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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

अट्ठारहवां बयान

तेज़सिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकल कर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिताकर दूसरे दिन सवेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश दूर से दिखाई पड़ा जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब इनके करीब पहुंचा, घोड़े से उतर ज़मीन पर कुछ रख दूर जा खड़ा हुआ। कुमार ने वहां जाकर देखा तो तिलिस्मी किताब दिखाई पड़ी और चिट्ठी पाई जिसे वे बहुत खुश होकर तेज़सिंह से बोले–

‘‘तेज़सिंह क्या करें? यह वनकन्या मेरे ऊपर बराबर अपने एहसान के बोझ डाल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि यह उसी का आदमी है जो तिलिस्मी किताब मेरे रास्ते में रख दूर जा खड़ा हुआ! हाय, इसके इश्क ने भी मुझे निकम्मा कर दिया है!’’

यह कहकर कुमार ने चिट्ठी पढ़ी–

‘‘किसी तरह वह तिलिस्मी किताब मेरे हाथ आ गई जो तुम्हें देती हूं। अब जल्दी तिलिस्म तोड़कर कुमारी चन्द्रकान्ता को छुड़ाओ, वह बेचारी बड़ी तकलीफ में पड़ गई होगी। चुनार में लड़ाई हो रही है, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जवांमर्दी दिखाकर फतह अपने नाम लिखाओ!

तुम्हारी दासी

वियोगिनी।’’

कुमार : तेज़सिंह, तुम भी इसे पढ़ लो।

तेज़सिंह : (चिट्ठी पढ़कर) न मालूम वह वनकन्या मनुष्य है या अप्सरा, कैसे-कैसे काम इसके हाथ से होते हैं।

कुमार : (ऊंची सांस लेकर) हाय, एक बला तो सिर से टले।

देवीसिंह : मेरी राय है कि आप लोग यहीं ठहरें, मैं चुनार जाकर पहले सब हाल दरियाफ्त कर आता हूँ!

कुमार : ठीक है, अब चुनार सिर्फ पांच कोस होगा, तुम वहां की खबर ले आओ तब हम चलें, क्योंकि कोई बहादुरी का काम करके हम लोगों का जाहिर होना ज़्यादा मुनासिब होगा।

देवीसिंह चुनार की तरफ रवाना हुए। कुमार को रास्ते में एक दिन और अटकना पड़ा, दूसरे दिन देवीसिंह लौटकर कुमार के पास आये और चुनार की लड़ाई का हाल महाराज जयसिंह के गिरफ्तार होने की खबर, और जीतसिंह की ऐयारी की तारीफ करके बोले–‘‘लड़ाई अभी हो रही है, हमारी फौज़ कई दफे चढ़कर किले के दरवाज़े तक पहुंची मगर वहां अटक कर दरवाज़ा नहीं तोड़ सकी। किले की तोपों की मार ने हमारा बहुत नुकसान किया।’’

इन खबरों को सुनकर कुमार ने तेज़सिंह से कहा, ‘‘अगर हम लोग किसी तरह किले के अन्दर पहुंच कर फाटक खोल सकते तो बड़ी बहादुरी का काम होता।’’

तेज़सिंह : इसमें कोई शक नहीं कि यह बड़ा दिलावरी का काम है। या तो किले का फाटक ही खोल देंगे या फिर जान से हाथ धोएगें।

कुमार : हम लोगों के वास्ते लड़ाई से बढ़कर मरने के लिए और कौन-सा मौका है? या तो चुनार फतह करेंगे, या बैकुण्ठ की ऊंची गद्दी दखल करेंगे, दोनों हाथ में लड्डू हैं।

तेज़सिंह : शाबाश, इससे बढ़कर और क्या बहादुरी होगी! तो चलिए हम लोग भेष बदलकर किले में जायें। मगर यह काम दिन में नहीं हो सकता।

कुमार : क्या हर्ज़ है, रात ही को सही। रात भर किले के अन्दर छिपे रहेंगे, सुबह जब लड़ाई खूब रंग पर आवेगी उसी वक़्त फाटक पर टूट पड़ेंगे। सब फसीलों पर चढ़ होंगे, फाटक पर सौ-पचास आदमियों में घुसकर दरवाज़ा खोल देना कोई बड़ी बात नहीं है।

देवीसिंह : कुमार की राय बहुत सही है, मगर ज्योतिषी जी को बाहर ही छोड़ देना चाहिए।

ज्योतिषीजी : सो क्यों?

देवीसिंह : आप ब्राह्मण हैं, वहां क्या ब्रह्महत्या के लिए आपको ले चलें? यह काम क्षत्रियों का है, आपका नहीं।

कुमार : हां ज्योतिषीजी, आप किले में मत जाइये।

ज्योतिषीजी : अगर मैं ऐयारी न जानता होता तो आपका ऐसा कहना मुनासिब था, मगर जो ऐयारी जानता है उसके आगे जमांमर्दी और दिलावरी हाथ जोड़े खड़ी रहती है।

देवीसिंह : इसमें तो कोई शक नहीं है, कि ज्योतिषीजी हम लोगों के पूरे दोस्त हैं, कभी संग न छोड़ेंगे, अगर यह मर भी जायेंगे, तो ब्रह्मराक्षस होंगे, और भी हमारा काम इनसे निकला करेगा।

ज्योतिषीजी : क्या हमारी ही अधोगति होगी? अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें कब छोड़ूंगा। तुम्हीं से तो ज़्यादा मुहब्बत है।

इनकी बातों पर कुमार हंस पड़े और घोड़े पर सवार हो ऐयारों को साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। शाम होते-होते ये लोग चुनार पहुंचे और रात को मौका पा कमन्द लगा किले के अन्दर घुस गये।

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