नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
|
336 पाठक हैं |
‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
देवीदीन—(कातर भाव से रामनाथ को देखता है) हम लोग तो रमानाथ कहते हैं। असली नाम यही है या कुछ और यह हम नहीं जानते।
सिपाही—(रमानाथ से) बोलो पंडित जी, क्या नाम है तुम्हारा? रमानाथ या हीरालाल, या दोनों? एक घर का, एक ससुराल का?
तीसरा सिपाही—(जनता से) नाव है रमानाथ, बतावत हैं हीरालाल; सबूत होई गवा। चलो जी थाने में।
(सिपाही रमानाथ को ले कर आगे बढ़ते हैं। रमानाथ ने सिर झुका लिया है। देवीदीन बेबस–सा ताकता है, फिर एक चोर झपटता है। जनता कानाफूसी करती है।)
जनता 1—शुबहे की बात तो है।
जनता 2—साफ है। नाम और पता दोनों गलत दिया।
जनता 3—उचक्को–सो है।
जनता 4—कोई इश्तहारी मुलजिम है।
(इसी तरह बातें करते–करते भीड़ छँटती है और परदा गिरता है।)
|