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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

छठवाँ बयान

दूसरे दिन कुछ रात बीते कमलिनी फिर मनोरमा के मकान पर पहुँची। बाग के फाटक पर उसी दरबान को टहलते पाया, जिससे कल बातचीत कर चुकी थी। इस समय बाग का फाटक खुला हुआ था और उस दरबान के अतिरिक्त और भी कई सिपाही वहाँ मौजूद थे। दरबान कमलिनी को देखते ही खुशी से आगे बढ़ा और बोला, "आइए आइए, मैं कब से राह देख रहा हूँ। नागरजी को आये दो घण्टे से ज़्यादे हो गये और वे आपसे मिलने के लिए बेताब हो रही हैं।"

दरबान के साथ-ही-साथ कमलिनी बाग के अन्दर गयी और उस आलीशान मकान के सहन में पहुँची जो इस बाग के बीचोबीच में बना हुआ था। इस मकान के कमरों, दालानों कोठरियों, तहखानों और पेचीले रास्तों का यदि यहाँ पूरा-पूरा बयान किया जाय तो पाठकों का बहुत समय नष्ट होगा, क्योंकि इस हिकमती मकान के हर एक दर्जे और हरएक किस्से कारीगरी और मतलब के साथ बनाये गये हैं। यदि हमारे पाठकों को तीन-चार बार इस मकान के अन्दर आने और रात-भर रहने का मौका मिल जायगा तो उन्हें यहाँ का बहुत भेद मालूम हो जायगा।

कमलिनी ने नागर को सहन में टहलते हुए पाया। वह सिर नीचा किये किसी सोच में डूबी हुई टहल रही थी, कमलिनी के पैर की आहट पाकर चौंकी और बोली—

नागर : क्या मेरी सखी मनोरमा का सन्देशा लेकर तुम ही आयी हो?

कमलिनी : हाँ!

नागर : तुम कौन और कहाँ की रहनेवाली हो? मैंने तुम्हें सिवाय आज के पहिले कभी नहीं देखा।

कमलिनी : हाँ, ठीक है, परन्तु मैं अपना परिचय किसी तरह नहीं दे सकती।

नागर : यदि ऐसा है तो मैं तुम्हारी बातों पर क्योंकर विश्वास करूँगी?

कमलिनी : यदि मेरी बातों पर विश्वास न करोगी तो मेरा कुछ भी न बिगड़ेगा, अगर कुछ बिगड़ेगा तो तुम्हारा या तुम्हारी सखी मनोरमा का। जब मनोरमा ने मुझे तुम्हारे पास भेजा तो मुझे भी इस बात का तरद्दुद हुआ और मैंने उनसे कहा कि तुम मुझे भेजती तो हो, मगर जाने से कोई काम न निकलेगा, क्योंकि मैं किसी तरह अपना परिचय किसी को नहीं दे सकती और बिना मुझे अच्छी तरह जाँचे, नागर मेरी बातों पर विश्वास न करेंगी। इसके जवाब में मनोरमा ने कहा कि मैं लाचार हूँ, सिवाय तेरे यहाँ पर मेरा हितू कोई नहीं, जिसे नागर के पास भेजूँ, यदि तू न जायगी तो मेरी जान किसी तरह नहीं बच सकती। ख़ैर, तुम्हें मैं एक शब्द बताती हूँ, मगर ख़बरदार, वह शब्द सिवाय नागर के किसी दूसरे के सामने जुबान से न निकालियो। जिस समय नागर तेरी जुबान से वह शब्द सुनेगी उस समय उसका शक जाता रहेगा और जो कुछ तू उसे कहेगी, वह अवश्य करेगी। आख़िर मनोरमा ने वह शब्द मुझे बताया और उसी के भरोसे मैं यहाँ तक आयी हूँ।

नागर : (कुछ सोचकर) वह शब्द क्या है?

कमलिनी : (चारों तरफ़ देखकर और किसी को न पाकर) 'विकट'।

नागर : (कुछ देर तक सोचने के बाद) ख़ैर, मुझे तुम पर भरोसा करना प़ड़ा, अब कहो मनोरमा किस अवस्था में है और मुझे क्या करना चाहिए?

कमलिनी : मनोरमा भूतनाथ से मिलने के लिए गयी थी, मगर उससे मुलाकात होने पर न मालूम कौन-सा ऐसा सबब आ पड़ा कि उसने भूतनाथ का सिर काट लिया।

नागर : (चौंककर) हैं! भूतनाथ को मार ही डाला!!

कमलिनी : हाँ, उस समय मैं मनोरमा के साथ, मगर कुछ दूर पर खड़ी यह हाल देख रही थी।

नागर : अफसोस, मनोरमा ने बहुत ही बुरा किया, आजकल भूतनाथ से बहुतकुछ काम निकलने का जमाना था, ख़ैर तब क्या हुआ?

कमलिनी : मनोरमा को मालूम न था कि राजा बीरेन्द्रसिंह का ऐयार तेजसिंह इस समय थोड़ी ही दूर पर एक पेड़ की आड़ में खड़ा भूतनाथ और मनोरमा की तरफ़ देख रहा है।

नागर : ओफ, तेजसिंह को भूतनाथ के मरने का सख्त रंज हुआ होगा, क्योंकि इन दिनों भूतनाथ दिलोजान से उन लोगों की मदद कर रहा था, अच्छा तब?

कमलिनी : तेजसिंह बड़ी फुर्ती से उस जगह जा पहुँचा, जहाँ मनोरमा खड़ी थी और एक लात ऐसी मनोरमा की छाती पर लगायी कि वह बदहवास ज़मीन पर गिर पड़ी। तेजसिंह ने उसकी मुश्कें बाँध लीं और जफील बजायी, जिसकी आवाज़ सुन कई आदमी वहाँ आ पहुँचे। उन लोगों ने मनोरमा के साथ मुझे भी गिरफ़्तार कर लिया। उसी समय मनोरमा के कई सवार दूर से आते हुए दिखायी पड़े, मगर उन लोगों के पहुँचने के पहिले ही तेजसिंह और उसके साथी हम दोनों को लेकर, वहाँ से थोड़ी दूर पर पेड़ों की आड़ में जा छिपे। दूसरे दिन हम दोनों ने अपने को रोहतासगढ़ किले के अन्दर पाया। मनोरमा ने अपने छूटने की बहुत कुछ कोशिश की मगर कोई काम न चला। आख़िर उसने तेजसिंह से कहा कि "भूतनाथ बड़ा ही शैतान, नालायक और खूनी आदमी था, उसका असल हाल आप लोग नहीं जानते, यदि जानते तो आप लोग खुद भूतनाथ का सिर काट डालते'। इसके जवाब में तेजसिंह ने कहा कि 'यदि इस बात को तू साबित कर दे तो मैं तुझे छोड़ दूँगा'। मनोरमा ने मेरी तरफ़ इशारा करके कहा कि 'यदि आप इसे छोड़ दें और पाँच दिन की मोहलत दें तो इसे मैं अपने घर भेजकर भूतनाथ के लिखे थोड़े काग़ज़ात ऐसे मँगा दूँ कि जिन्हें पढ़ते ही आपको मेरी बातों पर विश्वास हो जाय और भूतनाथ का कुछ विचित्र हाल भी, जिसे आप लोग नहीं जानते, मालूम हो। यदि मैं झूठी निकलूँ तो जो कुछ चाहें मुझे सजा दीजियेगा'। तेजसिंह ने कुछ देर सोच-विचारकर कहा कि 'हो सकता है मुझसे बहाना करके इसे तुम अपने घर भेजो और किसी तरह की मदद मँगाओ, मगर मुझे इसकी कुछ परवाह नहीं, मैं तुम्हारी बात मंजूर करता हूँ और इसे (मेरी तरफ़ इशारा करके) छोड़ देता हूँ, जो कुछ चाहे इसे समझा-बूझाकर अपने घर भेजो'। इसके बाद मुझसे निराले में बातचीत करने के लिए आज्ञा माँगी गयी और तेजसिंह ने भी उसे मंजूर किया, आख़िर मनोरमा ने मुझे बहुत कुछ समझा-बूझाकर तुम्हारे पास रवाना किया। अब मैं तो रोहतासगढ़ जानेवाली नहीं क्योंकि बड़ी मुश्किल से जान बची है, मगर तुम्हें मुनासिब है कि जहाँ तक जल्द हो सके भूतनाथ के काग़ज़ात लेकर रोहतासगढ़ जाओ और अपनी सखी के छुड़ाने का बन्दोबस्त करो।

कमलिनी की बातें सुनकर नागर सोच-सागर में डूब गयी। न मालूम उसके दिल में क्या-क्या बातें पैदा हो रही थीं, मगर लगभग आधी घड़ी के वह चुपचाप बैठी रही। इसके बाद उसने सिर उठाया और कमलिनी की देखकर कहा, "ख़ैर, अब मुझे रोहतासगढ़ जाना ज़रूरी हुआ, रात-भर में सब इन्तजाम करके सवेरे या कुछ दिन चढ़े रवाना हो जाऊँगी।"

कमलिनी : अच्छा तो मेरे जिस्म जोकुछ काम था, उसे मैं कर चुकी, अब तुम जो मुनासिब समझो, करो और मुझे आज्ञा दो कि जाऊँ और अपना काम देखूँ।

नागर : इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुमने मुझपर और मनोरमा पर भारी अहसान किया। अब मैं चाहती हूँ कि आज की रात तुम यहाँ रह जाओ, क्योंकि मनोरमा को छुड़ाने के लिए रात-भर में मैं जोकुछ इन्तजाम करूँगी, उसका हाल सवेरे तुमसे कुछ सलाह करके तब रोहतासगढ़ जाऊँगी।

कमलिनी : मैं इस योग्य नहीं हूँ कि तुम्हें राय दूँ, परन्तु रात-भर के लिए अटक जाने में मेरा कोई हर्ज़ नहीं है, यदि इससे आप लोगों की कुछ भी भलाई हो।

नागर ने कमलिनी के लिए एक कमरा खोल दिया और उसके खाने-पीने के लिए बखूबी इन्तजाम कर दिया।

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