नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
सिपाही—कौन मुहल्ला?
रमानाथ—(फिर नकली साहस से) तुम तो मेरा हुलिया लिख रहे हो।
सिपाही—(तेजी से) तुम्हारा हुलिया पहले से ही लिखा हुआ है। नाम झूठ बताया। सकूनत जूठ बतायी, मुहल्ला पूछा तो बगलें झाँकने लगे। महीनों से तुम्हारी तलाश हो रही है, आज जा कर मिले हो। चलो थाने पर।
(वह रमानाथ का हाथ पकड़ लेता है, एक भीड़ जमा होने लगती है।)
रमानाथ—(हाथ छुड़ाते हुए) वारंट लाओ, तब हम चलेंगे। क्या मुझे कोई देहाती समझ लिया है।
सिपाही—(दूसरे से) पकड़ लो जी इनका हाथ। वहीं थाने पर वारंट दिखाया जायगा।
(वे रमानाथ को पकड़ते हैं। इसी समय देवीदीन उधर आ निकलता है। तीन सिपाहियों को रमानाथ को घसीटते देखकर वह आगे बढ़कर उनसे बातें करता है।)
देवीदीन—हें, हें, जमादार यह क्या करते हो? यह पंडित जी तो हमारे मेहमान हैं, इन्हें कहाँ पकड़े लिये जाते हो?
सिपाही—(रुक कर) तुम्हारे मिहमान हैं यह, कब से?
देवीदीन—चार महीने से कुछ बेसी हुए होंगे। मुझे प्रयाग में मिल गये थे। रहने वाले भी वहीं के हैं; मेरे साथ ही तो आये थे।
सिपाही—(प्रसन्न होकर) इनका नाम क्या है?
देवीदीन—(सिटपिटा कर) नाम इन्होंने बताया न होगा।
दूसरा सिपाही—(आँखें निकाल कर) जान परत है तुमहू मिले हो, नाँव काहे नहीं बतावत हो इनका?
देवीदीन—(बेबस का– सा साहस) मुझसे रोब न जमाना पाँडे समझे! यहाँ धमकियों में नहीं आने के।
तीसरा सिपाही—बूढ़े बाबा! तुम तो ख्वाहन ख्वाह बिगड़ रहे हो। इनका नाम क्यों नहीं बतला देते?
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