लोगों की राय

नई पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता

चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

93 पाठक हैं

चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

उन्नीसवां बयान

दिन अनुमान पहर भर के आ गया होगा कि फतहसिंह की फौज़ लड़ती हुई फिर किले के दरवाज़े तक पहुंची। शिवदत्त की फौज़ बुर्जियों पर से गोलों की बौछार कर इन लोगों को भगाया ही चाहती थी कि एकाएक किले का दरवाज़ा खुल गया और जर्द रंग की चार झंडियां दिखाई पड़ीं जिसे देख राजा सुरेन्द्रसिंह अपनी फौज़ के साथ धड़ाधड़ कर फाटक के अन्दर घुस गये और बन्द इसके धीरे-धीरे कुल फौज़ किले में दाखिल हुई। फिर किसी को मुकाबले की ताब न रही, साथ वाले आदमी चारों तरफ दिखाई देने लगे। फतहसिंह ने बुर्ज पर से शिवदत्त का सब्ज झण्डा गिराकर अपना जर्द* झण्डा खड़ा कर दिया और हाथ से चोब उठा कर ज़ोर से तीन चोटें डंके पर लगाई जो उसी झण्डे के नीचे रखा हुआ था। ‘क्रूम धूम फतह’ की आवाज़ निकली जिसके साथ ही किले वालों का जी टूट गया और कुंवर वीरेन्द्रसिंह की मुहब्बत दिल में असर कर गई। (*वीरेन्द्रसिंह के लश्कर का निशान जर्द रंग का था।)

अपने हाथ से कुमार ने फाटक पर चालीस आदमियों के सिर काटे थे, मगर ऐयारों के सहित वे भी बहुत जख्मी हो गये थे। राजा सुरेन्द्रसिंह किले के अन्दर घुसे ही थे कि कुमार, तेज़सिंह और देवीसिंह झंड़ियां लिये चरणों पर गिर पड़े, ज्योतिषीजी ने आशीर्वाद दिया। इससे ज़्यादा न ठहर सके, जख्मों के दर्द से चारों बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़े और बदन से खून निकलने लगा।

जीतसिंह ने पहुंच कर चारों के जख्मों पर पट्टी बांधी, चेहरा धुलने से ये चारों पहचाने गये। थोड़ी देर में सब होश में आये। राजा सुरेन्द्रसिंह अपने प्यारे लड़के को देर तक छाती से लगाए रहे और तीनों ऐयारों पर भी बहुत मेहरबानी की। महाराज जयसिंह कुमार की दिलावरी पर मोहित हो तारीफ करने लगे, कुमार ने उनके पैरों को भी हाथ लगाया और खुशी-खुशी दूसरे लोगों से मिले।

चुनार का किला फतह हो गया। महाराज जीतसिंह और सुरेन्द्रसिंह दोनों ने मिलकर उसी रोज़ कुमार को राज गद्दी पर बैठा कर तिलक कर दिया। जश्न शुरू हुआ और अनाथों को खैरात बंटने लगी। सात रोज़ तक जश्न रहा। महाराज शिवदत्त की कुल फौज़ ने दिलोजान से कुमार की ताबेदारी कबूल की।

उनका कोई आदमी जनाने महल में नहीं गया बल्कि वहां इन्तज़ाम करके पहरा मुकर्रर कर दिया गया।

कई दिन बाद महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह कुंवर वीरेन्द्रसिंह को तिलिस्म तोड़ने की ताकीद करके खुशी-खुशी विजयगढ़ और नौगढ़ रवाना हुए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai