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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

।। सातवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

नागर थोड़ी दूर पश्चिम जाकर घूमी और उस सड़क पर चलने लगी, जो रोहतासगढ़ की तरफ़ गयी थी।

पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि नागर का दिल कितना मजबूत और कठोर था। उन दिनों जो रास्ता काशी से रोहतासगढ़ को जाता था, वह बहुत ही भयानक और खतरनाक था। कहीं-कहीं तो बिल्कुल ही मैदान में जाना पड़ता था और कहीं गहन वन में होकर दरिन्दे जानवरों की दिल दहलाने वाली आवाज़ें सुनते हुए सफ़र करना पड़ता था। इसके अतिरिक्त उस रास्ते में लुटेरों और डाकुओं का डर तो हरदम बना ही रहता था। मगर इन सब बातों पर ज़रा भी ध्यान न देकर नागर ने अकेले ही सफ़र करना पसन्द किया, इसी से कहना पड़ता है कि वह बहुत ही दिलावर, निडर और संगदिल औरत थी। शायद उसे अपनी ऐयारी का भरोसा या घमण्ड हो, क्योंकि ऐयार लोग यमराज से भी नहीं डरते और जिस ऐयार का दिल इतना मजबूत न हो, उसे ऐयार कहना भी न चाहिए।

नागर एक नौजवान मर्द की सूरत बनाकर तेज़ और मजबूत घोड़े पर सवार तेजी के साथ रोहतासगढ़ की तरफ़ जा रही थी। उसकी कमर में ऐयारी का बटुआ, खंजर, कटार और एक पथरकला* भी था। दोपहर होते-होते उसने लगभग पचीस कोस के रास्ता तय किया और उसके बाद एक ऐसे गहन वन में पहुँची, जिसके अन्दर सूर्य की रोशनी बहुत कम पहुँचती थी, केवल एक पगडण्डी सड़क थी, जिस पर बहुत सम्हलकर सवारों को सफ़र करना पड़ता था, क्योंकि उसके दोनों तरफ़ कँटीले दरख्त और झाड़ियाँ थीं। इस जंगल के बाहर एक चौड़ी सड़क भी थी, जिस पर गाड़ी और छकड़ेवाले जाते थे, मगर घुमाव और चक्कर पड़ने के कारण, उस रास्ते को छोड़कर घोड़सवार और पैदल लोग अकसर, इसी जंगल में से होकर जाया करते थे, जिसमें इस समय नागर जा रही है, क्योंकि इधर से कई कोस का बचाव पड़ता है। (*पथरकला उस छोटी-सी बन्दूक को कहते हैं, जिसके घोड़े में चकमक लगा होता है, जो रंजक पर गिरकर आग पैदा करता है।)

यकायक नागर का घोड़ा भड़का और रुककर अपने दोनों कान आगे की तरफ़ करके देखने लगा। नागर शहसवारी का फन बखूबी जानती और अच्छी तरह समझती थी, इसलिए घोड़े के भड़कने और रुकने से उसे किसी तरह का रंज न हुआ, बल्कि वह चौकन्नी हो गयी और बड़े ग़ौर से चारों तरफ़ देखने लगी। अचानक सामने की तरफ़ पगडण्डी के बीचोबीच में बैठे हुए एक शेर पर उसकी निगाह पड़ी, जिसका पिछला भाग नागर की तरफ़ था, अर्थात् मुँह उस तरफ़ था, जिधर नागर जा रही थी। नागर बड़े ग़ौर से शेर को देखने और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। अभी उसने कोई राय पक्की नहीं की थी कि दाहिनी बगल की झाड़ी में से एक आदमी निकलकर बढ़ा और फुर्ती के साथ घोड़े के पास आ पहुँचा, जिसे देखते ही वह चौंक पड़ी और घबराहट के मारे बोल उठी, "ओफ, मुझे बड़ा भारी धोखा दिया गया!!" साथ ही इसके वह अपना हाथ पथरकले पर ले गयी, मगर उस आदमी ने इसे कुछ भी न करने दिया। उसने नागर का हाथ पकड़कर अपनी तरफ़ खींचा और एक झटका ऐसा दिया कि वह घोड़े के नीचे आ रही। वह आदमी तुरत उसकी छाती पर सवार हो गया और उसके दोनों हाथ कब्जे में कर लिये।

यद्यपि नागर को विश्वास हो गया कि अब उसकी जान किसी तरह नहीं बच सकती तो भी उसने बड़ी दिलेरी से अपने दुश्मन की तरफ़ देखा और कहा—

"बेशक उस हरामजादी ने मुझे पूरा धोखा दिया, मगर भूतनाथ तुम मुझे मारकर ज़रूर पछताओगे। वह काग़ज़ जिसके मिलने की उम्मीद में तुम मुझे मार रहे हो, तुम्हारे हाथ कभी न लगेगा, क्योंकि मैं उसे अपने साथ नहीं लायी हूँ, यदि तुम्हें विश्वास न हो तो मेरी तलाशी ले लो और बिना वह काग़ज़ पाये मेरे या मनोरमा के साथ बुराई करना तुम्हारे हक में ठीक नहीं है, इसे तुम अच्छी तरह जानते हो।

भूतनाथ : अब मैं तुझे किसी तरह नहीं छोड़ सकता। मुझे विश्वास है कि वे काग़ज़ात जिनके सबब से मैं तुझ ऐसे कमीनों की ताबेदारी करने पर मजबूर हो रहा हूँ, इस समय ज़रूर तेरे पास हैं तथा इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि कमलिनी ने अपना वादा पूरा किया और काग़ज़ों के सहित तुझे मेरे हाथ फँसाया। अब तू मुझे धोखा नहीं दे सकती और न तलाशी लेने की नीयत से मैं तुझे कब्जे से छोड़ ही सकता हूँ। तेरा ज़मीन से उठना मेरे लिए काल हो जायेगा, क्योंकि फिर तू हाथ नहीं आवेगी।

नागर : (चौंककर और ताज्जुब से) हैं, तो क्या वह कम्बख्त कमलिनी थी, जिसने मुझे धोखा दिया! अफसोस, शिकार घर में आकर निकल गया। ख़ैर, जो तेरे जी में आवे कर, यदि मेरे मारने ही में तेरी भलाई हो तो मार, मगर मेरी एक बात सुन ले।

भूतनाथ : अच्छा कह क्या कहती है? थोड़ी देर तक ठहर जाने में मेरा कोई हर्ज़ भी नहीं!

नागर : इसमें तो कोई शक नहीं कि अपने काग़ज़ात, जिसे तेरा जीवन चरित्र कहना चाहिए, लेने के लिए ही तू मुझे मारना चाहता है।

भूतनाथ : बेशक, ऐसा ही है, यदि वह मुट्ठा मेरे हाथ का लिखा हुआ न होता तो मुझे उसकी परवाह न होती।

नागर : हाँ, ठीक है, परन्तु इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि मुझे मारकर तू वे काग़ज़ात न पावेगा। ख़ैर, जब मैं इस दुनिया से जाती हूँ तो क्या ज़रूरत है कि तुझे भी बर्बाद करती जाऊँ? मैं तेरी लिखी चीज़ें खुशी से तेरे हवाले करती हूँ, मेरा दाहिना हाथ छोड़, मैं तुझे बता दूँ कि मुझे मारने के बाद वे काग़ज़ात तुझे कहाँ से मिलेंगे।

भूतनाथ इतना डरपोक और कमजोर भी न था कि नागर का केवल दाहिना हाथ, जिसमें हर्बे की किस्म से एक काँटा भी न था, छोड़ने से डर जाय, दूसरे उसने यह भी सोचा कि जब यह स्वयं ही काग़ज़ात देने को तैयार है तो क्यों न ले लिया जाय, कौन ठिकाना इसे मारने के बाद काग़ज़ात हाथ न लगें। थोड़ी देर कुछ सोच-विचारकर भूतनाथ ने नागर का दाहिना हाथ छोड़ दिया, जिसके साथ ही उसने फुर्ती से वह हाथ भूतनाथ के गाल पर दबाकर फेरा। भूतनाथ को ऐसा मालूम हुआ कि नागर ने एक सुई उसके गाल में चुभो दी, मगर वास्तव में ऐसा न था। नागर की उँगली में एक अँगूठी थी, जिस पर नगीने की जगह स्याह रंग का कोई पत्थर जड़ा हुआ था, वही भूतनाथ के गाल में गड़ा, जिससे एक लकीर-सी पड़ गयी और ज़रा खून भी दिखायी देने लगा। पर मालूम होता है कि वह नोकीला स्याह पत्थर जो अँगूठी में जड़ा हुआ था, किसी प्रकार का जहर हलाहल था, जो खून के साथ मिलते ही अपना काम कर गया, क्योंकि उसने भूतनाथ को बात करने की मोहलत न दी। वह एकदम चक्कर खाकर ज़मीन पर गिर पड़ा और नागर उसके कब्जे से छूटकर अलग हो गयी।

नागर ने घोड़े की बागडोर जो चारजामे से बँधी हुई थी, खोली और उसी से भूतनाथ के हाथ-पैर बाँधने के बाद एक पेड़ के साथ कस दिया, इसके बाद उसने अपने ऐयारी के बटुए में से एक शीशी निकाली, जिसमें किसी प्रकार का तेल था। उसने थोड़ा तेल उसमें से भूतनाथ के गाल में उसी जगह जहाँ लकीर पड़ी हुई थी, मला। देखते-ही-देखते उस जगह एक बड़ा फफोला पड़ गया। नागर ने खंजर की नोक से उस फफोले में छेद कर दिया, जिससे उसके अन्दर का बिल्कुल पानी निकल गया और भूतनाथ होश में आ गया।

नागर : क्यों बे कम्बख्त, अपने किये की सजा पा चुका या कुछ कसर है? तूने देखा, मेरे पास कैसी अद्भुत चीज़ है। अगर हाथी भी हो तो इस जहर को बर्दाश्त न कर सके और मर जाय, तेरी क्या हकीकत है!

भूतनाथ : बेशक, ऐसा ही है अब मुझे निश्चय हो गया कि मेरी किस्मत में ज़रा भी सुख भोगना बदा नहीं है।

नागर : साथ ही इसके तुझे यह भी मालूम हो गया कि इस जहर को मैं सहज ही में उतार भी सकती हूँ। इसमें सन्देह नहीं कि तू मर चुका था, मगर मैंने इसलिए तुझे जिला दिया कि अपने लिखे हुए काग़ज़ों का हाल दुनिया में फैला हुआ तू स्वयं देख और सुन ले, क्योंकि उससे बढ़कर कोई दुःख तेरे लिए नहीं है, पर यह भी देख ले कि उस कम्बख्त कमलिनी के साथ मैंने क्या किया, जिसने मुझे धोखे में डाला था। इस समय वह मेरे कब्जे में है, क्योंकि कल वह मेरे घर में ज़रूर आ टिकेगी! अहा, अब मैं समझ गयी कि रात वाले अद्भुत मामले की जड़ भी वही है। ज़रूर ही इस मुर्दे शेर को रास्ते में तूने ही बैठाया होगा!

भूतनाथ (आँखों में आँसू भरकर) अबकी दफे मुझे माफ करो, जो कुछ हुक्म दो मैं करने को तैयार हूँ।

नागर : मैं अभी कह चुकी हूँ कि तुझे मारूँगी नहीं, फिर इतना क्यों डरता है?

भूतनाथ : नहीं नहीं, मैं वैसी जिन्दगी नहीं चाहता, जैसी तुम देती हो, हाँ, यदि इस बात का वादा करो कि वे काग़ज़ात किसी दूसरे को न दोगी तो मैं वे सब काम करने के लिए तैयार हूँ, जिनसे पहिले इनकार करता था

नागर : मैं ऐसा कर सकती हूँ, क्योंकि आख़िर तुझे जिन्दा छोड़ूँगी ही और यदि मेरे काम से तू जी न चुरावेगा तो मैं तेरे काग़ज़ात भी बड़ी हिफ़ाज़त से रक्खूँगी। हाँ, खूब याद आया-उस चीठी को तो ज़रा पढ़ना चाहिए जो उस कम्बख्त कमलिनी ने यह कह कर दी थी कि मुलाकात होने पर मनोरमा को दे देना।

यह सोचते ही नागर ने बटुए में से वह चीठी निकाली और पढ़ने लगी। यह लिखा हुआ था—

"जिस काम के लिए मैं आयी थी ईश्वर की कृपा से वह काम बखूबी हो गया। वे काग़ज़ात इसके पास हैं, ले लेना। दुनिया में यह बात मशहूर है कि उस आदमी का जहान से उठ जाना ही अच्छा है, जिससे भलों को कष्ट पहुँचे। मैं तुमसे मिलने के लिए यहाँ बैठी हूँ।"

नागर : देखो नालायक ने चीठी भी लिखी तो ऐसे ढंग से कि यदि मैं चोरी से पढ़ूँ भी तो किसी तरह का शक न हो और इसका पता भी न लगे कि यह भूतनाथ के नाम लिखी गयी है या मनोरमा के, स्त्रीलिंग और पुर्लिग को भी बचा ले गयी है। उसने यही सोचके चीठी मुझे दी होगी कि जब यह भूतनाथ के कब्जे में आ जायगी और वह इसकी तलाशी लेगा तो यह चीठी उसके हाथ लग जायगी और जब वह पढ़ेगा तो नागर को अवश्य मार डालेगा और फिर तुरत आकर मुझसे मिलेगा, जिसमें वह किशोरी को छुड़ा ले। अच्छा कम्बख्त देख तेरे साथ क्या सलूक करती हूँ।

भूतनाथ : अच्छा इतना वादा तो मैं कर चुका हूँ कि हर तरह से तुम्हारी ताबेदारी करूँगा और जो कुछ तुम कहोगी बे-उज्र बजा लाऊँगा, अब इस समय मैं तुम्हें एक भेद की बात बताता हूँ, जिसे जानकर तुम बहुत प्रसन्न होवोगी।

नागरः कहो क्या कहते हो? शायद तुम्हारी नेकचलनी का सबूत मिल जाय।

भूतनाथ : मेरे हाथ तो बँधे हैं, ख़ैर, तुम ही आओ, मेरी कमर से खंजर निकालो। उसके साथ एक पुर्जा बँधा है, खोलकर पढ़ो, देखो क्या लिखा है?

नागर भूतनाथ के पास गयी और उसकी कमर से खंजर निकालना चाहा, मगर खंजर पर हाथ पड़ते ही उसके बदन में बिजली दौड़ गयी और वह काँपकर ज़मीन पर गिरते ही बेहोश हो गयी। भूतनाथ पुकार उठा—

"वह मारा।" उस तिलिस्मी खंजर का हाल जो कमलिनी ने भूतनाथ को दिया था, पाठक बखूबी जानते ही हैं, कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं। इस समय वही खंजर भूतनाथ की कमर में था। उसकी तासीर से नागर बिल्कुल बेख़बर थी। वह नहीं जानती थी कि जिसके पास उसके जोड़ की अँगूठी न हो, वह उस खंजर को छू नहीं सकता।

अब भूतनाथ का जी ठिकाने हुआ और वह अपने छूटने का उद्योग करने लगा, परन्तु हाथ-पैर बँधे रहने के कारण कुछ न कर सका। आख़िर, वह ज़ोर-जोर से चिल्लाने लगा, जिससे किसी आते-जाते मुसाफ़िर के कान में आवाज़ पड़े तो वह आकर उसको छुड़ावे।

दो घण्टे बीत गये, मगर किसी मुसाफ़िर के कान में भूतनाथ की आवाज़ न पड़ी और तब तक नागर भी होश में आकर उठ बैठी।

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