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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

सातवाँ बयान

 रात आधी जा चुकी है। कमलिनी उस कमरे में जो उसके सोने के लिए मुकर्रर किया गया था, चारपाई पर लेटी हुई करवटें बदल रही है, क्योंकि उसकी आँखों में नींद का नामों निशान नहीं है। उसके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होती और मिटती हैं। उसे इस कोठरी की बनावट ने और भी तरद्दुद में डाल रक्खा है। यद्यपि इस कोठरी में विशेष सामान नहीं और न किसी तरह की सजावट ही है, केवल एक चारपाई जिस पर कमलिनी सोयी है और एक चौकी पड़ी है तथा कोने में एक शमादान जल रहा है, परन्तु तीन तरफ़ की दीवारों पर वह ताज्जुब और तरद्दुद की निगाह डाल रही है। इस कमरे के एक तरफ़ की दीवार, जिधर से इसमें आने के लिए दरवाज़ा था, ईँट और चूने से बनी हुई थी, परन्तु बाकी तीन तरफ़ की दीवारें तख्तेबन्दी की थीं अर्थात् लकड़ी से बनी हुई थीं। कमलिनी के दिल में शक पैदा हुआ और उसने सोचा कि इन तख्तेबन्दी की दीवारों में कोई भेद ज़रूर है। इस मकान का कुछ-कुछ भेद कमलिनी को मालूम था पर यहाँ का पूरा-पूरा हाल वह नहीं जानती थी और जानने की इच्छा रखती थी। आख़िर कमलिनी से चुप न रहा गया और वह चारपाई से उठी। पहिले उसने उस दरवाज़े को भीतर की तरफ़ से बन्द किया, जो इस कमरे में आने-जाने के लिए था, इसके बाद कमर से खंजर निकाल लिया और उसके कब्जे से उन तख्तेबन्दी की दीवारों को जगह-जगह से ठोंककर देखने लगी। एक जगह से उसे दीवार पोली मालूम पड़ी और उस पर वह बखूबी ग़ौर करने लगी। जब कुछ मालूम न हुआ तो उसने शमादान उठा लिया और फिर उस जगह को ग़ौर से देखने लगी। थोड़ी ही देर में उसे विश्वास हो गया कि यहाँ पर एक छोटा-सा दरवाज़ा है, क्योंकि दरवाज़े के चारों तरफ़ की बारीक दरार का निशान बहुत ग़ौर करने पर मालूम होता था कमलिनी ने दरार में खंजर की नोक चुभाई और उसे अच्छी तरह दो-चार दफे हिलाया। दरार बड़ा हो गया और आधा खंजर उसके अन्दर चला गया। फिर से कोशिश करने पर लकड़ी का एक तख्ता अलग हो गया और दूसरी तरफ़ जाने लायक रास्ता निकल आया।

हाथ में शमादान लिये हुए कमलिनी अन्दर घुसी और एक बहुत लम्बी-चौड़ी कोठरी में पहुँची। इस कोठरी के चारों तरफ़ की दीवार भी तख्तेबन्दी की थी। इसमें कई चीज़ें ऐसी पड़ी हुई थीं, जिनके देखने से चाहे कैसा ही संगदिल और दिलावर आदमी क्यों न हो, मगर एक दफे काँप उठे और उसका कलेजा मामूली से चौगुना और आठगुना धड़कने लग जाय।

इस कोठरी में एक घोड़े की लाश थी, मगर वह अजब ढंग से थी। उसके चारों तरफ़ चार खूँटियाँ ज़मीन में गड़ी हुई थीं और उन खूँटियों के सहारे उस घोड़े के चारों पैर बँधे हुए थे। उस घोड़े का पेट चीरा हुआ और आँते निकालकर बाहर रक्खी हुई थीं। चारों तरफ़ खून फैला हुआ था, मालूम होता था कि यह घोड़ा किसी काम के लिए आज ही मारा गया है। उसके पास ही थोड़ी दूर पर फूलों के कई गमले रक्खे हुए थे और उनके पास ही एक सुन्दर बिछौना जिस पर सुफेद चादर थी बिछा हुआ था तथा उस पर एक आदमी गरदन तक सुफेद ही चादर ओढ़े सो रहा था। घोड़े के पास से लेकर उस बिछावन तक पैर से लगे हुए खून के दाग ज़मीन पर दिखायी दे रहे थे और बिछावन की चादर तथा उस चादर में भी जो वह आदमी ओढ़े हुए था, खून के धब्बे लगे हुए थे।

उस आदमी को देखकर कमलिनी इसलिए हिचकी कि कहीं वह जागकर कमलिनी को देख न ले, मगर थोड़ी देर तक खड़े रहने पर भी उसके हिलने-डुलने अथवा उसकी साँस चलने की आहट न मिली। तब कमलिनी हाथ में शमादान लिए हुए उस बिछावन के पास गयी और रोशनी में उस आदमी की सूरत देखने लगी, जिसका बिल्कुल चेहरा बखूबी खुला हुआ था। सूरत देखते ही कमलिनी चौंक पड़ी और शमादान ज़मीन पर रख बेधड़क उस आदमी का बाजू पकड़ के हिलाने और यह कहकर उसको जगाने का उद्योग करने लगी कि "वाह वाह! तुम यहाँ बेख़बर पड़े हुए हो और मुझे इसका ज़रा भी हाल नहीं मालूम!!

जब बाजू पकड़ के हिलाने से भी वह आदमी न जागा तब कमलिनी को ताज्जुब हुआ और ग़ौर से उसकी सूरत देखने लगी, मगर नब्ज पर हाथ रक्खा तो मालूम हो गया कि वह जिन्दा नहीं बल्कि मुर्दा है। यह जानते ही कमलिनी का जी भर आया और वह मुर्दे के सर पर हाथ रखकर रोने और गरम-गरम आँसू गिराने लगी। थोड़ी देर तक कमलिनी इसी अवस्था में पड़ी रही, आख़िर वह चैतन्य हुई और यह कहकर उठ खड़ी हुई कि 'बात तो बहुत ही बुरी हुई, मगर इस समय मुझे सब्र करना चाहिए नहीं तो कुछ भी न कर सकूँगी। हाय, मेरा दिल और मेरे काबू में न रहे! नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, मैं पूरा-पूरा सब्र करूँगी और देखूँगी कि क्या कर सकती हूँ। इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं कि इसकी जान निकले चार पहर से ज़्यादे अभी नहीं हुए'। कमलिनी फिर शमादान उठाकर उस कोठरी में घूमने और चारों तरफ़ देखने लगी। पूरब और दक्खिन के कोने में एक लाश छत से लटकती हुई दिखायी पड़ी, जिसके गले में फाँसी लगी थी। वह ताज्जुब के साथ शमादान ऊँचा करके उसकी सूरत देखने लगी, जब अच्छी तरह पहिचान चुकी तो नफरत के साथ उस लाश पर थूककर अपना मुँह फेर लिया और दूसरी तरफ़ चली ही थी कि यह आवाज़ सुनकर ठहर गयी और उस तरफ़ देखने लगी, जिधर से आवाज़ आयी थी। आवाज़ यह थी–'हाय, मौत को भी मौत आ गयी।" उसे ताज्जुब मालूम हुआ कि यह आवाज़ क्योंकर आयी। वह यह देखने के लिए उस तरफ़ बढ़ी, जिधर से आवाज़ आयी थी कि शायद कोई सूराख या खिड़की दिखायी दे और आख़िर ऐसा ही हुआ। दीवार के पास पहुँचते ही एक सूराख ऐसा दिखा जिसमें आदमी की गर्दन बखूबी जा सकती थी, यह टेढ़ा और नीचे की तरफ़ झुका हुआ सूराख, जिसे किसी कमरे का रोशनदान कहना चाहिए, दीवार के बिल्कुल नीचे की तरफ़ था।

कमलिनी ने उस सूराख में झाँककर देखा तो एक छोटे-से मगर सजे हुए कमरे में निगाह गयी। यह कमरा उस कोठरी से एक खण्ड नीचे था, जिसमें से कमलिनी झाँक रही थी। उस कमरे में जो कुछ कमलिनी ने देखा, उससे उसके दिल को बड़ा ही सदमा पहुँचा और जब तक वह देखती रही, उसकी आँखों से आँसू बराबर जारी रहे।

कमलिनी ने देखा कि एक पलँग पर जिसके पास ही शमादान जल रहा है, आफ़त की मारी बेचारी किशोरी पड़ी हुई है। रंज और गम के मारे सूख कर काँटा हो रही है। चेहरे पर मुर्दनी छायी हुई है और कमजोरी की यह अवस्था है कि साँस भी मुश्किल से आती-जाती है। थोड़ी-थोड़ी देर पर उसके होंठ हिलते हैं और धीरे-धीरे कुछ कहती है, मगर जब कहती है तो उसकी आवाज़ साफ़ सुनायी देती है। वह कह रही थी—

"हाय, अब इससे बढ़कर दुर्दशा क्या हो सकती है! इन्द्रजीतसिंह, तुम्हारी मुहब्बत में मैं यहाँ तक पहुँच चुकी, कुल में कलंकिनी कहाई, लज्जा जो तिलांजुली दे बैठी, और वह सब दुःख झेलने को तैयार हुई जो तुम्हारी बदौलत...

"(थोड़ी देर चुप रहकर) यहाँ तक रोयी कि अब आँखों में आँसू भी नहीं रहे। खाना-पीना छोड़ देने पर भी निगोड़ी जान नहीं निकलती। हाय, मौत को भी मौत आ गयी। नहीं नहीं, मौत को मौत नहीं आयी, वह देखो मेरे सामने खड़ा हुआ काल मेरी तरफ़ देख रहा है। अब कुछ दम की मेहमान हूँ। मैं तो जाती हूँ, मगर अफसोस, अपने प्यारे की जुदाई का रंज और उसकी बेवफाई और बेमुरौवती की शिकायत अपने साथ लिये जाती हूँ। हाय, इस समय ऐसा कोई भी नहीं, जो मेरी हालत देखे और मेरे बाद उनसे जाकर...

"(थोड़ी देर चुप रहकर) जब उनको मेरी परवाह ही नहीं है तो मेरा हाल कोई उनसे कहकर करेगा ही क्या? उन्होंने तो खुद कहला भेजा है कि मुझे कुछ भी परवाह नहीं। हाय, मैं ऐसी बात कैसे सुन सकी! उसी समय मेरी जान क्यों न निकल गयी! नहीं नहीं, यह सब ऐयारी है, उन्होंने ऐसी बात कभी न कही होगी। पर इससे क्या हो सकता है, जबकि दम निकलने में कुछ कसर बाकी नहीं है। देखो, देखो, वह काल अब मेरी तरफ़ बढ़ा चला आता है! अच्छा है, किसी तरह वह सायत आये भी तो। हे सर्वशक्तिमान जगदीश्वर! मैं तुम्हीं को गवाह रखती हूँ क्योंकि तुम खूब जानते हो कि मैं निर्दोष इस दुनिया से उठी जाती हूँ और इन्द्रजीतसिंह की मुहब्बत के सिवाय अपने साथ कुछ भी नहीं लिये जाती। हाँ, उस प्यारे की..."

इसके बाद बहुत देर तक राह देखने पर भी कुछ सुनायी न दिया। कमलिनी ने समझा कि या तो इसे कमजोरी से गश आ गया और या इस बेचारी हसरत की मारी का दम ही निकल गया। इस समय कमलिनी ने जो कुछ देखा या सुना, वह उसे बेसुध करने के लिए काफी था। कमलिनी जार-जार रो रही थी, यहाँ तक कि हिचकी बँध गयी और उसे इस बात का ध्यान बिल्कुल ही जाता रहा कि मैं यहाँ किस काम के लिए आयी हूँ, क्या कर रही हूँ और इस समय कैसे खतरे में फँसी हुई हूँ।

कमलिनी के लिए यह समय बड़े ही संकट का था। वह नहीं चाहती थी कि बेचारी किशोरी का पूरा-पूरा हाल जाने या उसे किसी तरह की मदद पहुँचाए बिना यहाँ से चली जाय और साथ ही इसके भूतनाथ के काग़ज़ात को भी, जिनके लेने का वह पूरा-पूरा उद्योग कर चुकी थी, किसी तरह छोड़ नहीं सकती थी, क्योंकि यह मौका निकल जाने पर फिर उनका हाथ लगना बहुत ही कठिन था।

किशोरी की हालत पर अफसोस करती हुई कमलिनी अभी नीचे देख ही रही थी कि यकायक उस कमरे का दरवाज़ा खुला और बहुत खूबसूरत नौजवान अमीराना पोशाक पहिरे अन्दर आता हुआ दिखायी पड़ा। उसके पीछे हाथ में पंखा लिये एक लौंडी भी थी, जिसने अन्दर पहुँचने पर उस दरवाज़े को उसी तरह बन्द कर दिया।

उस नौजवान की उम्र लगभग पच्चीस वर्ष की होगी। मेयाना कद, गोरा रंग, हाथ-पैर से मजबूत और खूबसूरत था। वह किशोरी के पलँग के पास आकर खड़ा हो गया और ग़ौर से उसकी तरफ़ देखने लगा। उस पलँग के पास ही एक मोढ़ा कपड़े से मढ़ा हुआ पड़ा था, जिसे लौंडी उठा लायी और पलँग के पास रखकर पंखा झलने लगी। नौजवान ने बड़े ग़ौर से किशोरी की नाड़ी देखी और फिर उस लौंडी की तरफ़ मुँह करके कहा, "गश आ गया है।"

लौंडी : कमजोरी के सबब से।

नौजवान : एक तो बीमार, दूसरे कई दिन से खाना-पीना सब छोड़ दिया, फिर ऐसी नौबत तो हुआ ही चाहे। अफसोस, यह मेरी बात नहीं मानती और मुफ्त में जान दे रही है।

लौंडी : इस ज़िद्द का भी कोई ठिकाना है!

नौजवान : ख़ैर, चाहे जो हो, मगर दो बात से तीसरी कभी हो ही नहीं सकती, या तो यह मेरी होकर रहेगी या इसी अवस्था में पड़ी-पड़ी यमलोक को सिधार जायगी। अच्छा इसे होश में लाना चाहिए।

"जो हुक्म" कहकर लौंडी वहाँ से चली गयी और एक आलमारी में से जो पलंग के सिरहाने की तरफ़ थी कई बोतलें निकाल लायीं, जिन्हें उस नौजवान के पास रखकर वह फिर पंखा झलने लगी।

नौजवान ने अपनी जेब में से रुमाल निकालकर एक बोतल के अर्क से उसे तर किया और दूसरी बोतल में से थोड़ा-सा अर्क हाथ में लेकर किशोरी के मुँह पर छींटा दिया। इसके बाद वही रुमाल नाक के पास ले जाकर कुछ देर तक सुँघाया। जब उससे कुछ काम न चला तो तीसरी बोतल से अर्क लेकर उसके मुँह पर छींटा दिया। थोड़ी देर में किशोरी का गश जाता रहा और उसने आँखें खोलकर देखा, मगर जैसे ही उस नौजवान पर निगाह पड़ी वह काँप उठी और दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर बोली—

"हाय, न मालूम यह चाण्डाल अब क्यों मेरे पास आया है।"

नौजवान : मैं इसी वास्ते आया हूँ कि एक दफे तुमसे और पूछ लूँ।

किशोरी : एक दफे क्या सौ दफे कह चुकी कि तू मुझसे किसी तरह की उम्मीद न रख। मैं तेरी सूरत देखने की बनिस्बत मौत को हजार दर्जे अच्छा समझती हूँ।

नौजवान : क्या अभी तक तुझे इस बात की उम्मीद है कि इन्द्रजीतसिंह आकर तेरी मदद करेंगे और छुड़ा ले जायेंगे?

किशोरी : मुझे क्या पड़ी है कि इन सब बातों का तुझे जवाब दूँ? मैं तुझ पर बल्कि तेरी सात पुस्त पर थूकती हूँ। चाण्डाल, हट जा मेरे सामने से!

लौंडी : (नौजवान से) हुजूर, इस कमीनी औरत से क्यों बेइज्जती करा रहे हैं? इसमें क्या ऐसा हीरा जड़ा है?

नौजवान क्रोध के मारे काँपने लगा, आँखें लाल हो गयीं, और दाँत पीसता हुआ मोढ़े पर से उठ खड़ा हुआ। दाहिने हाथ से वह छूरा निकाल लिया, जो उसकी कमर में छिपा हुआ था और बायें हाथ से किशोरी का हाथ पकड़ यह कहता हुआ उसकी तरफ़ झुका, "जब ऐसा ही है तो मैं इसी समय क्यों न तुझे यमलोक पहुँचाऊँ!"

उस नौजवान और किशोरी की यह अवस्था देखकर कमलिनी परेशान हो गयी और सोचने लगी कि इस जल्दी में कौन-सी तरकीब की जाय कि किशोरी की जान बचे। मगर वह कर ही क्या सकती थी? एक तो वह स्वयं चोरों की तरह कोठरियों में घूम रही थी, यदि किसी को ज़रा भी शक हो जाय तो उसकी जान पर आ बने, दूसरे कोई ऐसा रास्ता भी नहीं दिखायी देता था, जिधर से किशोरी के पास पहुँचकर उसकी सहायता करती, मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि कमलिनी बहुत होशियार, चालाक और बुद्धिमान थी। उसने बहुत जल्द दिल में इस बात का फैसला कर लिया कि अब क्या करना चाहिए। एक खयाल बिजली की तरह उसके दिल में दौड़ गया, मगर देखा चाहिए उससे कहाँ तक काम निकलता है।

जिस समय किशोरी को मारने के लिए वह नौजवान झुका और कमलिनी को मालूम हुआ कि अब उस बेचारी का काम तमाम हुआ चाहता है, उसी समय कमलिनी ने अपने कमर से तिलिस्मी खंजर निकाल लिया और जिस मोखे में देख रही थी उसके अन्दर डालकर उसका कब्ज़ादबाया*। यह खंजर बिजली की तरह चमका और उस कोठरी में इतनी ज़्यादे चमक या रोशनी पैदा हुई कि लौंडी, किशोरी और उस नौजवान की आँखें बिल्कुल बन्द हो गयीं, जो किशोरी को मारा चाहता था, इसके साथ ही कमलिनी ने भारी स्वर में यह आवाज़ दी, "ख़बरदार! किशोरी की जान लेकर अपनी जान का ग्राहक मत बन!!" (* पाठकों को याद होगा कि कमलिनी की कमर में इस समय दो तिलिस्मी खंजर मौजूद हैं।)

उस बिजली की चमक ने तो नौजवान को परेशान कर ही दिया था, मगर साथ ही कमलिनी की आवाज़ ने जो गैब की आवाज़ मालूम होती थी, उसे बदहवास कर दिया और वह इतना डरा और घबराया कि बिना कुछ सोचे और किशोरी को दुःख दिये, उस कोठरी से निकल भागा। कमलिनी ने भी अब उस जगह ठहरना मुनासिब न जाना। वहाँ तक जल्द हो सका अपने कमरे में चली आयी। उस तख्ते के दरवाज़े को जिसे खोल दूसरी कोठरी में गयी थी, ज्यों-का त्यों बन्द करने के बाद अपने कमरे का दरवाज़ा भी खोल दिया, जो दूसरी कोठरी में जाने के पहिले भीतर से बन्द कर लिया था।

इस समय रात बहुत थोड़ी रह गयी थी। कमलिनी ने चाहा कि दो घण्टे आराम करे, मगर जो कुछ अद्भुत बातें उसने देखी और सुनी थीं उनके खयाल और विचार ने आराम लेने न दिया और उसे किसी तरह नींद न आयी। अभी आसमान पर सुबह की सुफेदी अच्छी तरह फैलने नहीं पायी थी कि दरवाज़ा खुलने की आहट मालूम हुई, कमलिनी ने दरवाज़े की तरफ़ देखा तो नागर पर नज़र पड़ी।

कमलिनी पहिले ही से सोचे हुए थी कि आज की अद्भुत बातों का असर कुछ-न-कुछ नागर पर ज़रूर पड़ेगा और वह सवेरा होने के पहिले ही यहाँ पहुँचेगी, बल्कि ताज्जुब नहीं कि वह मुझ पर किसी तरह का शक भी करे। आख़िर कमलिनी का सोचना ठीक निकला।

इस समय नागर के चेहरे पर परेशानी और उदासी छायी हुई थी।

उसने आते ही कमलिनी पर एक तेज़निगाह डाली और सवाल करना शुरू किया—

नागर : इस समय तुम्हारी आँखें लाल मालूम होती हैं, क्या नींद नहीं आयी?

कमलिनी : हाँ, दो घण्टे के लगभग तो मैं सोयी, मगर फिर नींद नहीं आयी, अभी तक डर के मारे मेरा कलेजा काँप रहा है, यह उम्मीद न थी कि तुम मुझे ऐसी भयानक जगह सोने के लिए दोगी, क्योंकि मैंने तुम्हारे साथ किसी तरह की बुराई नहीं की थी।

नागर : (ताज्जुब से) सो क्या? तुम्हें किस बात की तकलीफ हुई और यहाँ पर क्या भयानक वस्तु देखने में आयी?

कमलिनी : मैं यहाँ पर अब एक सायत भी नहीं ठहर सकती, केवल तुम्हारी राह देख रही थी।

नागर : आख़िर मामला क्या है, कुछ कहो भी तो।

कमलिनी : अच्छा बाहर चलो तो जो कुछ देखा है, तुमसे कहूँ।

इसमें कोई शक नहीं कि नागर बहुत तेजी के साथ आयी थी और उसे कमलिनी पर शक था, मगर कमलिनी ने ऐसे ढंग से बातें की कि उसकी हालत बिल्कुल ही बदल गयी और वह तरह-तरह के सोच में पड़ गयी। नागर और कमलिनी बाहर आयीं और सहन में एक संगमर्मर की चौकी पर बैठकर बातचीत करने लगीं।

नागर : हाँ, कहो तुमने क्या देखा?

कमलिनी : दो घण्टे तो मैं बड़े आराम से सोयी पर यकायक घड़घड़ाहट की आवाज़ सुन चौंक पड़ी और घबड़ाकर चारों तरफ़ देखने लगी।

नागर : घड़घड़ाहट की आवाज़ कैसी?

कमलिनी : मालूम होता था कि इस कमरे के नीचे कई गाड़ियाँ दौड़ रही हैं। पहिले तो मुझे शक हुआ कि शायद भूकम्प आनेवाला है, क्योंकि उसके पहिले भी प्रायः ऐसी घटना हुआ करती है, मगर सो न हुआ। आख़िर थोड़ी देर तक राह देखकर फिर सो रही। आधा घण्टा भी न हुआ होगा कि मेरी चारपाई हिली, मैं घबराकर उठ बैठी और अपने सामने एक कम उम्र लड़के को देखकर ताज्जुब करने लगी।

नागर : (ताज्जुब से) कम उम्र लड़का! या कोई औरत थी? शायद तुमने अच्छी तरह खयाल न किया हो।

कमलिनी : जी नहीं, जहाँ तक मैं समझती हूँ, वह लड़का ही था!

नागर : भला उसकी उम्र क्या होगी? और सूरत-शक्ल कैसी थी?

कमलिनी : शायद चौदह-पन्द्रह वर्ष होगी, चेहरा खूबसूरत और रंग गोरा, सिर पर मुड़ासा बाँधे और हाथ में एक बड़ा-सा डब्बा लिये था।

नागर : (कुछ सोचकर) तुमने धोखा खाया, वह ज़रूर औरत बल्कि कमलि...अच्छा तब क्या हुआ?

कमलिनी : उसने आते ही मुझसे पूछा कि 'सच बता किशोरी कहाँ है'?

नागर : आते ही किशोरी को पूछा!

कमलिनी : जी हाँ, मैंने जवाब दिया कि 'मुझे ख़बर नहीं'। इतना सुनते ही उसकी आँखें लाल हो गयीं और गुस्से के मारे थरथर काँपने लगा। उसने वह बड़ा डब्बा जो हाथ में लिये था, ज़मीन पर दे मारा। उस डब्बे में से इतनी तेज़चमक पैदा हुई कि जिसे मैं अच्छी तरह बयान नहीं कर सकती। मालूम होता है कि आसमान से उतरकर कई बिजलियाँ एक साथ कमरे के अन्दर आ घुसी हैं। मेरी आँखें एकदम बन्द हो गयीं। और मैं काँपकर चारपाई पर गिर पड़ी। थोड़ी देर बाद मालूम हुआ कि कोई आदमी मेरे बदन पर हाथ फेर रहा है। बस उसी समय मैं बेहोश हो गयी और तनोबदन की सुध जाती रही। मैं समझती हूँ कि कोई पहर-भर के बाद मुझे होश आयी और तबसे बराबर जाग रही हूँ। मैंने बहुत चाहा कि कमरे से निकल भागूँ, मगर डर के मारे हाथ-पैर ऐसे कमजोर हो गये थे कि चारपाई से उठ न सकी, इस समय जब तुम्हारी सूरत देखी तो ज़रा जी ठिकाने हुआ।

नागर : (कुछ देर सोचने के बाद धीरे से) बेशक, यह काम मझली रानी का है दूसरे का नहीं।

कमलिनी : मझली रानी कौन?

नागर : तुम उसे नहीं जानती हो।

कमलिनी : ख़ैर, जो हो, मैं तो सोचे हुए थी कि कल या परसों जब मैं अपना काम करके लौटूँगी और एक रात इस शहर में काटने की नौबत आवेगी तो बस इसी मकान में रह जाऊँगी, क्योंकि मनोरमा की मोहब्बत के भरोसे इसे भी अपना घर समझती हूँ, मगर रात की बात ने ऐसा डरा दिया कि अब हिम्मत नहीं पड़ती।

नागर : नहीं नहीं, तुम जब इधर आया-जाया करो तो यहाँ ज़रूर टिका करो और इस मकान को अपना ही समझो। मैं लौंडियों और नौकरों को इस विषय में पूरा-पूरा हुक्म देती हूँ। यह भयानक घटना जो आज हुई है, रोज नहीं हो सकती इससे निश्चिन्त रहो।

कमलिनी : क्या कहूँ अभी तक होशहवास दुरुस्त नहीं हुए।

नागर : ज़रा ठहरो, मैं इस कमरे में जाती हूँ और एक चीज़ देखकर अभी लौट आती हूँ।

नागर उठी और उस कमरे में चली गयी जिसमें कमलिनी सोयी थी, मगर थोड़ी ही देर बाद आकर बोली, "तुम बेखौफ रहो, आज के बाद फिर कभी इस मकान में ऐसी घटना न देखोगी। क्या करूँ, लाचार हूँ, क्योंकि इस समय मुझे झख मारके रोहतासगढ़ मनोरमा को छुड़ाने के लिए जाना ही पड़ेगा, नहीं तो आज एक भारी काम निकालने का मौका आ गया था।"

कमलिनी : तुमने क्या कहा मेरी समझ में कुछ नहीं आया।

नागर : इन बातों को तुम नहीं समझ सकतीं। ख़ैर, अब तुम्हारा क्या इरादा है? मैं तो रोहतासगढ़ जाने के लिए तैयार हो चुकी हूँ।

कमलिनी : अच्छी बात है। जहाँ तक हो सके जल्दी जाओ, मैं भी एक ज़रूरी काम के लिए मिर्जापुर जाती हूँ, कल या परसों तक लौटूँगी। मैं तो कल ही चली जाती, मगर तुमने व्यर्थ मुझे रोक लिया।

नागर : मैंने व्यर्थ नहीं रोका था, मगर हाँ, अब उसे व्यर्थ ही कहना चाहिए, ख़ैर, माफ करो और कृपा करके मेरी एक बात स्वीकार करो तो बड़ा अहसान मानूँगी।

कमलिनी : वह क्या?

नागर : इस समय तो मैं रोहतासगढ़ जाती हूँ, क्या जाने कब तक लौटना हो, मगर तुम पन्द्रह दिन के अन्दर-ही-अन्दर मुझसे एक दफे ज़रूर मिलो।

कमलिनी : पन्द्रह दिन तक तो मैं इस प्रान्त में नहीं रह सकती, हाँ, पाँच-सात दिन तक यदि मुझसे मिल सको तो ठीक है।

नागर : शायद पाँच-सात दिन तक मेरा लौटना न हो।

कमलिनी : ऐसा नहीं हो सकता, तुम जिस समय पहुँचोगी और भूतनाथ के काग़ज़ात तेजसिंह को दिखाओगी, उसी समय मनोरमा की छुट्टी हो जायगी। इसमें कुछ सन्देह नहीं कि तेजसिंह बात का बड़ा धनी है।

नागर : यदि ऐसा हो तो मैं अपने तेज़ घोड़े पर सवार होकर कल बखूबी रोहतासगढ़ पहुँच सकती हूँ।

कमलिनी : ऐसा करो तो तुम चार ही दिन में लौट आओगी। मैं भी कल या परसों मिर्जापुर से आ जाऊँगी और जब तक तुम न लौटोगी, इसी मकान में टिकी रहूँगी, क्योंकि मनोरमा ने पुनः मिलने के लिए मुझसे कसम खिला ली थी, अस्तु, पाँच-चार दिन तक अपना हर्ज़ करके भी मनोरमा के लिए यहाँ अटकना आवश्यक है।

नागर : बहुत अच्छी बात है, जब मनोरमा से वादा कर चुकी हो तो मुझे विशेष कहने की कोई आवश्यकता नहीं।

कमलिनी : अच्छा तो आप अब मेरा एक काम करें।

नागर : कहिए।

कमलिनी : अपने किसी आदमी को भेजकर एक घोड़ा किराये का मँगवा दीजिए, जिस पर सवार होकर मैं मिर्जापुर जाऊँ, क्योंकि यद्यपि मैं ऐयार हूँ, परन्तु रोहतासगढ़ से यहाँ तक तेजी के साथ आने के कारण बहुत सुस्त हो रही हूँ।

नागर : क्या मनोरमा के घर घोड़ों की कमी है, जो तुम्हारे लिए किराये का घोड़ा मँगाया जाय।

इतना कहकर नागर चली गयी। थोड़ी देर के बाद एक लौंडी आयी, जिसने कमलिनी को स्नान इत्यादि से छुट्टी पा लेने के लिए कहा। कमलिनी ने दो एक ज़रूरी काम से तो छुट्टी पा ली, मगर स्नान करने से इन्कार किया और अपने बटुए से सामान निकालकर चीठी लिखने लगी।

घण्टे-भर बाद सफ़र के सामान से लैस होकर कई लौंडियों को साथ लिये हुए नागर भी उसी जगह आ पहुँची, जहाँ कमलिनी बिठायी गयी थी। उस समय कमलिनी चीठी लिख चुकी थी।

नागर : मैंने तुम्हारे पास इसलिए एक लौंडी भेजी थी कि तुम्हें नहला-धुला दे मगर तुमने…

कमलिनी : हाँ, मैंने स्नान नहीं किया क्योंकि इस समय अर्थात् सूर्योदय के पहिले स्नान करने की मेरी आदत नहीं। कहीं स्नान कर लूँगी, और कामों से छुट्टी पा चुकी हूँ।

नागर : ख़ैर, कुछ मेवा खाकर जल पी लो।

कमलिनी : नहीं इस समय माफ करो, हाँ, थोड़ा-सा मेवा साथ रख लूँगी, जो सफ़र में काम आवेगा।

थोड़ी देर बाद दो घोड़े कसे-कसाये लाये गये, एक पर नागर और दूसरे पर कमलिनी सवार हुई। उस समय कमलिनी ने वह चीठी जो अभी घण्टा-भर हुआ लिखकर तैयार की थी नागर के हाथ में दे दी और कहा, "इसे हिफ़ाज़त से रक्खो, मनोरमा को देकर मेरी तरफ़ से 'जै माया की' कहना।" वह चीठी लिफाफे के अन्दर थी और जोड़ पर मोहर लगायी हुई थी।

बाग के बाहर निकलकर कमलिनी ने पश्चिम का रास्ता लिया और नागर पूरब की तरफ़ रवाना हुई।

 

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