क्योंकि तिलिस्मी बाग के अन्दर दोनों नकाबपोशों के आने और धनपत का भेद खुल जाने से हमारे सिपाहियों की हालत बिल्कुल ही बदल गयी है, और मुझे उनके हाथों से दुःख भोगने के सिवाय और किसी तरह की उम्मीद नहीं है। यह भी सुनने में आया है कि दीवान साहब मुझे गिरफ्तार करने की फिक्र में पड़े हुए हैं।

बाबा : दीवान जो कुछ कर रहा है, उससे मालूम होता है कि या तो उसे राजा गोपालसिंह का असल-असल हाल मालूम हो गया है, और वह उन्हें फिर जमानिया की गद्दी पर बैठाना चाहता है, या वह स्वयं राजा साहब के बारे में धोखा खा रहा है और चाहता कि तुम्हें गिरफ्तार कर राजा बीरेन्द्रसिंह के हवाले करे और उनकी मेहरबानी के भरोसे पर स्वयं जमानिया का राजा बन बैठे। तुम कह चुकी हो कि राजा बीरेन्द्रसिंह की बीस हजार फोज मुकाबले में आ चुकी है, जिसका अफसर नाहरसिंह है। अब सोचना चाहिए कि नाहरसिंह के मुकाबले आ जाने पर भी चुपचाप बैठे रहना बेसबब नहीं है और...

माया : शायद इसका सबब यह हो कि दीवान ने मुझे गिरफ्तार करके बीरेन्द्रसिंह के हवाले कर देने की शर्त पर उनसे सुलह कर ली हो?

बाबा : ताज्जुब नहीं कि ऐसा ही हो, मगर घबड़ाओ नहीं मैं दीवान के पास जाऊँगा और देखूँगा कि वह किस ढंग पर चलने का इरादा करता है। अगर बदमाशी करने पर उतारू है तो मैं उसे ठीक करूँगा। हाँ, यह तो बताओ कि दीवान को, तुम्हारी तिलिस्मी बातों या तिलिस्मी कारखाने का भेद तो किसी ने नहीं दिया?

माया : जहाँ तक मैं समझती हूँ, उसे तिलिस्मी कारखाने में कुछ दखल नहीं है, मगर इस बात को मैं जोर देकर नहीं कह सकती, क्योंकि वे दोनों नकाबपोश हमारे तिलिस्मी बाग के भेदों से बखूबी वाकिफ हैं, जिनका हाल मैं आपसे कह चुकी हूँ, बल्कि ऐसा कहना चाहिए कि बनिस्बत मेरे वे ज्यादे जानकार हैं क्योंकि अगर ऐसा न होता तो वे मेरी उन तरकीबों को रद्द न कर सकते जो उनके फँसाने के लिए की गयी थीं, ताज्जुब नहीं कि उन दोनों ने दीवान से मिलकर तिलिस्म का कुछ हाल भी, उससे कहा हो।

बाबा : खैर, कोई हर्ज नहीं देखा जायगा, मैं कल जरूर वहाँ जाऊँगा और दीवान से मिलूँगा।

माया : नहीं, बल्कि आप आज ही जाइए और जहाँ तक जल्दी हो सके कुछ बन्दोबस्त कीजिए, क्योंकि अगर दीवान के भेजे हुए सौ-पचास आदमी मुझे ढूँढ़ते हुए, यहाँ आ जाँयगे तो सख्त मुश्किल होगी। यद्यपि यह तिलिस्मी खंजर मुझे मिल गया है और तिलिस्मी गोली से भी मैं सैकड़ों की जान ले सकती हूँ, मगर उस समय मेरे किये कुछ भी न होगा, जब किसी ऐसे से मुकाबिला हो जायगा, जिसके पास कमलिनी का दिया हुआ इसी प्रकार का खंजर मौजूद होगा।

बाबा : तथापि इस बँगले में आकर तुम्हें कोई सता नहीं सकता।

माया : ठीक है, मगर मैं कब तक इसके अन्दर छिपकर बैठी रहूँगी, आखिर भूख-प्यास भी तो कोई चीज़ है!

बाबा : मगर ऐसा होना बहुत मुश्किल है।

माया : तो हर्ज ही क्या है, अगर आप इसी समय दीवान के पास जाँय? मैं खूब जानती हूँ कि वह आपकी सूरत देखते ही डर जायगा।

बाबा : क्या तुम्हारी यही मर्जी है कि इसी समय जाऊँ?

माया : हाँ, जाइए और अवश्य जाइए।

बाबा : अच्छा यही सही, मैं जाता हूँ।

बाबाजी उसी समय उठ खड़े हुए और जमानिया की तरफ रवाना हो गये। मायारानी तब तक बराबर देखती रही, जब तक कि वे पेड़ की आड़ में होकर नजरों से गायब न हो गये, इसके बाद हँसकर नागर की तरफ देखा और कहा-"तुम समझती हो कि बाबाजी को मैंने जिद्द करके इसी समय यहाँ से क्यों धता बताया*?"(* अर्थात् विदा किया।)

नागर : जाहिर में जोकुछ तुमने बाबाजी से कहा है और जिस काम के लिए उन्हें भेजा है, यदि उसके सिवाय और कोई मतलब है तो मैं कह सकती हूँ कि मेरी समझ में कुछ न आया।

माया : (हँसकर) अच्छा तो अब मैं समझा देती हूँ। बाबाजी के सामने मैंने अपने को जितना बताया, वास्तव में मेरे दिल में उतना दुःख और रंज नहीं है, क्योंकि जिसका डर था, जिसके निकल जाने से मैं परेशान थी, जिसका प्रकट होना मेरे लिए मौत का सबब था, और जो मुझसे बदला लिये बिना माननेवाला न था, अर्थात् गोपालसिंह, वह मेरे कब्जे में आ चुका। अब अगर दुःख है तो इतना कि कमबख्त दारोगा ने उसे मारने न दिया, मगर मैं बिना उसकी जान लिये कब मानने वाली हूँ, इसलिए मैंने किसी तरह बाबाजी को यहाँ से धता बताया।

नागर : तो क्या तुम्हारा मतलब था कि बाबाजी यहाँ से विदा हो जायँ तो अपने कैदियों को मार डालो?

माया बेशक, इसी मतलब से मैंने बाबाजी को यहाँ से निकाल बाहर किया, क्योंकि अगर वह रहता तो कैदियों को मारने न देता और उसमें जो कुछ करामात है, सो तुम देख ही चुकी हो। अगर ऐसा न होता तो मैं सुरंग ही में उन सभों को मारकर निश्चिन्त हो जाती।

नागर : मगर बाबाजी ने उस कोठरी की ताली तो तुम्हें दी नहीं, जिसमें कैदियों को रक्खा है।

माया : ठीक है, बाबाजी इस बात में चालाकी कर गये। कैदखाने की कोठरी क्योंकर खुलती है, सो मुझे नहीं बताया और न कोई ताली वहाँ की मुझे दी, मगर मैं पहिले ही से समझे हुई थी कि बाबाजी कैदियों को जरूर किसी जगह रक्खेंगे, जहाँ मैं नहीं जा सकती, इसीलिए तो बाबाजी से मैंने कहा कि कैदियों को मेगजीन के बगलवाली कोठरी में कैद करो। बाबाजी मेरा मतलब न समझ सके और धोखे में आ गये।

नागर : यह कहने से तो जाहिर होता है कि उस कोठरी में तुम जा सकती हो।

माया : नहीं, उस कोठरी में मैं नहीं जा सकती, मगर मेगजीन की कोठरी तक जा सकती हूँ।

नागर : (जोर से हँसकर) अहा हा, अब मैं समझी! तुम्हारा मतलब यह है कि मेगजीन में जहाँ बारूद का खजाना रक्खा है, वहाँ जाओ और उसमें आग लगाकर इस...

माया : बस बस, यही है, कैदी और कैदखाने की क्या बात इस बँगले का ही सत्यानाश कर दूँगी। कैदियों की हड्डियों तक का तो पता लगेगा ही नहीं! अच्छा अब इस काम में विलम्ब न करना चाहिए, उठो और मेरे साथ चलकर उस कोठरी में अर्थात् मेगजीन में कोई ऐसी चीज़ रक्खो जो उस वक्त बारूद में आग लगावे, जब हम लोग यहाँ से निकलकर कुछ दूर चली जाँय।

नागर : ऐसा ही होगा, यह कोई मुश्किल बात नहीं है।

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